Book Title: Agam 37 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Ek Adhyayan
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshwanath Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 177
________________ १६० दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन ।।४।। चतुर्थगणिसम्पदाध्ययननियुक्तिः ।। दव्वंसरीरभविओ भावगणी गुणसमन्निओ दुविहो। गणसंगहुवग्गहकारओ अ धम्मं च जाणतो ॥२५॥ नायं गणिअं गुणिअं गयं च एगट्ठएवमाई। नाणी गणित्ति तम्हा धम्मस्स विआणओ भणिओ ॥२६॥ आयामि अहीए जं नाओ होइ समणधम्मो उ। तम्हा आयारधरो भण्णइ पढमं गणिट्ठाणं॥२७॥ गणसंगहुवग्गहकारओ गणी जो पहू गणं धरिउं । तेण णओ छक्कं संपयाए पगयं चउसु तत्थ॥२८॥ द्रव्यशरीरभविकः भावगणिः गुणसमन्वितः द्विविधः । गणसङ्ग्रहोपग्रहकारकश्च धर्मं च जानन्॥२५॥ ज्ञातं गणितं गुणितं गतं च एकार्थमेवमादिकम् । ज्ञानीन गणिति तस्मात् धर्मस्य विज्ञायको भणितः ॥२६॥ आचारे अधीते यत् ज्ञातः भवति श्रमणधर्मस्तु । तस्मात् आचारधरो भण्यते प्रथमं गणिस्थानम् ॥२७॥ गणसङ्ग्रहोपग्रहकारकः गणिः यत्प्रभुः गणं धारितुम् । तेन नयः षट्कं सम्पदः प्रकृतं चतसृषु तत्र ॥२८॥ गणि दो प्रकार का होता है- गणि का सांसारिक शरीर (द्रव्यगणि और गणि के आचार सम्पदा आदि आठ) गुणों से युक्त भावगणि। गणि धर्म (आचार नियमों) का ज्ञाता और गण का सङ्ग्रह और उपकार करने वाला गणि होता है।।२५।। ज्ञात (विदित), गणित (गिना हुआ), गुणित (मनन किया हुआ), गत (जाना हुआ) आदि एकार्थक हैं। धर्म अर्थात् आचार-व्यवस्था का ज्ञाता होने से इसे ज्ञानी, गणि आदि कहा गया है।।२६।। आचार (अङ्ग) का अध्ययन करने पर ही श्रमण धर्म ज्ञात होता है इसलिए आचारधर (आचाराङ्ग का ज्ञाता) ही प्रथम गणिस्थान या गुण कहा जाता है।।२७।। ___ जो गण का सङ्ग्रह और उपकार करने और गण को धारण करने में समर्थ है वही गणि है। प्रस्तुत चतुर्थ अध्ययन में गणिसम्पदा का छ: अपेक्षाओं से वर्णन किया गया है।।२७।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232