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३.
४.
छेदसूत्रागम और दशाश्रुतस्कन्ध
गण के यश की वृद्धि, अपयश का निवारण एवं रत्नाधिक को यथोचित आदरभाव देना और सेवा करने में सिद्धहस्त होना ।
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शिष्य- वृद्धि, उनके संरक्षण, शिक्षण में सहयोगी होना । रोगी साधुओं की यथोचित सेवा-सुश्रूषा करना एवं मध्यस्थ भाव से साधुओं में सौमनस्य बनाए रखने में निपुण होना ।
पञ्चमदशा
सांसारिक आत्मा को धन-वैभव आदि भौतिक सामग्री प्राप्त होने पर जिस प्रकार आनन्द का अनुभव होता है, उसी प्रकार आत्मगुणों की निम्नलिखित अनुपम उपलब्धियों से आत्मार्थी मुमुक्षुओं को अनुपम आनन्दरूप चित्तसमाधि की प्राप्ति होती है
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३.
१. अनुपम धर्मभावों की प्राप्ति या वृद्धि, २. जातिस्मरणज्ञान, ३. अत्यन्त शुभ स्वप्न-दर्शन, ४. देव-दर्शन, ५. अवधिज्ञान, ६. अवधिदर्शन, ७. मनः पर्यवज्ञान, ८. केवलदर्शन, ९. केवलज्ञान उत्पत्ति, १०. और कर्मों से मुक्ति ।
षष्ठदशा
श्रावक का प्रथम मनोरथ आरम्भ - परिग्रह की निवृत्तिमय साधना है । निवृत्ति साधना के समय वह विशिष्ट साधना के लिए श्रावक प्रतिमाओं अर्थात् विशिष्ट प्रतिज्ञाओं को धारण करता है। अनिवृत्ति साधना के समय भी श्रावक समकित की प्रतिज्ञा सहित सामायिक, पौषध आदि बारह व्रतों का आराधन करता है किन्तु उस समय वह अनेक परिस्थितियों एवं जिम्मेदारियों के कारण अनेक श्रावकों के साथ उन व्रतों को धारण करता है । निवृत्ति की अवस्था में आगारों से रहित उपासक प्रतिमाओं का पालन दृढ़ता के साथ कर सकता है।
प्रतिमाएँ
१.
• आगाररहित निरतिचार सम्यक्त्व की प्रतिमा का पालन। इसमें पूर्व में धारण किए अनेक नियम एवं बारह व्रतों का पालन किया जाता है, उन नियमों का त्याग नहीं किया जाता।
अनेक छोटे-बड़े नियम- प्रत्याख्यान अतिचाररहित पालन करने की प्रतिज्ञा करना और यथावत पालन करना ।
प्रातः, मध्याह्न, सायं नियत समय पर ही निरतिचार शुद्ध सामायिक करना एवं १४ नियम भी नियमित पूर्ण शुद्ध रूप से आगाररहित धारण करके यथावत पालन करना ।