Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 135
________________ ९२ ] [ पुष्पिका तब गौतम स्वामी ने भगवान् से उस देव की दिव्य देव-ऋद्धि आदि के अंतर्धान होने के विषय में पूछा। भगवान् ने कूटाकारशाला के दृष्टान्त द्वारा समाधान किया। तत्पश्चात् उसके पूर्वभव के विषय में गौतम द्वारा पूछने पर भगवान् ने बताया - गौतम! उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में धन वैभव इत्यादि से समृद्धसंपन्न मणिपदिका नाम की नगरी थी। उस नगरी के राजा का नाम चन्द्र था और ताराकीर्ण नाम का उद्यान था। उस मणिपदिका नगरी में पूर्णभद्र नाम का एक सद्गृहस्थ रहता था, जो धन-धान्य इत्यादि से संपन्न था। उस काल और उस समय जाति और कुल से संपन्न यावत् जीवन की आकांक्षा और मरण के भय से रहित, बहुश्रुत स्थविर भगवन्त बहुत बड़े अन्तेवासीपरिवार के साथ पूर्वानुपूर्वी से विचरण करते हुये समवसृत हुए - मणिपदिका नगरी में पधारे। जनसमूह उनकी धर्मदेशना श्रवण करने निकला। ५८. तए णं से पुण्णभद्दे गाहावई इमीसे कहाए लद्धढे हट्ट० (जाव) जहा पण्णत्तीए गङ्गदत्ते, तहेव निग्गच्छइ, (जाव) निक्खन्तो (जाव) गुत्तबम्भयारी। तए णं से पुण्णभद्दे अणगारे भगवन्ताणं अन्तिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अङ्गाई अहिज्जइ, अहिजित्ता बहूहिं चउत्थछट्ठम (जाव) भावित्ता बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सढि भत्ताई अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे पुण्णभद्दे विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जसि (जाव) भासामणपजत्तीए। एवं खलु, गोयमा! पुण्णभद्देणं देवेणं सा दिव्वा देविड्ढी (जाव) अभिसमन्नागया। 'पुण्णभहस्स णं भन्ते! देवस्स केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?' 'गोयमा, दो सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता।' 'पुण्णभद्दे णं भन्ते! देवे ताओ देवलोगाओ (जाव) कहिं गच्छिहिइ, कहिं उववजिहिइ?' 'गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ (जाव) अन्तं काहिइ।' ५८. पूर्णभद्र गाथापति उन स्थविरों के आगमन का वृत्तान्त जानकर हृष्ट-तुष्ट हुआ इत्यादि यावत् भगवती-सूत्रोक्त गंगदत्त' के समान दर्शन के लिये गया यावत् उनके पास प्रव्रजित हुआ यावत् ईर्यासमिति आदि से युक्त गुप्तब्रह्मचारी अनगार हो गया। तत्पश्चात् पूर्णभद्र अनगार ने उन स्थविर भगवन्तों से सामायिक से प्रारम्भ कर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और बहुत से चतुर्थ, षष्ठ, अष्टमभक्त आदि तपःकर्म से आत्मा को परिशोधित करके १. गंगदत्त के वर्णन के लिये देखिए भगवतीसूत्र शतक १६ उद्देशक - ५

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