Book Title: Adhyatma Pad Parijat
Author(s): Kanchedilal Jain, Tarachand Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 14
________________ प्रस्तावना डॉ०(श्रीमती) विद्यावती जैन "अध्यात्मपद-पारिजात'. एक संग्रह-ग्रन्थ है, जिसमें १६ वीं सदी से लेकर २० वीं सदी तक के प्रमुख हिन्दी जैन भक्त-कवियों की रचनाएँ संकलित हैं। इनमें कवियों ने भक्ति के उन्मेष में जिस पद-साहित्य की रचना की, वह जन-मानस को आध्यात्मिक जीवन की ओर अग्रसर होने की प्रभावक प्ररेणा देनेवाली प्रणम्य प्रकाश-किरणें समाहित हैं। जिस अहिंसा-दर्शन और अनेकान्त-दृष्टि का इन पदों में सरल भाषा-शैली में हृदयग्राह्य वर्णन किया गया है, वह सार्वजनीन, सार्वभौमिक, शाश्वत और सनातन सत्य है। हमारे महान् सन्त साधकों के उदात्त-चिन्तन, अध्यात्म-साधना और आत्मशोधन की प्रवृत्ति द्वारा निस्यूत जिस आत्मानन्दरूपी अमृतसिन्धु को भक्त कवियों ने अनुभव किया, उसी की शब्दमय अभिव्यक्ति हैं ये पद। इनमें आध्यात्म और संगीत का अनूठा समन्वय है और है दर्शन के गूढ से गूढतर विषयों को भी सरल शब्दों में समझाने की अद्भुत शक्ति। इनमें मानवता को अनुप्राणित करने वाली भावनाओं की प्रचुरता है एवं हृदय को आन्दोलित कर देने वाली नव रसमय पिच्छिल रसधारा सतत सर्वत्र प्रवाहित है। सभी पद गीतिकाव्य की पद्धति पर आधारित है। गीतिकाव्य मुक्तक-श्रेणी का काव्य होता है, जिसमें गीतिकार की अपनी आवेशपूर्ण भावनाओं का प्रकाशन होता है। गीतिकार अपनी ही मानसिक अनुभूतियों की गीतिरूप में अभिव्यञ्जना करता है। वह अभिव्यञ्जना भाव के अनुकूल ही उस कोमल कान्त, स्वाभाविक और सरल भाषाशैली में होती है, जिसमें हृदयगत भावना का सौन्दर्य और माधुर्य व्याप्त रहता है। भावावेश में ही गीतों का जन्म होता है। उनका आकार निश्चित नहीं होता। वह भावानुसार ही छोटा या बड़ा हो सकता है। इस गीति-विधान का स्वरूप विभिन्न समयानुकूल राग-रागनियों पर आधारित रहता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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