Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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वर्ग ३ : तृतीय अध्ययन ]
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आदि यावत् ज्येष्ठ पुत्र के सम्मति लेकर लोहे की कड़ाहियां आदि लेकर मुण्डित हो प्रव्रजित हुआ। प्रव्रजित होने पर षष्ठ-षष्ठभक्त (बेले-बेले) तप:कर्म अंगीकार करके दिक्चक्रवाल साधना करता हुआ विचरण कर रहा हूँ।
लेकिन अब मुझे उचित है कि कल सूर्योदय होते ही बहुत से दृष्ट-भाषित (पूर्व में दृष्ट और भाषित) पूर्व संगतिक (पूर्वकाल के साथी) और पर्याय संगतिक (तापस अवस्था के साथी) तापसों से पूछ कर और आश्रमसंश्रित (आश्रम में रहने वाले) अनेक शतजनों को वचन आदि से संतुष्ट कर और उनसे अनुमति लेकर वल्कल वस्त्र पहन कर, कावड़ की छबड़ी में अपने भाण्डोपकरणों को लेकर तथा काष्ठमुद्रा से मुख को बांध कर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा में महाप्रस्थान (मरण के लिये गमन) करूं।' सोमिल ने इस प्रकार से विचार किया। इस प्रकार विचार करने के पश्चात् कल (आगामी दिन) यावत् सूर्य के प्रकाशित होने पर अपने विचार – निश्चय के अनुसार उन्होंने सभी दृष्ट, भाषित, पूर्वसंगतिक और तापस पर्याय के साथियों आदि से पूछ कर तथा आश्रमस्थ अनेक शत-प्रणियों को संतुष्ट कर अंत में काष्ठमुद्रा से मुख को बांधा। मुख को बांध कर इस प्रकार का अभिग्रह (प्रतिज्ञा) लिया - जहाँ कहीं भी - चाहे वह जल हो या स्थल हो, दुर्ग (दुर्गम स्थान) हो अथवा नीचा प्रदेश हो, पर्वत हो अथवा विषम भूमि हो, गड्ढा हो या गुफा हो, इन सब में से जहाँ कहीं भी प्रस्खलित होऊँ या गिर जाऊँ वहाँ से मुझे उठाना नहीं कल्पता है अर्थात् मैं वहाँ से नहीं उलूंगा। ऐसा विचार करके यह अभिग्रह कर लिया।
तत्पश्चात् उत्तराभिमुख होकर महाप्रस्थान के लिये प्रस्थित वह सोमिल ब्रह्मर्षि उत्तर दिशा की ओर गमन करते हुए अपराह्न काल (दिन के तीसरे पहर) में जहाँ सुन्दर अशोक वृक्ष था, वहाँ आये। उस अशोक वृक्ष के नीचे अपना कावड़ रखा। अनन्तर वेदिका (बैठने की जगह) साफ की, उसे लीप-पोत कर स्वच्छ किया, फिर डाभ सहित कलश को हाथ में लेकर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आये और शिवराजर्षि के समान उस गंगा महानदी में स्नान आदि कृत्य कर वहाँ से बाहर आये। जहाँ वह उत्तम अशोक वृक्ष था वहाँ आकर डाभ, कुश एवं बालुका से वेदी की रचना की। फिर शर और अरणि बनाई, शर व अरणि काष्ठ को घिस कर - रगड़ कर अग्नि पैदा की इत्यादि पूर्व में कही गई विधि के अनुसार कार्य करके बलिवैश्वदेव – अग्नि यज्ञ करके काष्ठ मुद्रा से मुख को बाँध कर मौन होकर बैठ गये। देव द्वारा सोमिल को प्रतिबोध
१९. तए णं तस्स सोमिलमाहणरिसिस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अंतियं पाउब्भूए। तए णं से देवे सोमिलमाहणं एवं वयासी - 'हं भो सोमिलमाहणा, पव्वइया! दुप्पव्वइयं ते।' तए णं से सोमिले तस्स देवस्स दोच्चं पि तच्चं पि एयमटुं नो आढाइ, नो परिजाणइ, जाव तुसिणीए संचिट्ठइ।
तए णं से देवे सोमिलेणं माहणरिसिणा अणाढाइजमाणे जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव जाव पडिगए।
तए णं से सोमिले कल्लं जाव जलन्ते वागलवत्थनियत्थे कढिणसंकाइयं गहाय गहियभण्डोवगरणे कट्टमुद्दाए मुहं बंधइ, बंधित्ता उत्तराभिमुहे संपत्थिए।