Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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७८ ]
'अहासुहं, देवाणुप्पिया, या पडिबंधं करेह ।'
३८. तत्पश्चात् भद्र सार्थवाह ने विपुल परिमाण में अशन - पान - खादिम - स्वादिम भोजन तैयार करवाया और अपने सभी मित्रों, जातिबांधवों, स्वजनों, संबंधी परिचितों को आमंत्रित किया। उन्हें भोजन कराया यावत् उन मित्रों आदि का सत्कार - सम्मान किया । फिर स्नान की हुई, कौतुक - मंगल प्रायश्चित्त आदि से युक्त, सभी अलंकारों से विभूषित सुभद्रा सार्थवाही को मित्र - ज्ञातिजन, स्वजनसंबंधी परिजनों के साथ भव्य ऋद्धि-वैभव यावत् भेरी आदि वाद्यों के घोष के साथ वाराणसी नगरी के बीचों-बीच से होती हुई जहां सुव्रता आर्या का उपाश्रय था वहां आई । आकर उस पुरुषसहस्रवाहिनी पालकी को रोका और पालकी से उतरी।
तत्पश्चात् भद्र सार्थवाह सुभद्रा सार्थवाही को आगे करके सुव्रता आर्या के पास आया और आकर उसने वन्दन नमस्कार किया । वन्दन - नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया
[ पुष्पिका
'देवानुप्रिये ! मेरी यह सुभद्रा भार्या मुझे अत्यन्त इष्ट और कान्त है यावत् इसको वात-पित्तकफ और सन्निपातजन्य विविध रोग- आतंक आदि स्पर्श न कर सकें, इसके लिये सर्वदा प्रयत्न करता रहा। लेकिन हे देवानुप्रिये ! अब यह संसार के भय से उद्विग्न होकर एवं जन्म-मरण से भयभीत होकर आप देवानुप्रिया के पास मुण्डित होकर यावत् प्रव्रजित होने के लिये तत्पर है। इसलिये हे देवानुप्रिये ! मैं आपको शिष्या रूप भिक्षा दे रहा हूँ। आप देवानुप्रिया इस शिष्या - भिक्षा को स्वीकार करें ।'
भद्र सार्थवाह के इस प्रकार निवेदन करने पर सुव्रता आर्या ने कहा अनुकूल प्रतीत हो, वैसा करो, किन्तु इस मांगलिक कार्य में विलम्ब मत करो । '
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'देवानुप्रिये ! जैसा तुम्हें
३९. तए णं सा सुभद्दा सत्थवाही सुव्वयाहिं अज्जाहिं एवं वुत्ता समाणी हट्टा० सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ ओमुइत्ता सयमेव पञ्चमुट्ठियं लोयं करेइ, करित्ता जेणेव सुव्वयाओ अज्जाओ, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुव्वयाओ अज्जाओ तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणेणं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी
आलित्ते णं भंते! लोए, पलित्ते णं भंते! लोए, आलित्त - पलित्तेणं भंते! लोए जराए मरणे णय जहा देवाणंदा तहा पव्वइया (जाव) अज्जा जाया गुत्तबम्भयारिणी ॥
३९. सुव्रता आर्या के इस कथन को सुनकर सुभद्रा सार्थवाही हर्षित एवं संतुष्ट हुई और उसने (एक ओर जाकर) स्वयमेव अपने हाथों से वस्त्र, माला और आभूषणों को उतारा। पंचमुष्टिक केशलोंच किया फिर जहां सुव्रता आर्या थीं, वहां आई। आकर तीन बार आदक्षिण- दक्षिण दिशा से प्रारम्भ कर प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन - नमस्कार किया । वन्दन - नमस्कार करके इस प्रकार ब
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यह संसार आदीप्त है जन्म-जरा-मरण रूप आग से जल रहा है, प्रदीप्त है धधक रहा है यह आदीप्त और प्रदीप्त है, (अतएव जैसे किसी गृहस्थ के घर में आग लग गई हो और वह घर जल रहा हो तब वह उस जलते हुए घर में से बहुमूल्य और अल्पभार वाली वस्तुओं को निकाल लेता है और सुरक्षित रखता है, उसी प्रकार मैं अपनी आत्मा को, जो मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, संमत, अनुमत