Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
वर्ग ३ : तृतीय अध्ययन ]
[ ६७
.. तए णं तस्स सोमिलस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अन्तियं पाउब्भवित्था, तं चेव भणइ जाव पडिगए।
. तए णं से सोमिले जाव जलन्ते वागलवत्थनियत्थे किढिणसंकाइयं जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ, बंधित्ता उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिए।
२१. तदनन्तर वह सोमिल ब्रह्मार्षि तीसरे अपराह्न काल में जहां उत्तम अशोक वृक्ष था, वहां आए। आकर उस अशोक वृक्ष के नीचे कावड़ रखी। बैठने के लिये वेदी बनाई और दर्भयुक्त कलश को लेकर गंगा महानदी में अवगाहन किया। वहां स्नान आदि करके महानदी से बाहर निकले। निकलकर अशोक वृक्ष के नीचे वेदी-रचना की। अग्नि हवन आदि किया फिर काष्ठमुद्रा से मुख को बांधकर मौन बैठ गए।
तत्पश्चात् मध्यरात्रि में सोमिल के समक्ष पुनः एक देव प्रकट हुआ और उसने उसी प्रकार कहा - 'हे प्रव्रजित सोमिल! तेरी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है' यावत् वह देव वापस लौट गया
इसके बाद सूर्योदय होने पर वह वल्कल वस्त्रधारी सोमिल कावड़ और पात्रोपकरण लेकर यावत् काष्ठमुद्रा से मुख को बांधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा की ओर चल दिया।
२२. तए णं से सोमिले चउत्थे दिवसे पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव वडपायवे तेणेव उवागए। वडपायवस्स अहे कढिणं संठवेइ, संठवित्ता वेई वढ्डेइ, उवलेवणसंमजणं करेइ, जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ, तुसिणीए संचिट्ठइ। तए णं तस्स सोमिलस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अन्तियं पाउब्भवित्था, तं चेव भणइ जाव पडिगए।
तए णं से सोमिले जाव जलन्ते वागलवत्थनियत्थे किढिणसंकाइयं, जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ, उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिए।
२२. तदनन्तर चलते-चलते सोमिल ब्रह्मार्षि चौथे दिवस के अपराह्न काल में जहां वट वृक्ष था, वहाँ आये। आकर वट वृक्ष के नीचे कावड़ रखी। बैठने के योग्य स्थान साफ किया। उसको गोबर मिट्टी से लीपा, स्वच्छ किया इत्यादि तक का समस्त वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिये। यावत् काष्ठमुद्रा से मुख बांधा और मौन होकर बैठ गए। इसके बाद मध्यरात्रि के समय पुनः सोमिल के समक्ष वह देव प्रकट हुआ और उसने पहले के समान कहा – 'सोमिल! तुम्हारी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है।' ऐसा कहकर वह अन्तर्धान हो गया।
रात्रि के बीतने के बाद और जाज्वल्यमान तेजयुक्त सूर्य के प्रकाशित होने पर वह वल्कल वस्त्रधारी सोमिल कावड़ लेकर काष्ठमुद्रा से मुख बांधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा में चल दिए।
२३. तए णं से सोमिले पंचमदिवसम्मि पच्छावरणहकालसमयंसि जेणेव उंबरपायवे तेणेव उवागच्छइ। उंबरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, वेइं वड्ढइ, जाव संचिट्ठइ।
तए णं तस्स सोमिलमाहणस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे, जाव एवं वयासी – 'हं भो सोमिला, पव्वइया, दुप्पव्वइयं ते,' पढम भणइ, तहेव तुसिणाीए संचिट्ठइ। देवो दोच्चं पि तच्चं पि वयइ – 'सोमिला, पव्वइया, दुप्पव्वइयं ते।' तए णं से सोमिले तेणं देवेणं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ते