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नियुक्ति-संरचना और दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति
वर्ष), प्रज्ञा (४१-५० वर्ष), हायनी (५१-६० वर्ष), प्रपञ्चा (६१-७० वर्ष), प्राग्भारा (७१-८० वर्ष), मन्मुखी (८१-९०. वर्ष) और शायनी (९१-१०० वर्ष)। अध्ययन से तात्पर्य शास्त्र-विभाग से है और प्रस्तुत ग्रन्थ में दशाश्रुतस्कन्ध के दस अध्ययनोंअसमाधि, शबल, आशातना, गणिगुण, मन:समाधि, श्रावकप्रतिमा, भिक्षुप्रतिमा, पर्युषणाकल्प, मोह और निदान की क्रमश: नियुक्ति की गई है। इसके उक्त अध्ययन दृष्टिवाद आदि पूर्वो से उद्धृत हैं। आचार का ज्ञाताधर्म आदि छ: अङ्गों में विस्तृत तथा दशाश्रुतस्कन्ध के इन अध्ययनों में संक्षिप्त निरूपण उपलब्ध होता है।
नियुक्ति की प्रस्तावना रूप आठ गाथाओं के पश्चात् असमाधि (गाथा ९-११), शबल (१२-१४), आशातना (१५-२४), गणिगुण या गणिसम्पदा (२५-३१), मन: समाधि (३२), श्रावकप्रतिमा (३३-४३), भिक्षपुतिमा (४४-५१), पर्युषणाकल्प(५२११८), मोह (११९-१२६) और निदान अध्ययन (१२७-१४१) की नियुक्ति है।
प्रथम 'असमाधि' अध्ययन में समाधि का द्रव्य और भाव की दृष्टि से तथा इसके २० अतिशयों या स्थानों का निर्देश है। समाधि-प्राप्ति में सहायक द्रव्य या वस्तु-विशेष द्रव्यसमाधि ओर प्रशस्त योग द्वारा प्राप्त होने वाली जीव की सुसमाहित अवस्था भाव समाधि है। समाधि की विपरीत अवस्था असमाधि है।
द्वितीय 'शबल अध्ययन' में शबल और शबलता अर्थात् चारित्र को दूषित करने वाले शिथिलाचारों का निर्देश है। चारित्र का दूषित होना या चारित्र पर दाग, धब्बा या कलङ्क लग जाना जैसे कि चितकबरा बैल आदि यह द्रव्य शबल है। शबलत्व में चारित्र सर्वथा दृर्षित नहीं होता बल्कि अंश रूप में भ्रष्ट होता है। जिस प्रकार कम या अधिक खण्डित घड़ा, खण्डित ही कहा जायगा उसीप्रकार चारित्र की अंशत: विराधना, चाहे जिस भी मात्रा में हो, वह शबल विराधना कही जाती है।
तृतीय अध्ययन 'आशातना' में इसके मिथ्याप्रतिपादन और मिथ्याप्रतिपत्तिलाभ दो भेद बताये गये हैं। पुनः इन दोनों का छ: निक्षेपों- नाम, स्थापना, द्रव्य, काल, क्षेत्र और भाव से प्रतिपादन है। मिथ्याप्रतिपादन और मिथ्याप्रतिपत्तिलाभ आशातनाओं का द्रव्य,क्षेत्र, काल और भाव निक्षेप की दृष्टि से इष्ट और अनिष्ट रूप में निरूपण है। उदाहरणस्वरूप चोरों द्वारा हृत उपधि की साधु द्वारा पुनर्ग्रहण अनिष्ट द्रव्याशातना तथा उद्गम, उत्पादन आदि दोष से युक्त उपधि का साधु को प्राप्ति इष्ट द्रव्याशातना है। सचित्त आदि द्रव्यों का अरण्य आदि में प्राप्त होना अनिष्ट क्षेत्र और प्रामादि में प्राप्त होना इष्ट क्षेत्र मिथ्याप्रतिपादन आशातना है। द्रव्यादि की दुर्भिक्ष में प्राप्ति अनिष्ट काल और सुभिक्ष में प्राप्ति इष्ट काल मिथ्याप्रतिपादन आशातना है। जो संयम और तप में तत्पर हों उनके विषय में वह नहीं करता है, अशक्य है या कम करता है, इसप्रकार अपनी उत्कृष्टता का कथन भावदृष्टि से मिथ्याप्रतिपादन आशातना है।