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दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति : एक अध्ययन
तीस महामोह के स्थान
१-३. त्रस जीवों को जल में डुबाकर, श्वास संधकर, धुआँ कर, मारना,
४-५. शस्त्र प्रहार से सिर फोड़कर, सिर पर गीला कपड़ा बाँधकर मारना,
६.
धोखा देकर भाला आदि मारकर हँसना,
७.
मायाचार कर उसे छिपाना, शास्त्रार्थ छिपाना,
८.
मिथ्या आक्षेप लगाना,
९.
भरी सभा में मिश्र भाषा का प्रयोग कर कलह करना,
१०-१२. ब्रह्मचारी या बालब्रह्मचारी न होते हुए भी स्वयं को वैसा प्रसिद्ध करना,
१३-१४. उपकारी पर अपकार करना,
१५. रक्षक होकर भक्षक का कार्य करना,
१६-१७. अनेक के रक्षक, नेता या स्वामी आदि को मारना,
१८. दीक्षार्थी या दीक्षित को संयम से च्युत करना,
१९. तीर्थङ्करों की निन्दा करना,
२०. मोक्षमार्ग की द्वेषपूर्वक निन्दा कर भव्य जीवों का मार्ग भ्रष्ट करना, २१-२२. उपकारी आचार्य, उपाध्याय की अवहेलना करना, उनका आदर, सेवा एवं भक्ति न करना ।
२३-२४. बहुश्रुत या तपस्वी न होते हुए भी स्वयं को बहुश्रुत या तपस्वी कहना, २५. कलुषित भावों के कारण समर्थ होते हुए भी सेवा नहीं करना,
२६. सङ्घ में भेद उत्पन्न करना,
२७. जादू-टोना आदि करना,
२८. कामभोगों में अत्यधिक आसक्ति एवं अभिलाषा रखना,
२९. देवों की शक्ति का अपलाप करना, उनकी निन्दा करना,
३०. देवी-देवता के नाम से झूठा ढोंग करना ।
अध्यवसायों की तीव्रता या क्रूरता के होने से इन प्रवृत्तियों द्वारा महामोहनीय कर्म का बन्ध होता है।
दशमदशा
संयम-तप की साधना रूप सम्पत्ति को भौतिक लालसाओं की उत्कटता के कारण