Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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जाता है और अमर बन जाता है। इस प्रकार वैदिक परम्परा में पुत्र की प्रधानता रही है। उसे त्राता माना है, जबकि जैनपरम्परा में पुत्र को त्राता नहीं माना है। वैदिक परम्परा में गृहस्थ-आश्रम को सबसे प्रमुख आश्रम माना हैजिस प्रकार नदी और नद सागर में आकर स्थिर हो जाते हैं, वैसे ही सभी आश्रम गृहस्थ-आश्रम में स्थिर होते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि संन्यास और व्रत की परम्परा श्रमणधर्म की देन है। श्रमणधर्म से ही वैदिक परम्परा ने व्रत आदि को ग्रहण किया है। वेद, ब्राह्मण और आरण्यक साहित्य में महाव्रतों का उल्लेख नहीं है। जिन उपनिषदों, पुराणों और स्मृतिग्रन्थों में महाव्रतों का वर्णन आया है उन पर तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ और जैनधर्म का प्रभाव है। इस सत्य को महाकवि दिनकर ने स्वीकार करते हुए लिखा है-हिन्दुत्व और जैनधर्म आपस में घुल-मिल कर अब इतने एकाकार हो गए हैं कि आज का साधारण हिन्दू यह जानता भी नहीं कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैनधर्म के उपदेश थे, हिन्दुत्व के नहीं। अन्य स्वतन्त्र चिन्तकों ने भी इस सत्य को बिना संकोच स्वीकार किया है। डॉ. डांडेकर आदि का भी यही अभिमत रहा है।
वेदों में योग और ध्यान की भी प्रक्रिया नहीं है। ऋग्वेद में योग शब्द मिलता है। वहाँ पर योग शब्द का अर्थ जोड़ना मात्र है । पर आगे चलकर वही योग शब्द उपनिषदों में पूर्ण रूप से आध्यात्मिक अर्थ में आया है। कितने ही उपनिषदों में तो योग और योगसाधना का सविस्तृत वर्णन किया गया है। योग, योगोचित स्थान, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान कुण्डलिनी आदि का विशद वर्णन है। सिन्धुसंस्कृति के भग्नावशेषों में ध्यानमुद्रा के प्रतीक प्राप्त हुये हैं, जिससे भी इस कथन को बल प्राप्त होता है। संक्षेप में यही सार है कि जैन आगमों का मूल स्रोत वेद नहीं हैं। वेदों से उसने सामग्री ग्रहण नहीं की है। उसकी सामग्री का मूल स्रोत तीर्थंकर हैं। केवल-ज्ञान,
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ऋणमस्मिन् सनयत्यमृतत्त्वं च गच्छति। पिता पुत्रस्य जातस्य पश्येच्चेजीवतो मुखम्। -ऐतरेय ब्राह्मण,७वीं पंचिका, अध्याय ३ जाया य पुत्ता न हवन्ति ताणं।
- उत्तराध्ययन अ. १४, श्लो. १२ गृहस्थ एव यजते, गृहस्थस्तप्यते तपः। चतुर्णामश्रमाणं तु. गृहस्थश्च विशिष्यते ॥ यथा नदी नदाः सर्वे, समुद्रे यानि संस्थितिम् । एवामाश्रमिणः सर्वे, गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्॥ -वशिष्ठ-धर्मशास्त्र ८।१४-१५ संस्कृति के चार अध्याय, पृ. १२५ (क) स घा नो योग आ भवत्।
—ऋग्वेद, १५/३ (ख) स धीनां योगमिन्वति।
-ऋग्वेद, १२१८१७ (ग) कदा योगी वाजिनो रासभस्य । -ऋग्वेद, १३४।९ (घ) वाजयन्निव नू रथान् योगा अग्नेरुपस्तुहि।-ऋग्वेद, २।८१ (क) अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्ष-शोको जहाति। -कठोपनिषद् २०१२ (ख) तां योगमितिमन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययो॥-कठोपनिषद् २।३।११ (ग) तैत्तिरीयोपनिषद् २०१४ योगराजोपनिषद्, अद्वयतारकोपनिषद्, अमृतनादोपनिषद्, त्रिशिख ब्राह्मणोपनिषद्, दर्शनोपनिषद्, ध्यानविन्दूपनिषद्, हंस, ब्रह्मविद्या, शाण्डिल्य, वाराह, योगशिख, योगतत्त्व, योगचूडामणि, महावाक्य, योगकुण्डली, मण्डलव्राह्मण, पाशुपतव्राह्मण. नादविन्दु, तेजोविन्दु, अमृतविन्दु, मुक्तिकोपनिषद् । इन सभी २१ उपनिषदों में योग का वर्णन हुआ है।
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