Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ पुष्पिका निग्गच्छई (जाव) पजुवासइ। धम्म सोच्चा निसम्म, जं, नवरं, 'देवाणुप्पिया! जेट्टपुक्तं कुडुम्बे ठावेमि। तए णं अहं देवाणुप्पियाणं जाव पव्वयामि।' जहा गङ्गदत्ते तहा पव्वएइ (जाव) गुत्तबम्भयारी।
४. उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के समान धर्म की आदि करने वाले इत्यादि विशेषणों से युक्त, नौ हाथ की अवगाहना वाले पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व प्रभु सोलह हजार श्रमणों एवं अड़तीस हजार आर्याओं के समुदाय के साथ गमन करते हुए यावत् कोष्ठक चैत्य में समवसृत हुए - पधारे। परिषद् दर्शनार्थ निकली।
तब वह अंगजित गाथापति इस संवाद को सुनकर हर्षित एवं संतुष्ट होता हुआ कार्तिक श्रेष्ठी' के समान अपने घर से निकला यावत् पर्युपासना की। धर्म को श्रवण कर और अवधारित कर उसने प्रभु से निवेदन किया – देवानुप्रिय! ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करूंगा। तत्पश्चात् मैं आप देवानुप्रिय के निकट यावत् प्रव्रजित होऊँगा। गंगदत्त के समान वह प्रव्रजित हुआ यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार हो गया। अंगजित अनगार का उपपाद
५. तए णं से अङ्गई अणगारे पासस्स अरहओ तहारूवाणं थेराणं अन्तिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अङ्गाई अहिजइ, अहिजित्ता बहूहिं चउत्थ (जाव) भावेमाणे बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताइं अणसणाए छेइत्ता विराहियसामण्णे कालमासे कालं किच्चा चन्दवडिंसए विमाणे उववाइयाए सभाए देवसयणिजंसि देवदूसन्तरिए चन्दे जोइसिन्दत्ताए उववन्ने।
तए णं से चन्दे जोइसिन्दे जोइसियराया अहुणोववन्ने समाणे पञ्चविहाए पजत्तीए पजत्तीभावं गच्डइ, तं जहा - आहारपज्जत्तीए सरीरपज्जत्तीए इन्दियपज्जत्तीए सासोसासपजत्तीए भासामणपज्जत्तीए।
५. तत्पश्चात् अंगजित अनगार ने अर्हत् पार्श्व के तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि ले लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन करके चजुर्थभक्त यावत् आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करके अर्धमासिक संलेखना पूर्वक अनशन द्वारा तीस भक्तों (भोजनों) का छेदन कर – त्याग कर काल मास में - मरण समय प्राप्त होने पर – मरण करके संयमविराधना के कारण चन्द्रावतंसक विमान की उपपपात – सभा की देवदूष्य से आच्छादित देवशैया में ज्योतिषकेन्द्र चन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ।
तब सद्य:उत्पन्न ज्योतिषकेन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्र पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्तभाव को प्राप्त हुआ – आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, और भाषामन:पर्याप्ति ।
१-२. कार्तिक श्रेष्ठी और गंगदत्त का परिचय भगवतीम्सूत्र में देखिए। (आगम-प्रकाशन-समिति, ब्यावर)