Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 107
________________ [ पुष्पिका जानना चाहिये। इसके बाद सोमिल ब्रह्मर्षि ने चतुर्थ बेला तप अंगीकार किया। इस चौथे बेले की पारणा के दिन पूर्ववत् सारी विधि की। विशेष यह है कि इस बार उत्तर दिशा की पूजा की और इस प्रकार प्रार्थना की - 'हे उत्तर दिशा के लोकपाल वैश्रमण महाराज! परलोक-साधना में प्रवृत्त मुझ सोमिल ब्रह्मर्षि की रक्षा करें' इत्यादि यावत् उत्तर दिशा का अवलोकन किया आदि। इस प्रकार पूर्व दिशा के वर्णन के समान सभी चारों दिशाओं का वर्णन, आहार किया तक का वृत्तान्त पूर्ववत् जानना चाहिये। सोमिल का नया संकल्प १८. तए णं तस्ससोमिलमाहणरिसिस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अणिच्चजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए (जाव) समुष्पजित्था – ‘एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए सोमिले नामं माहाणरिसी अच्चन्तमाहणकुलप्पसूए। तए णं मए वयाई चिण्णाई (जाव) जूवा निक्खित्ता। तए णं मम वाणारसीए (जाव) पुष्फारामा य (जाव) रोविया। तए णं मए सुबहुं लोह (जाव) घडावेत्ता (जाव) जेट्टपुत्तं ठवेत्ता जाव जेट्टपुत्तं आपुच्छित्ता सुबहुं लोह (जाव) गहाय मुण्डे (जाव) पव्वइए। पव्वइए वि य णं समाणे छठें छठेणं (जाव) विहरामि। तं सेयं खलु ममं इयाणिं कल्लं जाव जलन्ते बहवे तावसे दिट्ठामढे य पुव्वसंगइए य परियायसंगइए य आपुच्छित्ता आसमसंसियाणि य बहूई सत्तसयाई अणुमाणइत्ता वागलवत्थनियत्थस्स किढिणसंकाइयगहियसभण्डोवगरणस्स कट्ठमुद्दाए मुहं वन्धित्ता उत्तरदिसाए उत्तराभिमुहस्स महपत्थाणं पत्थावेत्तए' एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव जलन्ते बहवे तावसे य दिट्ठाभट्ठे य पुव्वसंगइए य, तं चेव जाव, कट्ठमुद्दाए मुहं बन्धइ, बंधित्ता अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ – 'जत्थेव णं अम्हं जलंसि वा एवं थलंसि वा दुग्गंसि वा नित्रंसि वा पव्वतंसि वा विसमंसि वा गड्डाए वा दरीए वा पक्खलिज वा पवडिज वा, नो खलु मे कप्पइ पच्चुट्टित्तए' त्ति अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ। अभिगिण्हित्ता उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहमहपत्थाणं पत्थिए से सोमिले माहणरिसी पच्छावरणहकालसमयंसि जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागए, असोगवरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, ठवित्ता वेई वड्ढेइ, वेड्ढित्ता उवलेवणसंमजणं करेइ, करित्ता दब्भकलसहत्थगए जेणेव गङ्गा महाणई, जहा सिवो जाव गङ्गाओ महाणईओ पच्चुत्तरइ, पच्चुतरित्ता जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दब्भेहि य कुसेहि य वालुयाए य वेइं रएइ, रइत्ता सरगं करेइ करित्ता जाव बलिवइस्सदेवं करेइ, करित्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ, बंधित्ता तुसिणीए संचिट्ठइ। १८. इसके बाद किसी समय मध्य रात्रि में अनित्य जागरण करते हुए उन सोमिल ब्रह्मर्षि के मन में इस प्रकार का यह आन्तरिक विचार उत्पन्न हुआ – 'मैं वाराणसी नगरी का रहने वाला, अत्यंत उच्च कुल में उत्पन्न सोमिल ब्रह्मर्षि हूँ। मैंने गृहस्थाश्रम में रहते हुए व्रत पालन किये हैं, यावत् यूप-यज्ञस्तम्भ गड़वाए। इसके बाद मैंने वाराणसी नगरी के बाहर बहुत से आम के बगीचे यावत् फूलों के बगीचे लगवाए। तत्पश्चात् बहुत से लोहे के कढ़ाहे, कुडछी आदि घड़वाकर यावत् ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप कर और मित्रों

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