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छेदसूत्रागम और दशाश्रुतस्कन्ध
होने से और आगमार्थ की ही पुष्टि करने वाले होने से आगमों में कर लिया गया। अन्त में सम्पूर्ण दशपूर्व के ज्ञाता द्वारा ग्रथित ग्रन्थ भी आगम में समाविष्ट इसलिए किये गये कि वे भी आगम को पुष्ट करने वाले थे और उनका आगम से विरोध इसलिए भी नहीं हो सकता था कि वे निश्चित रूप से सम्यग्दृष्टि होते थे।" मूलाचार की निम्न गाथा से इसी बात की सूचना मिलती है
सतं गणहरकथिदं तहेव पत्तेयबुद्ध कथिदं च ।
सुदकेवलिणा कथिदं अभिण्णदसपुवकथिदं च ।।५,८०।। दशपूर्वधरों के अभाव के पश्चात् भी आगमों की संख्या में वृद्धि रुकी नहीं अपितु आगम रूप से मान्य कुछ प्रकीर्णक अपनी निर्दोषता और वैराग्य भाव की वृद्धि में अपने विशेष उपयोग अथवा कर्ता आचार्य की विशेष प्रतिष्ठा के कारण आगम में सम्मिलित कर लिये गये।
जैनागमों की संख्या बढ़ने की परिणति इन आगम ग्रन्थों के अङ्ग, उपाङ्ग, छेद आदि रूप में वर्गीकरण में हुई। जैन साहित्यिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि आगमों का वर्तमान वर्गीकरण बहुत प्राचीन नहीं है। यहाँ पर आगमों के सभी वर्गीकरणों की पृष्ठभूमि पर विचार न कर छेदसूत्र के रूप में आगम के वर्गीकरण सम्बन्धी साहित्यिक साक्ष्यों का विवेचन प्रस्तुत है।
जैन परम्परा (श्वेताम्बर जैनों के विभिन्न सम्प्रदाय) में छेदसूत्रों की संख्या के विषय में मतभेद है। छ: छेदसूत्र ग्रन्थों में से महानिशीथ और जीतकल्प इन दोनों को स्थानकवासी और तेरापन्थी नहीं मानते, वे केवल चार को स्वीकार करते हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय छः छेदसूत्रों को मानता है।
छेद संज्ञा कब से प्रचलित हुई.और छेद में प्रारम्भ में कौन-कौन से आगम ग्रन्थ सम्मिलित थे, यह भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। परन्तु अभी तक जो साहित्यिक साक्ष्य उपलब्ध हुए हैं उनके अनुसार आ.नि. ४ में सर्वप्रथम छेदसूत्र का उल्लेख मिला है। इससे प्राचीन उल्लेख अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। अत: इतना तो कहा ही जा सकता है कि प्रा.नि. के समय तक छेदसूत्र का वर्ग पृथक् हो गया था। आचार्य देवेन्द्रमुनि के वक्तव्य से भी उक्त मत की पुष्टि होती है, "छेदसूत्र का सबसे प्रथम प्रयोग आवश्यकनियुक्ति में हुआ है। उसके पश्चात् विशेषावश्यकभाष्य, निशीथभाष्य आदि में भी यह शब्द व्यवहृत हुआ है। तात्पर्य यह है कि हम
आवश्यकनियुक्ति को यदि ज्योतिर्विद् वराहमिहिर के भ्राता द्वितीय भद्रबाहु की भी कृति मानते हैं तो विक्रम की छठी शताब्दी में उन्होंने इसका प्रयोग किया है ऐसा कहा जा सकता है। यद्यपि नियुक्ति साहित्य को द्वितीय भद्रबाहु की रचना स्वीकार करने के विषय में मतैक्य नहीं है तथापि इससे छेदसूत्रों के प्रथम उल्लेख की ऊपरी समय सीमा निर्धारित की जा सकती है।"