Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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इस प्रकार जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा में नरकों का निरूपण है। नरक जीवों के दारुण कष्टों को भोगने का स्थान है। पाप कृत्य करने वाली आत्माएं नरक में उत्पन्न होती हैं। निरयावलिका में, युद्ध भूमि में मृत्यु को प्राप्त कर नरक में गये श्रेणिक के दस पुत्रों का दस अध्ययनों में वर्णन है। जबकि उनके अन्य भ्राता श्रमणधर्म को स्वीकार कर स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त हुए थे। उनकी माताएँ भी श्रमण धर्म को स्वीकार कर मुक्त हुई थीं। पुत्र और माताओं के नाम भी एक सदृश हैं। इस प्रकार निरयावलिका सूत्र यहाँ पर समाप्त होता है। इस उपांग में मगधनरेश श्रेणिक और उनके वंशजों का विस्तृत वर्णन है। कूणिक का जीवन परिचय है। वैशाली गणराज्य के अध्यक्ष चेटक के साथ कूणिक के युद्ध का वर्णन है। पुत्र के प्रति पिता का अपार स्नेह भी इसमें वर्णित है, जिससे यह उपांग बहुत ही आकर्षक बन गया है। कप्पवडिंसिया : कल्पावतंसिका
कल्प शब्द का प्रयोग सौधर्म से अच्युत तक जो बारह स्वर्ग हैं, उनके लिये प्रयुक्त हुआ है। देवों में उत्पन्न होने वाले जीवों का जिसमें वर्णन है वह कल्पावतंसिका है। इस उपांग में दस अध्ययन हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं - १. पउम, २. महापउम, ३. भद्द, ४. सुभद्द, ५. पउमभद्द, ६. पउमसेन, ७. पउमगुल्म, ८. नलिनीगुल्म, ९. आणंद, १०. नंदन।
निरयावलिका में राजा श्रेणिक के पुत्र काल कुमार, सकाल कमार आदि दस राजपत्रों का वर्णन है। उन्हीं दस राजकुमारों के दस पुत्रों का वर्णन कल्पावतंसिका में है। दसों राजकुमार श्रमण भगवान् महावीर के पावन प्रवचन को सुनकर श्रमण बनते हैं। अंग साहित्य का गहन अध्ययन करते हैं। उग्र तप की साधना कर जीवन की सांध्य बेला में पंडितमरण को वरण करते हैं। सभी स्वर्ग में जाते हैं। इस प्रकार इस उपांग में व्रताचरण से जीवन के शोधन की प्रक्रिया पर प्रकाश डाला है। जहाँ पिता कषाय के वशीभूत होकर नरक में जाते हैं, वहाँ उन्हीं के पुत्र सत्कर्मों के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं। उत्थान और पतन का दायित्व मानव के स्वयं के कर्मों पर आधृत है। मानव साधना से भगवान् बन सकता है वहीं विराधना से नरक का कीट भी बन जाता
जैन साहित्य में स्वर्ग
भारतीय साहित्य में जहाँ नरक का निरूपण हुआ है वहाँ स्वर्ग का भी वर्णन है। जैन दृष्टि से देवों के मुख्य चार भेद हैं - १. भवनपति, २. व्यंतर, ३. ज्योतिष्क, ४. वैमानिक। इनके अवान्तर भेद निन्यानवै हैं। आगम साहित्य में उनके संबंध में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध है। ये देव कहाँ पर रहते हैं ? उनकी कितनी देवियां होती हैं। किस प्रकार का वैभव होता है ? कितना आयुष्य होता है ? R आदि-आदि सभी प्रश्नों पर बहुत ही विस्तार से विवेचन किया गया है।
४७. एवं सेसा वि अट्ठ अज्झयणा नायव्वा पढमसरिसा, णवरं माताओ सरिसणामा। णिरयावलियाओ समत्तओ।
- निरयावलिया समाप्तिप्रसंग ४८. तत्त्वार्थसूत्र ४-३ ४९. भगवती, जीवाभिगम, लोकप्रकाश, त्रिलोकसार, तत्त्वार्थसूत्र भाष्य, तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रन्थ देखें।
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