Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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८० ]
[ पुष्पिका
आदि मिष्ठान्न देती, किसी को दूध पिलाती, किसी के कंठ में पहनी हुई पुष्प-माला को उतारती, किसी को पैरों पर बिठाती तो किसी को जांघों पर बिठाती। किसी को टांगों पर, किसी को गोदी में, किसी को कमर पर, पीठ पर, छाती पर, कन्धों पर, मस्तक पर बैठाती और हथेलियों में लेकर हुलारती-दुलारती, लोरियां गाती हुई, उच्च स्तर में गाती हुई - पुचकारती हुई पुत्र की लालसा, पुत्री की वांछा, पोते-पोतियों की लालसा (की पूर्ति) का अनुभव करती हुई अपना समय बिताने लगी। सुभद्रा का पृथक् आवास
४१. तए णं ताओ सुव्वयाओ अजाओ सुभदं अजं एवं वयासी – 'अम्हे णं देवाणुप्पिए! समणीओ निग्गन्थीओ इरियासमियाओ (जाव) गुत्तबम्भयारिणाओ। नो खलु अहं कप्पइ जातककम्मं करेत्तए। तुमं च णं देवाणप्पिए! बहुजणस्स चेडरूवेसु मुच्छिया (जाव) अज्झोववन्ना अब्भङ्गणं (जाव) नत्तिपिवासं वा पच्चणुभवमाणी विहरसि। तं णं देवाणप्पिए! एयस्स ठाणस्स आलोएहि (जाव) पायच्छित्तं पडिवजाहि।'
४१. उसकी ऐसी वृत्ति – आचारप्रवृत्ति देखकर सुव्रता आर्या ने सुभद्रा आर्या से कहादेवानुप्रिये! हम लोग संसार-विषयों से विरक्त, ईर्यासमिति आदि से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी निर्ग्रन्थी श्रमणी हैं। अतएव हमें बालकों का लालन-पालन, बालक्रीड़ा आदि करना-कराना नहीं कल्पता है। लेकिन देवानुप्रिय! तुम गृहस्थों के बालकों में मूछित – आसक्त यावत् अनुरागिणी होकर उनका अभ्यंगन - मालिश आदि करने रूप अकल्पनीय कार्य करती हो यावत् पुत्र-पौत्र आदि की लालसा पूर्ति का अनुभव करती हो। अतएव देवानुप्रिय! तुम इस स्थान– अकल्पनीय कार्य की आलोचना करो यावत प्रायश्चित्त लो।
४२. तए णं सा सुभद्दा अज्जा सुब्बयाणं अजाणं एयमढं नो आढाइ, नो परिजाणइ, अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी विहरइ। तए णं ताओ समणीओ निग्गन्थीओ सुभदं अजं हीलेन्ति, निन्दन्ति, खिंसन्ति, गरहन्ति अभिक्खणं अभिक्खणं एयमढं निवारेन्ति।
४२. सुव्रता आर्या द्वारा इस प्रकार से अकल्पनीय कार्यों से रोकने के लिये समझाये जाने पर भी सुभद्रा आर्या ने उन सुव्रता आर्या के कथन का आदर नहीं किया – कथन पर ध्यान नहीं दिया किन्तु उपेक्षापूर्वक अस्वीकार कर पूर्ववत् बाल-मनोरंजन करती रही।
तब निर्ग्रन्थ श्रमणियां इस अयोग्य कार्य के लिये सुभद्रा आर्या की हीलना (तिरस्कार) करतीं, निन्दा करती, खिंसा करती – उपालंभ देतीं, गर्दा करती – भर्त्सना करतीं और ऐसा करने से उसे बार-बार रोकतीं।
४३. तए णं तीए सुभद्दाए अजाए समणीहिं निग्गन्थीहिं हीलिजमाणीए (जाव) अभिक्खणं अभिक्खणं एयमढं निवारिजमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए (जाव) समुप्पजित्था - जया णं अहं अगारवासं वसामि, तया णं अहं अप्पवसा, जप्पभिई च णं अहं मुण्डा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया, तप्पभिई च णं अहं परवसा; पुव्विं च समणीओ निग्गन्थीओ आढेन्ति,