Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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हैं और रहेंगे, तब तक कोई भी शक्ति उन्हें पराजित नहीं कर सकती । ३०
प्रधान अमात्य 'वस्सकार' ने आकर अजातशत्रु से कहा और कोई उपाय नहीं है, जब तक उनमें भेद नहीं पड़ता, तब तक उनको कोई भी शक्ति हानि नहीं पहुंचा सकती । वस्सकार के संकेत से अजातशत्रु ने राजसभा में 'वस्सकार' को इस आरोप से अमात्य पद से पृथक् कर दिया कि यह वज्जियों का पक्ष लेता है। वस्सकार को पृथक् करने की सूचना वज्जियों को प्राप्त हुई । कुछ अनुभवियों ने कहा उसे अपने यहां स्थान न दिया जाये। कुछ लोगों ने कहा - नहीं, वह मगधों का शत्रु है, इसलिये वह हमारे लिये बहुत ही उपयोगी है। उन्होंने 'वस्सकार' को अपने पास बुलाया और उसे 'अमात्य' पद दे दिया । वस्सकार ने अपने बुद्धि बल से वज्जियों पर अपना प्रभाव जमाया। जब वज्जी गण एकत्रित होते, तब किसी एक को वस्सकार अपने पास बुलाता और उसके कान में क्या तुम खेत जोतते हो ? वह उत्तर देता- हाँ, जोतता हूँ । महामात्य का दूसरा प्रश्न होता दो बैल से जोतते हो या एक बैल से ?
पूछता
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दूसरे लिच्छवी उस व्यक्ति से पूछते - बताओ, महामात्य ने तुम्हें एकान्त में ले जाकर क्या कहा ? वह सारी बात कह देता । पर वे कहते - तुम सत्य को छिपा रहे हो। वह कहत यदि तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है तो मैं क्या कहूं ? इस प्रकार एक-दूसरे में अविश्वास की भावना पैदा की गई और एक दिन उन सभी में इतना मनोमालिन्य हो गया कि एक लिच्छवी दूसरे लिच्छवी से बोलना भी पसंद नहीं करता। सन्निपात बजाई गई, किन्तु कोई भी नहीं आया । 'वस्सकार' ने अजातशत्रु को प्रच्छन्न रूप से सूचना भेज दी। उसने ससैन्य आक्रमण किया । भेरी बजाई गई। पर कोई भी तैयार नहीं हुआ। अजातशत्रु ने नगर में प्रवेश किया और वैशाली का सर्वनाश कर दिया । ३१
३०. दीघनिकाय, महापरिनिव्वाणसुत्त, २/३ (१६)
३१. दीघनिकाय अट्ठकथा, खण्ड १, पृष्ठ ५२३ ३२. हिन्दू सभ्यता, पृष्ठ १८९
जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं ने मगधविजय और वैशाली के नष्ट होने के विवरण प्रस्तुत किये हैं। जैन दृष्टि से चेटक अट्ठारह गणदेशों का नायक था। बौद्ध परम्परा उसे केवल प्रतिपक्षी ही मानती है। जैन दृष्टि से कूणिक के पास तेतीस करोड़ सेना थी। दोनों ही युद्धों में एक करोड़ अस्सी लाख मानवों का संहार हुआ । बौद्ध दृष्टि से युद्ध का निमित्त रत्नराशि है। जैन परम्परा ने जैसे चेटक का प्रहार अमोघ बताया है वैसे ही बौद्ध ग्रन्थों की दृष्टि से वज्जी लोगों के प्रहार अचूक थे। नगर की रक्षा का मूल आधार जैन दृष्टि से स्तूप को माना है तो बौद्ध दृष्टि से पारस्परिक एकता, गुरुजनों का सम्मान आदि बताया गया है। जितना व्यवस्थित वर्णन जैन परम्परा में है उतना बौद्ध परम्परा में नहीं हो पाया है। वैशाली की पराजय में दोनों ही परम्पराओं में छद्म भाव का उपयोग हुआ है । वैशाली का युद्ध कितने समय तक चला ? इस संबंध में जैन दृष्टि से एक पक्ष तक तो प्रत्यक्ष युद्ध हुआ और कुछ समय प्राकार-भंग में लगा। बौद्ध दृष्टि से 'वस्सकार' तीन वर्ष तक वैशाली में रहा और लिच्छिवियों में भेद उत्पन्न करता रहा । डा. राधाकुमुद मुखर्जी के अभिमतानुसार युद्ध की अवधि कम से कम सोलह वर्ष तक की है । ३२
- राधामुकुद मुखर्जी
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