________________ प्रतीक श्रमण भगवान महावीर प्रभृति तीर्थंकरों के जन्म, तपस्या, उपदेश और बिहारचर्या, शिष्यपरम्परायें, आर्य और अनार्य क्षेत्र की सीमाएँ, तात्कालिक राजा, राजकुमार और मत-मतान्तरों का विशेष निरूपण है / प्रागमसाहित्य ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अभिनव चेतना का संचार किया। जीवन का सजीव और यथार्थ दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कहा कि जीवन का लक्ष्य विषयवासना के दल-दल में फंसने का नहीं, अपितु त्याग, वैराग्य और संयम से जीवन को चमकाना है। यही कारण है जैन आगमसाहित्य में सर्वत्र साधक को संयम-साधना तप:पाराधना और मनोमन्थन की पावन प्रेरणा प्रदान की गई है। __ आचार्य देववाचक ने नन्दीसूत्र में आगमसाहित्य को दो भागों में विभक्त किया है। -अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य / छेदसूत्र अंगबाह्य आगम हैं। छेदसत्रों में जैन श्रमण और श्रमणियों के जीवन से सम्बन्धित आचार विषयक नियमोपनियम का विशद विश्लेषण है। यह विश्लेषण स्वयं भ. महावीर के द्वारा निरूपित है। जो बहुत ही अद्भुत और अनूठा है। उसके पश्चात् उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी उसको विकसित किया / छेदसूत्रों में नियम भंग हो जाने पर श्रमण-श्रमणियों द्वारा अनुसरणीय विविध प्रायश्चित्त विधियों का विश्लेषण हमा है। श्रमणजीवन की पवित्रतानिर्मलता बनाये रखने हेतु ही छेदसों का निर्माण हुआ। यही कारण है श्रमणजीवन के सम्यक संचालन के लिए छेदसूत्रों का अध्ययन आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य माना गया है / सर्वप्रथम छेदसत्र शब्द का प्रयोग हमें आवश्यक नियुक्ति में मिलता है। इसके पूर्व किसी भी प्राचीन साहित्य में 'छेदसत्र' यह नाम नहीं आया है। उसके पश्चात् आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में तथा संघदासमणि ने निशीथभाष्य में छेदसूत्र का उल्लेख किया है। छेदसत्रों का पृथक वर्गीकरण क्यों किया गया ? क्यों निशीथ आदि को छेदसूत्र के अन्तर्गत रखा गया? इसका स्पष्ट समाधान वहां पर नहीं किया गया है। यह स्पष्ट है कि हम जिन आगमों को छेदसूत्र की संज्ञा प्रदान करते हैं, वे आगम मूलतः प्रायश्चित्त सूत्र हैं / व्यवहार, आलोचना, शोधि और प्रायश्चित्त ये चार शब्द व्यवहारभाष्य' में पर्यायवाची माने गये हैं। प्रस्तुत आधार से छेदसूत्रों को व्यवहारसूत्र, आलोचनासूत्र, शोधिसूत्र और प्रायश्चित्तसूत्र कह सकते हैं / छेदसूत्रों के लिए 'पदविभाग', 'समाचारी' शब्द का प्रयोग प्राचार्य मलयगिरि ने आवश्यकनियुक्ति की वृत्ति में किया है। पदविभाग और छेद ये दोनों शब्द समान अर्थ को व्यक्त करते हैं / सम्भव है इस दृष्टि से छेदसूत्र यह नाम रखा गया हो / छेदसत्रों में एक सूत्र का दूसरे सूत्र से सम्बन्ध नहीं है। छेदसत्र के सभी सत्र स्वतन्त्र हैं। उन सूत्रों की व्याख्या भी छेददृष्टि से या विभागष्टि से की जाती है। —आवश्यकनियुक्ति 777 1. नन्दीसूत्र 72 जंच महाकप्प सूयं, जाणि असेसाणि छेअसूताणि / चरणकरणाणुओगो ति कालियत्थे उवगयाणि // जं च महा कप्प सुयं, जाणि असेसाणि छे असुत्ताणि / चरणकरणाणुओगो त्ति कालियत्थे उवगयाणि || छेदसुत्तणिसीहादी प्रत्थो य गतो य छेदसुत्तादी। मंतनिमित्तोसहिपाहुडे, य गाहेति अण्णत्थ // व्यवहारभाष्य 2 / 90 पदविभाग, समाचारी छेदसूत्राणि / -विशेषावश्यकभाष्य 2295 --निशीथभाष्य 5947 ---आवश्यक नियुक्ति 665 मलयगिरि वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org