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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन
छठवें 'उपासकप्रतिमा' अध्ययन में उपासक- श्रावक के उपर्युक्त चारों भेदों का लक्षण बताकर श्रावक ही उपासक है, श्रमण नहीं, इसका युक्तिपूर्वक प्रतिपादन किया गया है। द्रव्य और भाव निक्षेप की अपेक्षा से प्रतिमा का स्वरूप बताया गया है। द्रव्योपासक- संसारी शरीर धारण करने वाला, तदर्थोपासक-ओदनादि पदार्थों की इच्छा वाला, मोहोपासक-कुप्रवचन और कुधर्म की उपासना करने वाला और भावोपासक-श्रमणों का आराधक सम्यग्दृष्टि श्रावक है। किसी कार्य को जो समग्र रूप से सम्पादित करता है उसी के द्वारा कार्य कृत कहा जाता है। केवलज्ञान प्राप्त कर लेने के पश्चात् श्रमण भक्ति या उपासना नहीं करते हैं अत: वे उपासक नहीं कहे जा सकते हैं। परिणामस्वरूप गृही अथवा श्रावक ही सच्चे अर्थों में उपासक कहे जाते हैं। संन्यास चाहने वाले गृहस्थ का द्रव्यलिङ्ग संयमप्रतिमा है। प्रतिमा-विशेष में प्रतिमा के अपेक्षित गुणों का श्रावक में विद्यमान होना भाव प्रतिमा है।
सप्तम 'भिक्षुप्रतिमा अध्ययन में भाव निक्षेप की अपेक्षा से भिक्षप्रतिमा का ..पादन है। भाव निक्षेप की दृष्टि से भिक्षु प्रतिमायें- समाधि, उपधान, विवेक, प्रतिसंलीनता और एकलविहार, पाँच हैं। समाधि प्रतिमा के श्रुत समाधि और चारित्र समाधि दो भेद हैं। श्रुत समाधि के ६६ भेद निर्दिष्ट हैं। आचाराङ्ग में वर्णित ४२, स्थानाङ्ग के १६, व्यवहारसूत्र में चार, मोक प्रतिमा दो तथा चन्द्रप्रतिमा दो (४२+१६+४+२+२) को मिलाकर ६६ प्रतिमायें होती हैं। सामायिक आदि (सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात) पाँच चारित्र सम्बन्धी प्रतिमायें हैं।
उपधान प्रतिमा श्रमणों की बारह और श्रावकों की ग्यारह होती हैं। विवेक प्रतिमा अभ्यन्तर और बाह्य दो प्रकार की है। अभ्यन्तर विवेक प्रतिमा कषायरूप है तथा बाह्य विवेक प्रतिमा गण (शरीर और भक्त-पान) है। प्रतिसंलीनता प्रतिमा इन्द्रिय और नोइन्द्रिय दो प्रकार की होती है। इन्द्रियप्रतिसंलीनता श्रोत्रेन्द्रिय आदि पाँच प्रकार की होती है। आचार सम्पदा आदि आठ गुणों से युक्त भिक्षु की एकलविहार प्रतिमा होती है। उक्त गुणों से युक्त भिक्षु सम्यक्त्व और चारित्र में दृढ़, बहुश्रुत, अचल, अरति, रति, भय और भैरव (अकस्मात् भय) को सहन करने वाले होते हैं।
__ आठवें अध्ययन 'पर्युषणाकल्प' के प्रारम्भ में पर्युषणा के आठ पर्यायवाची शब्द उल्लिखित हैं। पर्यायवाची स्थापना (ठवणा) के छ: द्वारों से निक्षेप के द्वारा अन्य सभी सात एकार्थक शब्दों का भी निक्षेप किया गया है। स्थापना का निक्षेप नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से किया गया है। कालस्थापना का प्ररूपण करते हुए कहा गया है कि ऋतुब (ग्रीष्म और शीतकाल के) क्षेत्र से वर्षाऋतु में निष्क्रमण और शरदकाल में प्रवेश का नियम है। ऋतुबद्धकाल में प्रतिमाधारी श्रमणों को एकदिन, यथालन्दियों को पाँच दिन, जिनकल्पी को एक मास, स्थविरकल्पी को