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१६२ दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन
।।६।। षष्ठोपासकप्रतिमाध्ययननियुक्तिः ।। दव्वतदट्ठो वा स कमोहे भावे उवासका चउरो । दव्वे सरीरभविउं तदट्ठिओ ओयणाईसु ॥३३॥ कुप्पवयणं कुधम्म उवासए मोहुवासको सोउ । हंदि तहिं सो सेयं ति मण्णती सेयं नत्थि तहिं ॥३४॥ भावे उ सम्मट्टिी असमणो जं उवासए समणे । तेण सो गोण्णं नाम उवासगो सावगो वेत्ति ॥३५॥ काम दुवालसंग पवयणमणगारगारधम्मो अ । ते केवलीहिं पसूआ पउवसग्गो पसूअंति ॥३६॥
कुप्रवचनं कुधर्ममुपासको मोहोपासकः स तु । हन्त! तत्र स श्रेयइति मन्यते श्रेयो नास्ति तत्र ॥३४॥ भावे तु सम्यग्दृष्टिश्रमणो यदुपासकः श्रमणान् । तेन स गौणो नाम उपासकः श्रावको वेति ॥३५॥ कामं द्वादशाङ्गं प्रवचनमनगारागारधर्मञ्च । ते केवलीभिः प्रसूताः प्र उपसर्गात् प्रसूयन्ति ॥३६॥
उपासक चार प्रकार का होता है- द्रव्योपासक, तदर्थोपासक, मोहोपासक और भावोपासक। द्रव्यशरीर से उपासक होने योग्य (द्रव्योपासक तथा) ओदनादि पदार्थों की इच्छा रखने वाला तदर्थोपासक है।।३२-३३।।
(जो) कुप्रवचन और धर्म (जिनेतर धर्म) की उपासना करता है, वह मोहोपासक है, खेद है वह (मोहोपासक) वहाँ (कुधर्म में) श्रेय (कल्याण) मानता है (किन्तु) वहाँ श्रेय (कल्याण) नहीं है।।३४।।
श्रमणेतर सम्यग्दृष्टि, श्रमण की उपासना करने के कारण उपासक अथवा श्रावक गौण अर्थात् गुण-निष्पन्न नाम वाला होने से भावोपासक है।।३५।।
द्वादशाङ्गों में अनगार धर्म और आगार धर्म का प्रवचन है, वे (अनगार और आगार) केवलज्ञानियों द्वारा उत्पन्न किये गये 'प्र' उपसर्गपूर्वक उत्कृष्ट अर्थ में प्रसूत होते हैं।।३६।।