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छेदसूत्रागम और दशाश्रुतस्कन्ध
९., १९. घुटने (जानु) पर्यन्त जल में एक मास में तीन बार या वर्ष में १० बार चलना अर्थात् आठ महीने के आठ और एक अधिक कुल ९ बार उतरने पर शबल दोष नहीं है। १०., २०. एक मास में तीन बार और वर्ष में १० बार ( उपाश्रय के लिए) माया कपट करना । ११. शय्यातर पिण्ड ग्रहण करना, १२-१४. जानकर सङ्कल्पपूर्वक हिंसा करना, झूठ बोलना, अदत्तग्रहण करना । १५ - १७. त्रस स्थावर जीव युक्त अथवा सचित्त स्थान पर या उसके अत्यधिक निकट बैठना, सोना, खड़े रहना । १८. जानकर सचित्त हरी वनस्पति (१. मूल, २. कन्द, ३. स्कन्ध, ४. छाल, ५. कोंपल, ६. पत्र, ७. पुष्प, ८. फल, ९. बीज और १०. हरी वनस्पति खाना, २१. जानकर सचित्त जल के लेप युक्त हाथ या बर्तन से गोचरी लेना ।
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यद्यपि अतिचार - अनाचार अन्य अनेक हो सकते हैं, फिर भी यहाँ अपेक्षा से २० असमाधिस्थान और २१ शबल दोष कहे गए हैं। अन्य दोषों को यथायोग्य विवेक से इन्हीं में अन्तर्भावित कर लेना चाहिए।
तृतीयदशा
आशातना की परिभाषा इसप्रकार है- देव गुरु की विनय-भक्ति न करना, अविनय- अभक्ति करना, उनकी आज्ञा भङ्ग करना या निन्दा करना, धर्म सिद्धान्तों की अवहेलना करना या विपरीत प्ररूपणा करना और किसी भी प्राणी के प्रति अप्रिय व्यवहार करना, उसकी निन्दा, तिरस्कार करना 'आशातना' है। इन सभी अपेक्षाओं से आवश्यकसूत्र में ३३ आशातनाएँ कही गयी हैं। प्रस्तुत दशा में केवल गुरु- रत्नाधिक (श्रेष्ठ) की आशातना के विषयों का ही कथन किया गया है।
श्रेष्ठ जनों के साथ चलने, बैठने, खड़े रहने, आहार, विहार, निहार सम्बन्धी समाचारी के कर्त्तव्यों में, बोलने, शिष्टाचार, भाव और आज्ञापालन में अविवेक-अभक्ति से प्रवर्तन करना 'आशातना' है।
चतुर्थदशा
साधु-साध्वियों के समुदाय की समुचित व्यवस्था के लिए आचार्य का होना नितान्त आवश्यक है। प्रस्तुत दशा में आचार्य के आठ मुख्य गुण वर्णित हैं, जैसे
१. आचारसम्पन्न - सम्पूर्ण संयम सम्बन्धी जिनाज्ञा का पालन करने वाला, क्रोध, मानादि कषायों से रहित, शान्त स्वभाव वाला ।
२. श्रुतसम्पदा - आगमोक्त क्रम से शास्त्रों को कण्ठस्थ करने वाला एवं उनके अर्थ- परमार्थ को धारण करने वाला ।
३. शरीरसम्पदा - समुचित संहनन संस्थान वाला एवं सशक्त और स्वस्थ शरीर
वाला ।