Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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३. शुक्र, ४. श्रीदेवी, ५. प्रभावती, ६. द्वीपसमुद्रोपपत्ति, ७. बहुपुत्री मन्दरा, ८. स्थविर सम्भूतविजय, ९. स्थविर पक्ष्म, १०. उच्छ्वास-निःश्वास।६६
- आचार्य अभयदेव ने दीर्घदशा को स्वरूपतः अज्ञात बतलाया है और दीर्घदशा के अध्ययनों के संबंध में कुछ सम्भावनाएँ प्रस्तुत की हैं ।६७ नन्दी की आगमसूची में भी इनका उल्लेख नहीं है। दीर्घदशा में आये हुये पांच अध्ययनों का नाम साम्य निरयावलिका के साथ है। दीर्घदशा में चन्द्र, सूर्य, शुक्र और श्रीदेवी अध्ययन हैं, तो निरयावलिका में चन्द्र तीसरे वर्ग का पहला अध्ययन है। सूर्य तीसरे वर्ग का दूसरा अध्ययन है। शुक्र तीसरे वर्ग का तीसरा अध्ययन है तो निरयावलिका में बहुपुत्रिका, यह तीसरे वर्ग का चौथा अध्ययन
__ आचार्य अभयदेव ने स्थानांग वृत्ति में निरयावलिका के नामसाम्य वाले पांच और अन्य दो अध्ययनों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया है। और शेष तीन अध्ययनों को अप्रतीत कहा है।६८ आचार्य अभयदेव के अनुसार इन अध्ययनों का संक्षेप में विवरण इस प्रकार है -
चन्द्र - भगवान् महावीर राजगृह में समवसृत थे। ज्योतिष्कराज चन्द्र का आगमन, नाट्यविधि का प्रदर्शन। गौतम गणधर की जिज्ञासा पर महावीर ने कहा – वह पूर्वभव में श्रावस्ती नगरी में अंगति नामक श्रावक था। पार्श्वनाथ के पास दीक्षित हुआ। श्रामण्य की एक बार विराधना की, वहां से मरकर यह चन्द्र हुआ।
सूर्य – यह पूर्वभव में श्रावस्ती नगरी में सुप्रतिष्ठित नाम का श्रावक था। पार्श्वनाथ के पास संयम लिया। विराधना करके सूर्य हुआ।
शुक्र - शुक्र गृह भगवान् को नमस्कार कर लौटा। गौतम की जिज्ञासा पर भगवान् ने कहा - यह पूर्वभव में वाराणसी में सोमिल ब्राह्मण था। दिक्प्रोक्षक तापस बना। विविध तप करने लगा। एक बार उसने यह प्रतिज्ञा की – जहाँ कहीं मैं गड्ढे में गिर जाऊँगा, वहीं प्राण छोड़ दूंगा। इस प्रतिज्ञा को लेकर काष्ठ मुद्रा से मुंह को बांधकर उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया। पहले दिन एक अशोक वृक्ष के नीचे होम आदि से निवृत्त होकर बैठा था। उस समय एक देव ने वहां प्रकट होकर कहा - अहो सोमिल ब्राह्मण महर्षे ! तुम्हारी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है। पांच दिनों तक भिन्न-भिन्न स्थानों में उसको यही देववाणी सुनाई दी। पांचवें दिन उसने देव से पूछा – मेरी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या क्यों है ? उत्तर में देव ने कहा - तुमने अपने गृहीत अणुव्रतों की विराधना की है। अभी भी समय है। उसे पुनः स्वीकार करो। देव के कहने से तापस ने वैसा ही किया। श्रावकत्व का पालन कर यह शुक्र देव बना है। '
६६. स्थानाङ्ग १० सू. ११९ ६७. दीर्घदशाः स्वरूपतोऽवनगता एव, तदध्ययनानि तु कानिचिन्नरकावलिकाश्रुतस्कन्धे उपलभ्यन्ते।
-स्थानाङ्ग, पत्र ४८५ ६८. शेषाणि त्रीण्यप्रतीतानि। -स्थानांगवृत्ति, पत्र ४८६
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