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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन आर्य ज्येष्ठिल, आर्यविष्णु, आर्यकालक, आर्यसम्पालित, आर्यभद्र (गौतमगोत्रीय), आर्यवृद्ध, आर्य सङ्घपालित, आर्यहस्ती, आर्यधर्म, आर्यसिंह, आर्यधर्म, पाण्डिल्य (सम्भवतः स्कन्दिल, जो माथुरी वाचना के वाचना प्रमुख थे) आदि। गाथाबद्ध स्थविरावली में इसके बाद जम्बू, नन्दिल, दुष्यगणि, स्थिरगुप्त, कुमारधर्म एवं देवर्द्धिक्षपकश्रमण के पाँच नाम और हैं।७३
ज्ञातव्य है कि नैमित्तिक भद्रबाहु (विक्रम की छठी शती के उत्तरार्द्ध में उत्पन्न) का नाम इस सूची में सम्मिलित नहीं हो सकता है क्योंकि यह सूची वीर निर्वाण सं. ९८० अर्थात् सं. ५१० में अपना अन्तिम रूप ले चुकी थी। ___ इस स्थविरावली से जैन परम्परा में विक्रम की छठी शती के पूर्वार्ध तक होने वाले भद्र नामक तीन आचार्यों के नाम मिलते हैं- प्रथम, प्राचीनगोत्रीय आर्य भद्रबाहु, दूसरे आर्य शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्य भद्रगुप्त, तीसरे आर्य विष्णु के प्रशिष्य और आर्यकालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र। वराहमिहिर के भ्राता नैमित्तिक भद्रबाहु को लेकर यह संख्या चार हो जाती है। इस निष्कर्ष पर हम पहुँच चुके हैं कि इनमें से प्रथम एवं अन्तिम को तो नियुक्तिकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। अब शिवभूति के शिष्य आर्य भद्रगुप्त और आर्यकालक के शिष्य आर्यभद्र शेष बचते हैं। इनमें पहले हम आर्य धनगिरि के प्रशिष्य एवं आर्यशिवभूति के शिष्य आर्यभद्रगुप्त के नियुक्तिकार होने की सम्भावना पर विचार करते हैंक्या आर्यभद्रगुप्त नियुक्तियों के कर्ता है?
नियुक्तियों को शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त की रचना मानने के पक्ष में निम्न तर्क दिये जा सकते हैं
१. नियुक्तियाँ उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ सङ्घ से विकसित श्वेताम्बर एवं यापनीय दोनों सम्प्रदायों में मान्य रही हैं। यापनीय ग्रन्थ मूलाचार में शताधिक नियुक्ति गाथाएँ उद्धृत होने और उसमें अस्वाध्याय काल में नियुक्तियों के अध्ययन करने का निर्देश होने से फलित होता है कि नियुक्तियों की रचना मूलाचार से पूर्व हो चुकी थी। मूलाचार को छठीं सदी की रचना भी मानें तो उसके पूर्व नियुक्तियाँ मूलरूप से अविभक्त धारा में निर्मित हुई थीं। चूँकि यापनीय सम्प्रदाय के रूप में परम्परा भेद तो शिवभूति के पश्चात् उनके शिष्यों कौडिन्य और कोट्टवीर से हुआ है अत: नियुक्तियाँ शिवभूति के शिष्य भद्रगुप्त की रचना मानी जा सकती हैं, क्योंकि वे न केवल अविभक्त धारा में हुए, अपितु लगभग उसी काल में अर्थात् विक्रम की तीसरी शती में हुए हैं, जो कि नियुक्ति का रचनाकाल है।