Book Title: Adhyatma Pad Parijat
Author(s): Kanchedilal Jain, Tarachand Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ (२) गीत में संगीत की प्रधानता रहती हैं। यद्यपि संगीत के लिए काव्यत्व अपेक्षित नहीं , क्योंकि उसका प्रधान आधार स्वर-लहरी है, किन्तु जब गीत में काव्यत्व होता है तभी वह गीतिकाव्य का नाम ग्रहण कर लेता है। गीति-काव्य में कवि अपने ही अन्तस् के सूक्ष्म भावजगत का वर्णन करता है। उसकी वृत्ति प्रधानतया अन्तर्मुखी होती है। अपनी अनुभूति का या भाव के आवेश का ही संगीतमय वर्णन उसका लक्ष्य होता है। प्रस्तुत संग्रह-ग्रन्थ के प्राय: सभी कवि संगीत के पारखी कवि हैं। इनके पद विभिन्न शास्त्रीय राग-रागनियों पर आधारित हैं, जिनमें गौरी, सारंग, विलावल, यमन, रामकली, काफी, धनाश्री, खम्माज, केदार, आसावरी, पीलू, सोरठ, मलार आदि प्रमुख हैं। इन पदों का संगीत, भावसंगीत की प्रतिध्वनि सा प्रतीत होता है। इस संगीत-प्रधान काव्य-पद्धति में कवि शब्दचयन, शब्द-माधुर्य और कला-विधान के सौन्दर्य के साथ अपनी भावनाओं का प्रकाशन करता है। किन्तु जब इन गीतों में आराध्यदेव सम्बन्धी अनुभूतियों का वर्णन होने लगता है, तो उनकी संज्ञा महत् हो जाती है। प्रस्तुत संकलन के पदसाहित्य को बीस विषयों में विभक्त किया गया है१. जिनस्तुति, २. जिनदेव-दर्शन-पूजन, ३. जिनवाणी,४. गुरुस्तुति,५. सम्यग्दर्शन, ६. सम्यग्ज्ञान, ७. सदुपदेश,८. विनय, ९. आत्मस्वरूप,१०. बारह भावना, ११.कर्मफल, १२. बधाईगीत, १३. उत्तम नरभव, १४. होली, १५. भोग-विलास, १६.संसार-असार, १७ सप्तव्यसन, १८. मन, १९. कषाय एवं २०. भाव-परिणाम। उक्त पदों में अध्यात्म, भक्ति, नीति, आचार, स्वकर्तव्य-निरूपण, आत्मसम्बोधन और वैराग्य की शिक्षा के साथ-साथ मन, इन्द्रिय और शरीर की स्वाभाविक प्रवृत्ति का दिग्दर्शन कराकर मानव को सावधान कर आत्मालोचन की प्रवृत्ति जगाने का प्रयास किया गया है। इनकी विशेषता है-। संगीतात्मकता, आत्मनिष्ठा, अनुभूति की तीव्रता और रागात्मक अनुभूति की अभिव्यञ्जना। संगीतात्मकता गीतिकाव्य की पहली विशेषता है संगीतात्मकता। संग्रहीत सभी पद गेय हैं। इनके वर्ण-विन्यास में एक ओर कोमलता विद्यमान हैं तो दूसरी ओर वह संगीत माधुरिमा से ओत-प्रोत हैं। इनमें संगीत की अक्षुण्ण धारा प्रवाहित है, जिसमें संगीत का माधुर्य छलक रहा है। तुक, गति, यति, और लय के साथ नाद-सौन्दर्य का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 306