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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन
में आर्य वृद्ध का उल्लेख है। यदि आर्यवृद्ध को वृद्धवादी से समीकृत करें तो आर्यभद्र सिद्धसेन के दादा गुरु सिद्ध होते हैं। विचारणीय है क्या आर्यभद्र भी स्पष्ट सङ्घ-भेद अर्थात् श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर सम्प्रदायों के नामकरण के पूर्व हुए हैं। नियुक्तियाँ यापनीय और श्वेताम्बर दोनों में मान्य होने से यह सुनिश्चित है कि सम्प्रदाय-भेद के पश्चात् का कोई भी आचार्य नियुक्तियों का कर्ता नहीं हो सकता। यदि वे किसी सम्प्रदाय विशेष की कृति होती तो अन्य सम्प्रदाय उसे मान्य नहीं करता। यदि आर्य विष्णु को दिगम्बर पट्टावली में उल्लिखित आर्य विष्णु से समीकृत करें तो इनकी निकटता अचेल परम्परा से स्थापित की जा सकती है। दूसरे, विदिशा के अभिलेख में उल्लेखित भद्रान्वय एवं आर्यकुल का सम्बन्ध इन गौतमगोत्रीय आर्यभद्र से भी माना जा सकता है क्योंकि इसका काल भी स्पष्ट सम्प्रदाय-भेद एवं उस अभिलेख के पूर्व है। दुर्भाग्य से इनके सन्दर्भ में आगमिक व्याख्या साहित्य में कहीं कोई विवरण नहीं मिलता, केवल नाम-साम्य के आधार पर इनके नियुक्तिकार होने की सम्भावना व्यक्त कर सकते हैं।
इनकी विद्वत्ता एवं योग्यता के सम्बन्ध में भी आगमिक उल्लेखों का अभाव है, किन्तु वृद्धवादी जैसे शिष्य और सिद्धसेन जैसे प्रशिष्य के गुरु विद्वान् अवश्य रहे होंगे, इसमें शङ्का नहीं की जा सकती। इनके प्रशिष्य सिद्धसेन का आदरपूर्वक उल्लेख दिगम्बर और यापनीय आचार्य भी करते हैं, अत: इनकी कृतियों को उत्तर भारत की अचेल परम्परा में मान्यता मिली हो ऐसा माना जा सकता है। ये आर्यरक्षित से पाँचवीं पीढ़ी में माने गये हैं। अत: इनका काल इनके सौ-डेढ़ सौ वर्ष पश्चात् ही होगा अर्थात् ये भी विक्रम की तीसरी सदी के उत्तरार्द्ध या चौथी के पूर्वार्द्ध में कभी हुए होंगे। लगभग यही काल माथुरीवाचना का भी है। चूंकि माथुरीवाचना यापनीयों को भी स्वीकृत रही है, इसलिए इन कालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र को नियुक्तियों का कर्ता मानने में काल एवं परम्परा की दृष्टि से कठिनाई नहीं है।
यापनीय और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में नियुक्तियों की मान्यता पर भी इससे कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि ये आर्यभद्र, आर्य नक्षत्र एवं आर्य विष्णु के ही परम्परा शिष्य हैं। सम्भव है कि दिगम्बर परम्परा के आर्यनक्षत्र और आर्यविष्णु की परम्परा में उद्भूत जिस भद्रबाहु के दक्षिण में जाने का उल्लेख मिलता है और जिनसे अचेल धारा में भद्रान्वय और आर्यकुल का आविर्भाव हुआ हो वे यही आर्यभद्र हों। इन्हें नियुक्तियों का कर्ता मानने पर नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में नियुक्तियों का उल्लेख होना भी युक्तिसङ्गत सिद्ध हो जाता है।