Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 154
________________ वर्ग ५ : प्रथम अध्ययन ] [ १११ ने सुखपूर्वक शय्या पर सोते हुए स्वप्न में सिंह को देखा यावत् महाबल के समान पुत्रजन्म का वर्णन जानना चाहिये। विशेषता यह है कि पुत्र का नाम वीरांगद रखा गया। यावत् उसे बत्तीस-बत्तीस वस्तुएँ दहेज में दी गईं और बत्तीस श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ, यावत् वैभव के अनुरूप पावस, वर्षा, शरद्, हेमन्त, ग्रीष्म और वसन्त, इन छहों ऋतुओं के योग्य इष्ट शब्द यावत् स्पर्श, रस, रूप और गंध वाले पाँच प्रकार के मानवीय कामभोगों का उपभोग करते हुए समय व्यतीत करने लगा। उस काल और उस समय जातिसम्पन्न इत्यादि विशेषणों वाले केशीश्रमण जैसे किन्तु बहुश्रुत के धनी एवं विशाल शिष्य परिवार सहित सिद्धार्थ नामक आचार्य जहाँ रोहीतक नगर था, जहाँ उसमें मेघवन उद्यान था, और उसमें भी जहाँ मणिदत्त यक्ष का यक्षायतन था, वहाँ पधारे और साधुओं के योग्य अवग्रह लेकर विराजे। दर्शनार्थ परिषद् निकली। १३. तए णं तस्स वीरङ्गयस्स कुमारस्स उप्पिं पासायवरगयस्स तं महया जणसइं .... जहा जमाली, निग्गओ। धम्म सोच्चा .... , जं नवरं देवाणुप्पिया, अम्मापियरो आपुच्छामि, जहा जमाली, तहेव निक्खन्तो जाव अणगारे जाए जाव गुत्तबम्भयारी। १३. तब उत्तम प्रासाद में वास करने वाले उस वीरांगद कुमार ने महान् जनकोलाहल इत्यादि सुना और (एक ही दिशा में जाता हुआ) जनसमूह देखा। वह भी जमालि की तरह दर्शनार्थ निकला। धर्मदेशना श्रवण करके उसने अनगार-दीक्षा अंगीकार करने का संकल्प किया और उसने भी जमालि की तरह निवेदन किया कि माता-पिता की अनुमति प्राप्त करके दीक्षा ग्रहण कसंगा। फिर जमालि की तरह ही प्रव्रज्या अंगीकार की और यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार हो गया। १४. तए णं से वीरङ्गए अणगारे सिद्धत्थाणं आयरियाणं अन्तिए सामाइयमाइयाइं जाव एक्कारस अङ्गाइं अहिज्जइ अहिज्जित्ता बहूई जाव चउत्थ जाव अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई पणयालीसवासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सवीसं भत्तसयं अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा बम्भलोए कप्पे मणोरमे विमाणे देवत्ताए उववन्ने। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दससागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। तत्थ णं वीरंगयस्स देवस्स वि दस सागरोवमा ठिई पण्णत्ता। १४. तत्पश्चात् उस वीरांगद अनगार ने सिद्धार्थ आचार्य से सामायिक से प्रारम्भ करके यावत् ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, यावत् विविध प्रकार के चतुर्थभक्त आदि तपःकर्म से आत्मा को परिशोधित करते हुए परिपूर्ण पैंतालीस वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर द्विमासिक संलेखना से आत्मा को शुद्ध करके एक सौ बीस भक्तों-भोजनों का अनशन द्वारा छेदन कर, आलोचना प्रतिक्रमण पूर्वक समाधि सहित कालमास में मरण कर वह ब्रह्मलोक कल्प के मनोरम विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ। वहाँ कितने ही देवों की दस सागरोपम स्थिति कही गई है। वीरांगद देव की भी दस सागरोपम की स्थिति हुई। १५. से णं वीरङ्गए देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव अनन्तरं चयं चइत्ता इहेव बारवईए नयरीए बलदेवस्स रन्नो रेवईए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने। तए णं सा रेवई देवी

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