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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन
इसीप्रकार इष्ट और अनिष्ट मिथ्या प्रतिपत्ति आशातना का भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से निरूपण है। प्राप्त द्रव्य का परिमाण उचित होने पर इष्ट, कम या अधिक होने पर अनिष्ट द्रव्य मिथ्याप्रतिपत्ति आशातना होती है। सम्यक्रूप से दिया गया द्रव्य इष्ट और असम्यक् रूप से द्रव्य अनिष्ट। द्रव्य की प्राप्ति और प्रदान सुक्षेत्र में हो तो इष्ट और विक्षेत्र में हो तो अनिष्ट, मिथ्याप्रतिपत्ति आशातना है। औदयिक आदि छ: प्रकार के भावों के कारण भी मिथ्याप्रतिपत्ति आशातना छ: प्रकार की होती है। उपसर्गों से भी अकस्मात् आशातना होती है।
छेदसूत्र दशाश्रुतस्कन्ध में वर्णित गुरु सम्बन्धी आशातना के निमित्तों का यदि अकारण आचरण किया जाय तो उससे गम्भीर कर्मों का बन्ध होता है। कारण उपस्थित होने पर इन आशातनाओं का आचरण करने वाला गम्भीर कर्म का बन्ध नहीं करता है। श्रमण को गुरु की आशातना से बचना चाहिए। इस अध्ययन की विषय-वस्तु को सरलता से स्पष्ट करने के लिए सारिणी द्वारा प्रस्तुत किया गया है। (पृ०सं० ७१)
चतर्थ अध्ययन 'गणिसम्पदा' में गणि को द्रव्य और भाव रूप से दो प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। द्रव्यगणि अर्थात् गणि का संसारी शरीर और भावगणि से तात्पर्य गणि का आचारसम्पदा आदि गुणों से युक्त होना है। गणि का मुख्य गुण सङ्ग्रह और उपकार करना तथा धर्मज्ञ होना है। गणि द्वारा गण-सङ्ग्रह द्रव्य और भाव दो दृष्टियों से होता है। द्रव्य अपेक्षा से शिष्यों के लिए वस्त्रादि सङ्ग्रह और भाव अपेक्षा से शिष्यों के लिए ज्ञानादि का संग्रह। इसी प्रकार गणि गणोपकारक भी द्रव्य और भाव दोनों अपेक्षा से होता है। द्रव्योपग्रह से अभिप्राय आहारादि द्वारा कृपा और भावोपग्रह का अर्थ रुग्ण, वृद्धादि का संरक्षण रूप है। गणिधर्म अर्थात् गणिस्वभाव को जानने वाला गणि कहा जाता है। द्रव्यगण अर्थात् गच्छ और भावगण अर्थात् ज्ञानादि को धारण करने में समर्थ को गणि कहा जाता है। सम्पदा नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव निक्षेप से छ: प्रकार की होती है। द्रव्य दृष्टि से गणि की सम्पदा शरीर है। औदयिकादि छ: प्रकार के भाव भाव-सम्पदा हैं। आठवीं गणि सम्पदा सङ्ग्रहपरिज्ञा भी नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप से छः प्रकार की होती है।
पर्वत, कन्दरा, शिलाखण्डों आदि विषम स्थानों पर अपने शरीर पर उगे हुए दाँतों को बिना खिन्न हुए वहन करने वाले गज की भाँति गणि भी जिनभक्त, साधर्मिक तथा असमर्थों को विषम क्षेत्र और दुष्काल में सरलतापूर्वक वहन करता है।
पञ्चम अध्ययन 'मन:समाधि' की नियुक्ति मात्र एक गाथा में है। इस अध्ययन को श्रेणि-अध्ययन भी कहा जाता है। इसमें उपासक के चार भेद-द्रव्य, तदर्थ, मोह और भाव निर्दिष्ट हैं।