Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 145
________________ १०२ ] [ पुष्पचूलिका जहा सुभद्दा, जाव पाडिएक्कं उवस्सयं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ । तए णं सा भूया अज्जा अणोहट्टिया अणिवारिया सच्छन्दमई अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवइ जाव चेएइ । ८. कुछ काल के पश्चात् वह भूता आर्यिका शरीरबकुशिका हो गई । वह बारबार हाथ धोती, पैर धोती, शिर धोती, मुख धोती, स्तनान्तर धोती, कांख धोती, गुह्यान्तर धोती और जहां कहीं भी खड़ी होती, सोती, बैठती अथवा स्वाध्याय करती उस-उस स्थान पर पहले पानी छिड़कती और उसके बाद खड़ी होती, सोती, बैठती या स्वाध्याय करती । तब पुष्पचूलिका आर्या ने भूता आर्या को इस प्रकार समझाया देवानुप्रिये ! हम ईर्यासमिति से समित यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी निर्ग्रन्थ श्रमणी हैं। इसलिये हमें शरीरबकुशिका होना नहीं कल्पता है, किन्तु देवानुप्रिये ! तुम शरीरबकुशिका होकर हाथ धोती हो यावत् पानी छिड़ककर बैठती यावत् स्वाध्याय करती हो । देवानुप्रिये ! तुम इस स्थान - कार्यप्रवृत्ति की आलोचना करो। इत्यादि शेष वर्णन सुभद्रा के समान जानना चाहिये । यावत् (आर्या पुष्पचूलिका के समझाने पर भी वह नहीं समझी) और एक दिन उपाश्रय से निकलकर वह बिल्कुल अकेले उपाश्रय में जाकर निवास करने लगी । - तत्पश्चात् वह भूता आर्या निरंकुश, बिना रोकटोक के स्वच्छन्द-मति होकर बार-बार हाथ धोने लगी यावत् स्वाध्याय करने लगी अर्थात् उसने अपना पूर्वोक्त आचार चालू रक्खा । भूता का अवसान और सिद्धि गमन ९. तए णं सा भूया अज्जा बहूहिं चउत्थछट्ट० बहूई वासाई सामण्णपरियाणं पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कन्ता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सिरिवर्डिसए विंमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि जाव ओगाहणाए सिरिदेवित्ताए उववन्ना, पञ्चविहाए पज्जत्तीए जाव भासामणपज्जत्तीए पज्जत्ता । एवं खलु गोयमा ! सिरीए देवीए एसा दिव्वा देविड्ढी लद्धा पत्ता । एगं पलिओवमं ठिई । ' 'सिरी णं भंते, देवी जाव कहिं गच्छिहिइ ?' 'महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ ।' ॥ निक्खेवओ ॥ ९. तब वह भूता आर्या विविध प्रकार की चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त आदि तपश्चर्या करके और बहुत वर्षों तक श्रमणीपर्याय का पालन करके एवं अपनी अनुचित अयोग्य कार्यप्रवृत्ति की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किए बिना ही मरणसमय में मरण करके सौधर्मकल्प के श्रीअवतंसक विमान की उपपातसभा में देवशय्या पर यावत् अवगाहना से श्रीदेवी के रूप में उत्पन्न हुई, यावत् पांच आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति तथा भाषा - मन: पर्याप्ति से पर्याप्त हुई । इस प्रकार हे गौतम! श्रीदेवी ने यह दिव्य देवऋद्धि लब्ध और प्राप्त की है। वहाँ उसकी एक १. भगवती सूत्र, श. ९ उ. ३३

Loading...

Page Navigation
1 ... 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180