Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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वर्ग ३ : चतुर्थ अध्ययन ]
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गौतम ने पुनः पूछा - वह विशाल देवऋद्धि उसके शरीर में कैसे विलीन हो गई - समा गई ?
उत्तर में भगवान् ने बतलाया – गौतम! जिस प्रकार किसी उत्सव आदि के कारण फैला हुआ जनसमूह वर्षा आदि की आशंका के कारण कूटाकार शाला में समा जाता है, उसी प्रकार देव कुमार आदि देव-ऋद्धि बहुपुत्रिका देवी के शरीर में अन्तर्हित हो गई - समा गई।
___ गौतम स्वामी ने पुनः पूछा – भदन्त! उस बहुपुत्रिका देवी को वह देव-ऋद्धि आदि कैसे मिली, कैसे प्राप्त हुई, और कैसे उसके उपभोग में आयी ? ऐसा पूछने पर भगवान् ने कहा- गौतम! उस काल और उस समय वाराणसी नाम की नगरी थी। उस नगरी में आम्रशालवन नामक चैत्य था। उस वाराणसी नगरी में भद्र नामक सार्थवाह रहता था, जो धन-धन्यादि से समृद्ध यावत् दूसरों से अपरिभूत था (दूसरों के द्वारा जिसका पराभव या तिरस्कार किया जाना संभव नहीं था।) उस भद्र सार्थवाह की पत्नी का नाम सुभद्रा था। वह अतीव सुकुमाल अंगोपांग वाली थी, रूपवती थी। किन्तु वन्ध्या होने से उसने एक भी सन्तान को जन्म नहीं दिया। वह केवल जानु और कूपर की माता थी अर्थात् उसके स्तनों को केवल घुटने और कोहनियाँ ही स्पर्श करती थीं, संतान नहीं। सुभद्रा सार्थवाही की चिंता |
३१. तए णं तीसे सुभद्दाए सत्थवाहीए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकाले कुटुम्बजागरियं जागरमाणीए इमेयारूवे अज्झथिए पत्थिए चिन्तिए मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था - "एवं खलु अहं भद्देणं सत्थवाहेणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुञ्जमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयाया। तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, (जाव) सपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ, सुलद्धे णं तासिं अम्मयाणं मणुयजम्मजीवियफले, जासिं मन्ने नियकुच्छि संभूयगाई थणदुद्धलुद्धगाइं महु रसमुल्लावगाणि मम्मणप्पजम्पियाणि थणमूलकक्खदेसभागं अभिसरमाणगाणि पण्हयन्ति, पुणो य कोमलकमलोवमेहिं हत्थेहिं गिण्हिऊणं उच्छङ्गनिवेसियाणि देन्ति, समुल्लावए सुमहुरे पुणो पुणो मम्मणप्पणिए। अहं णं अधन्ना अपुण्णा एत्तो एगमवि न पत्ता' ओहय० जाव झियाइ।
___३१. तत्पश्चात् किसी एक समय रात्रि में पारिवारिक स्थिति का विचार करते हुए सुभद्रा को इस प्रकार का आन्तरिक चिन्तित, प्रार्थित और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ - 'मैं भद्र सार्थवाह के साथ विपुल मानवीय भोगों को भोगती हुई समय व्यतीत कर रही हूँ, किन्तु आज तक मैंने एक भी बालक या बालिका का प्रसव नहीं किया है। वे माताएँ धन्य हैं यावत् पुण्य-शालिनी हैं, उन्होंने पुण्य का उपार्जन किया है, उन माताओं ने अपने मनुष्य जन्म और जीवन का फल भलीभांति प्राप्त किया है, जो अपनी निज की कुक्षि से उत्पन्न, स्तन के दूध की लोभी, मन को लुभाने वाली वाणी का उच्चारण करने वाली, तोतली बोली बोलने वाली, स्तनमूल और कांख के अंतराल में अभिसरण करने वाली सन्तान को दूध पिलाती हैं। फिर कमल के सदृश कोमल हाथों से लेकर उसे गोद में बिठलाती हैं, कानों को प्रिय लगने वाले मधुर-मधुर संलापों से अपना मनोरंजन करती हैं। लेकिन मैं ऐसी भाग्यहीन,