Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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वर्ग ३ : तृतीय अध्ययन ]
[ ६१
अणिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालेणं तवोकम्मेणं उड्ढं वाहाओ पगिझिय पगिझिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स विहरित्तए, त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं (जाव) जलन्ते सुबहुं लोह० (जाव) दिसापोक्खियतावसत्ताए पव्वइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं जाव अभिगिण्हित्ता पढमं छट्ठक्खमणं उवसंपजित्ताणं विहरइ।
१६. इसके बाद पुनः उस सोमिल ब्राह्मण को किसी अन्य समय मध्य रात्रि में कौटुम्बिक स्थिति का विचार करते हुए इस प्रकार का यह आन्तरिक यावत् मनःसंकल्प उत्पन्न हुआ – वाराणसी नगरीवासी मैं सोमिल ब्राह्मण अत्यन्त शुद्ध – प्रसिद्ध ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ। मैनें व्रतों का पालन किया, वेदों का अध्ययन आदि किया यावत् यूप आदि स्थापित किये और इसके बाद वाराणसी नगरी के बाहर बहुत से आम के बगीचे यावत् फूलों के बगीचे लगवाए। लेकिन अब मुझे यह उचित है कि कल यावत् तेज सहित सूर्य के प्रकाशित होने पर बहुत से लोहे के कड़ाह, कुड़छी एवं तापसों के योग्य तांबे के पात्रों – बर्तनों को घड़वा कर तथा विपुल मात्रा में अशन-पान-खादिम-स्वादिम भोजन बनवा कर मित्रों, जातिबांधवों, स्वजनों, संबन्धियों और परिचित जनों को आमन्त्रित कर उन मित्रों, जातिबंधुओं, स्वजनों, संबन्धियों और परिचितों का विपुल अशन-पान-खादिम-स्वादिम, वस्त्र, गंध, माला एवं अलंकारों से सत्कार-सन्मान करके उन्हीं मित्रों, जातिबंधुओं, स्वजनों, संबन्धियों और परिचितों के सामने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपकर तथा मित्रों, जातिबंधुओं आदि परिचितों और ज्येष्ठ पुत्र से पूछ कर उन बहुत से लोहे के कड़ाहे, कुड़छी आदि तापसों के पात्र लेकर जो गंगा तट वासी वानप्रस्थ तापस हैं, जैसे कि -
__ होत्रिक (अग्निहोत्रि), पोत्रिक (वस्त्रधारी), कौत्रिक (भूमिशायी), याज्ञिक (यज्ञ करने वाले), श्राद्धकिन (श्राद्ध करने वाले), स्थालकिन (पात्र धारण करने वाले), हुम्बउट्ठ (वानप्रस्थ तापस विशेष), दन्तोदूखलिक (दांतों से धान्य को तुषहीन करके खाने वाले), उन्मजक (पानी में एक बार डुबकी लगाने वाले), संमजक (बार-बार हाथ पैर धोने वाले), निमज्जक (पानी में कुछ देर तक डूबे रहने वाले), संप्रक्षालक (मिट्टी आदि से शरीर को रगड़ कर स्नान करने वाले), दक्षिणकूल (तटवासी), उत्तरकूल वासी, शंखध्मा (शंख बजा कर भोजन करने वाले), कूलध्मा (तट पर खड़े हो कर आवाज लगाने के पश्चात् भोजन करने वाले), मृगलुब्धक (व्याधों की तरह हिरणों का मांस चखाने वाले), हस्तीतापस (हाथी को मारकर उसका मांस खा कर जीवन व्यतीत करने वाले), उद्दण्डक (डंडे को ऊंचा करके चलने वाले), दिशाप्रोक्षिक (जल सींच कर दिशाओं की पूजा करने वाले), वल्कवासी (वृक्ष की छाल पहनने वाले), बिलवासी (भूमि को खोद कर उसमें रहने वाले), जलवासी (जल में रहने वाले), वृक्षमूलिक (वृक्ष के मूल में – नीचे रहने वाले), जलभक्षी (जल मात्र का आहार करने वाले), वायुभक्षी (वायुमात्र से जीवित रहने वाले), शैवालभक्षी (काई को खाने वाले), मूलाहारी (वृक्ष की जड़ें खाने वाले), कंदाहारी, त्वचाहारी, पत्राहारी, पुष्पाहारी, बीजाहारी, विनष्ट (सड़े हुए) कन्द, मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प, फल को खाने वाले, जलाभिषेक से शरीर कठिन - कड़ा बनाने वाले हैं तथा आतापना और पंचाग्नि ताप से अपनी देह को अंगारपक्व और कन्दुपक्व जैसी १. अपने चारों ओर अग्नि जलाकर तथा पांचवें सूर्य की आतापना से अपनी देह को अंगारों में पकी हुई-सी। २. भाड़ में भुनी हुई-सी।