Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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६८ ]
[ पुष्पिका
समाणे तं देवं एवं वयासी – 'कहं णं देवाणुप्पिया! मम दुप्पव्वइयं ?' ..
तए णं से देवे सोमिलं माहणं वयासी – ‘एवं खलु देवाणुप्पिया! तुमं पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अन्तियं पञ्चाणुव्वए सत्तसिक्खावए दुवालसविहे सावयधम्मे पडिवन्ने। तए णं तव अन्नया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुम्बजागरियं ... जाव पुव्वचिन्तियं देवो उच्चारेइ जावजेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छसि, उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयं जाव तुसिणीए संचिट्ठसि। तए णं पुव्वरत्तावरत्तकाले तव अन्तियं पाउब्भवामि, 'हं भो सोमिला, पव्वइया, दुप्पव्वयं ते, तह चेव देवो नियवयणं भणइ, जाव पञ्चमदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव उम्बरपायवे, तेणेव उवागए किढिणसंकाइयं ठवेसि, वेई वड्ढेसि, उवलेवणं संमजणं करेसि, करेत्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बंधेसि, बंधित्ता तुसिणीए संचिट्ठसि। तं एवं खलु, देवाणुप्पिया, तव दुप्पव्वइयं।'
२३. तत्पश्चात् वह सोमिल ब्रह्मर्षि पांचवें दिन के चौथे प्रहर में जहां उदुम्बर (गूलर) का वृक्ष था, वहाँ आए। उस उदुम्बर वृक्ष के नीचे कावड़ रखी। वेदिका बनाई । यावत् काष्ठमुद्रा से मुख बांधा यावत् मौन होकर बैठ गए।
इसके बाद मध्यरात्रि में पुनः सोमिल ब्राह्मण के समीप एक देव प्रकट हुआ और उसने उसी प्रकार कहा - 'हे सोमिल! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है।' इस प्रकार पहली बार कही उस देव की वाणी को सुनकर वह मौन बैठे रहे। इसके बाद देव ने दूसरी और तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा – 'सोमिल! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है।' तब देव द्वारा दूसरी तीसरी बार भी इसी प्रकार कहे जाने पर सोमिल ने देव से पूछा - देवानुप्रिय! मेरी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या क्यों है ?'
सोमिल के इस प्रकार पूछने पर देव ने कहा – देवानुप्रिय! तुमने पहले पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् से पंचअणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावक धर्म अंगीकार किया था। किन्तु इसके बाद सुसाधुओं के दर्शन उपदेश आदि का संयोग न मिलने और मिथ्यात्व पर्यायों के बढ़ने से अंगीकृत श्रावकधर्म को त्याग दिया। इसके अनन्तर किसी समय रात्रि में कुटुम्ब संबंधी विचार करते हुए तुम्हारे मन में विचार उत्पन्न हुआ कि गंगा किनारे तपस्या करने वाले विविध प्रकार के तामसों में से दिशाप्रोक्षिक तापसों के पास लोहे के कड़ाह , कुडछी और तांबे के तापसपात्र बनवाकर और उन्हें लेकर दिशाप्रोक्षिक तापस बनूं। इत्यादि सोमिल ब्राह्मण द्वारा पूर्व में चिन्तित सभी विचारों को देव ने दुहराया और कहा – फिर तुमने दिशाप्रोक्षिक प्रव्रज्या धारण की। प्रव्रज्या धारण कर अन्त में यह अभिग्रह लिया यावत् जहां अशोक वृक्ष था, वहाँ आए और कावड़ रख वेदी आदि बनाई। गंगा में स्नान किया। अग्नि हवन किया यावत् काष्ठमुद्रा से मुख बांधकर मौन बैठ गए। बाद में मध्यरात्रि के समय मैं तुम्हारे समीप आया और तुम्हें प्रतिबोधित किया – 'हे सोमिल! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है।' किन्तु तुमने उस पर ध्यान नहीं दिया और मौन ही रहे। इस प्रकार मैंने तुम्हें चार दिन तक समझाया पर तुमने विचार नहीं किया। इसके बाद आज पांचवें दिवस चौथे प्रहर में इस उदुम्बर वृक्ष के नीचे आकर तुमने अपना कावड़ रखा। बैठने के स्थान को साफ किया, लीप-पोतकर स्वच्छ किया। अग्नि में हवन किया और काष्ठमुद्रा से अपना मुख बांधकर तुम मौन होकर बैठ गए। इस प्रकार से हे देवानुप्रिय! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है।