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छन्द-दृष्टि से दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : पाठ-निर्धारण ८५ छार-डगल-मल्लमातीणं गहणं, वासा उडुबद्धगहियाण वोसिरणं, वत्थातियाण धरणं, छाराइयाण वा धरणं, जति ण गेण्हंति तो मासलहुं, जा य तेहिं विणा गिलाणातियाण विराहणा, भायणे वि विराधिते लेवेण विणा। तम्हा घेत्तव्वाणि। छारो गहितो एककोणे घणो कज्जति। जति ण कज्जं तलियाहिं तो विगिंचिज्जंति। अह कज्जं ताहि तो छारपुंजस्स मज्झे ठविज्जति। पणयमादि-संसज्जणभया उभयं कालं तलियाडगलादियं च सव्वं पडिलेहंति। लेवं संजोएत्ता अप्पडिभुज्जमाणभायणहेट्ठा पुष्फगे कीरति, छारेण य उग्गुंठिज्जति, सह भायणेण पडिलेहिज्जति, अह अपडिभुज्जमाणं भायणं णत्थि ताहे भल्लगं लिंपिऊण पडिहत्थं भरिज्जति। एवं काणइ गहणं काणइ वोसिरणं काणइ गहणघरणं ।। ३१७५।।
-नि०भा०चू०१५ नि०भा०चू० में उपलब्ध किन्तु द०नि० में अनुपलब्ध इन गाथाओं का विषय-प्रतिपादन की दृष्टि से भी महत्त्व है। नि०भा० सं० ३१५४ व द०नि० गाथा ६८ में श्रमणों के सामान्य चातुर्मास (१२० दिन) के अतिरिक्त न्यूनाधिक चातुर्मास की अवधि का वर्णन है। उसमें ७० दिन के जघन्य वर्षावास का उल्लेख है। ३१५५वीं गाथा में ७० दिन का वर्षावास किन स्थितियों में होता है यह बताया गया है जो कि विषय प्रतिपादन की दृष्टि से बिल्कुल प्रासङ्गिक और आवश्यक है।
गाथा सं० ३१६९ और ३१७० में श्रमणों द्वारा आहार ग्रहण के प्रसङ्ग में विकृति ग्रहण का नियम वर्णित है। उल्लेखनीय है कि द०नि० की ८२वीं गाथा के चारों चरण उक्त दोनों गाथाओं के क्रमश: प्रथम चरण (३१६९) और द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ चरण (३१७०) के समान हैं। इन दोनों गाथाओं का अंश नियुक्ति में एक ही गाथा में कैसे मिलता है? यह विचारणीय है।
विकृति के ही प्रसङ्ग में अचित्त विकृति का प्ररूपण करने वाली ३१७५वीं गाथा भी प्रासङ्गिक है क्योंकि द०नि० में सचित्त विकृति का प्रतिपादन है परन्तु अचित्त विकृति के प्रतिपादन का अभाव है जो असङ्गत है। अत: यह गाथा भी द०नि० का अङ्ग रही होगी। यही स्थिति शेष दोनों गाथाओं ३१९२ और ३२०९ की भी है।
इसप्रकार चूर्णि में इन गाथाओं का विवेचन और विषय-प्रतिपादन में साकाङ्क्षता द०नि० से इन गाथाओं के सम्बन्ध पर महत्त्वपूर्ण समस्या उपस्थित करती हैं।
द०नि० की गाथा संख्या पर विचार करने के पश्चात् गाथाओं में प्रयुक्त छन्दों का विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है-द०नि०, प्राकृत के मात्रिक छन्द 'गाथा' में निबद्ध है। 'गाथा सामान्य के रूप में जानी जाने वाली यह संस्कृत छन्द आर्या के समान है। 'छन्दोऽनुशासन' की वृत्ति में उल्लिखित भी है- 'आर्यैव संस्कृतेतर भाषासु गाथा संज्ञेति गाथा लक्षणानि' अर्थात् संस्कृत का आर्या छन्द ही दूसरी भाषाओं