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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन ४. वचनसम्पदा- आदेय, मधुर और राग-द्वेष रहित एवं भाषा सम्बन्धी दोषों से रहित वचन बोलने वाला।
. । ५. वाचनासम्पदा- सूत्रों के पाठों का उच्चारण करने-कराने, अर्थ-परमार्थ को समझाने तथा शिष्य की क्षमता-योग्यता का निर्णय करके शास्त्र ज्ञान देने में निपुण। योग्य शिष्यों को राग-द्वेष या कषाय रहित होकर अध्ययन कराने वाला।
६. मतिसम्पदा- स्मरणशक्ति एवं चारों प्रकार की बुद्धि से युक्त-बुद्धिमान। .
७..प्रयोगमतिसम्पदा- वाद-विवाद (शास्त्रार्थ), प्रश्नों (जिज्ञासाओं) के समाधान करने में परिषद् का विचार कर योग्य विषय का विश्लेषण करने एवं सेवा-व्यवस्था में समय पर उचित बुद्धि की स्फुरणा, समय पर सही (लाभदायक) निर्णय एवं प्रवर्तन का क्षमता। ............ . . . . . .
. ८. सङ्ग्रहपरिज्ञासम्पदा- साधु-साध्वियों की व्यवस्था एवं सेवा के द्वारा तथा श्रावक-श्राविकाओं की विचरण तथा धर्म प्रभावना के द्वारा भक्ति, निष्ठा, ज्ञान और विवेक की वृद्धि करने वाला जिससे कि संयम के अनुकूल विचरण क्षेत्र, आवश्यक उपधि, आहार की प्रचुर उपलब्धि होती रहे एवं सभी निराबाध संयम-आराधना करते रहें। शिष्यों के प्रति आचार्य के कर्तव्य
.५ १. संयम सम्बन्धी और त्याग-तप सम्बन्धी समाचारी का ज्ञान कराना एवं उसके पालन में अभ्यस्त करना। समूह में या अकेले रहने एवं आत्म-समाधि की विधियों का ज्ञान एवं अभ्यास कराना।
२. आममों का क्रम से अध्ययन करवाना, अर्थज्ञान करवाकर उससे किस तरह हिताहित होता है, यह समझाना एवं उससे पूर्ण आत्म-कल्याण साधने का बोध देते हुए परिपूर्ण वाचना देना।
३. शिष्यों की श्रद्धा को पूर्ण रूप में दृढ़ बनाना और ज्ञान एवं अन्य गुणों में अपने समान बनाने का प्रयत्न करना।
४. शिष्यों में उत्पन्न दोष, कषाय, कलह, आकांक्षाओं का उचित उपायों द्वारा शमन करना। ऐसा करते हुए भी अपने संयम गुणों एवं आत्मसमाधि की पूर्णरूपेण सुरक्षा एवं वृद्धि करना। गण एवं आचार्य के प्रति शिष्यों का कर्तव्य १... आवश्यक उपकरणों की प्राप्ति, सुरक्षा एवं विभाजन में कुशल होना। २. आचार्य व गुरुजनों के अनुकूल सदा प्रवर्तन करना।