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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन
आदि ने विभिन्न वाचनाओं में 'आगमों' को ही व्यवस्थित किया, नियुक्तियों को नहीं।५० __दूसरे, उपलब्ध नियुक्तियाँ भद्रबाहु प्रथम के युग में विद्यमान विशाल अङ्ग-आगमों पर नहीं हैं। परम्परागत मान्यता है कि आर्यरक्षित के युग में भी आचाराङ्ग एवं सूत्रकृताङ्ग आकार में उतने ही विशाल थे, जितने भद्रबाहु के काल में। ऐसी स्थिति में चाहे एक ही अनुयोग का अनुसरण करके नियुक्तियाँ लिखी गयी हों, उनकी विषय-वस्तु तो विशाल होनी चाहिए थी। जबकि आज उपलब्ध नियुक्तियाँ माथुरीवाचना द्वारा या वलभी वाचना द्वारा निर्धारित पाठ वाले आगमों का ही अनुसारण कर रही हैं। यदि यह कहा जाय कि अनुयोगों का पृथक्करण करते समय आर्यरक्षित ने नियुक्तियों को भी पुन: व्यवस्थित किया और उनमें अनेक गाथायें प्रक्षिप्त भी की तो प्रश्न उठता है कि उनमें गोष्ठामाहिल और बोटिक मत की उत्पत्ति सम्बन्धी विवरण कैसे आये, क्योंकि इन दोनों की उत्पत्ति आर्यरक्षित के स्वर्गवास के पश्चात् हुई है।
मेरी दृष्टि में सप्त निह्नवों का उल्लेख करने वाली गाथाएँ तो मूल गाथाएँ हैं, किन्तु बोटिक मत के उत्पत्ति स्थल (रथवीरपुर) एवं उत्पत्तिकाल (वीर नि०सं०६०९) का उल्लेख करने वाली गाथायें प्रक्षिप्त गाथायें हैं। वे गाथाएँ नियुक्ति की न होकर भाष्य की हैं, क्योंकि निह्नवों एवं उनके मतों का जहाँ भी उल्लेख है वहाँ सात का ही नाम आया है। उनके उत्पत्तिस्थल एवं काल को सूचित करने वाली इन दो गाथाओं में ये संख्या आठ हो गयी।५१ आश्चर्य यह है कि आवश्यकनियुक्ति में बोटिकों की उत्पत्ति की कोई चर्चा नहीं है और यदि बोटिकमत के प्रस्तोता एवं उनके मन्तव्य का उल्लेख मूल आवश्यकनियुक्ति में नहीं है, तो फिर उनके उत्पत्ति स्थल एवं उत्पत्तिकाल का उल्लेख नियुक्ति में कैसे हो सकता है? वस्तुत: भाष्य की अनेक गाथायें नियुक्तियों में मिल गई हैं। अत: ये नगर एवं काल सूचक गाथाएँ भाष्य की होनी चाहिये। उत्तराध्ययननियुक्ति (तृतीय अध्ययन) की नियुक्ति के अन्त में उक्त सप्त निह्नवों का उल्लेख होने के बाद एक गाथा में रथवीरपुर नगर के दीपक उद्यान में शिवभूति का आर्यकृष्ण से विवाद होने का उल्लेख हैं।५२ उल्लेखनीय है कि इसमें विवाद के स्वरूप और अन्य किसी बात की चर्चा नहीं है जबकि यहाँ प्रत्येक निह्नव के मन्तव्य का आवश्यकनियुक्ति की अपेक्षा विस्तृत विवरण दिया गया है। अत: मेरी दृष्टि में यह गाथा भी प्रक्षिप्त है। यह गाथा आवश्यक मूलभाष्य में प्राप्त गाथा की अनुकृति है। यह गाथा बहुत अधिक प्रासङ्गिक भी नहीं कही जा सकती। निश्चित रूप से उत्तराध्ययननियुक्ति में भी निह्नवों की चर्चा के बाद ही यह गाथा प्रक्षिप्त की गयी है।