Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 02
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan

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Page 886
________________ उम्मिसिय 878 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उरपरिसप्प० शिते, वाच०। उन्मीलिते भ०१४ श० 130 / भावे क्तः। उत्मेषे, "अणुमोदणउम्हमादिणे दोसा" उष्मा नाम तेनाऽन्येन द्रव्येण तस्य "उम्मिसियणिमिसियंतरेण" उन्मिषितनिमिषितान्तरेण यावता रागिणो हस्तादौ परिताप आदिशब्दाद्यदि द्रव्यमसौ तत्र प्रक्षिपति। वृ० अन्तरेण व्यवधानेन उन्मेषनिमेषौ क्रियेते तावदन्तरप्रमाणेन / जी०३ २उ०। प्रति०। उम्हातिस त्रि०(युष्मादृश) युष्मद्-दृश्-कञ्-आत्वं पैशाच्याम्। उम्मिस्स न०(उन्मिश्र) सचित्तसम्मिश्रे, तदभेदोपचारात्सप्तमे | यादृशोदे१स्तिः || 16|| इति (द) इति दृश इत्यस्य स्थाने एषणादोषे,प्रव०६७ द्वा०।"वीयादि उम्मीसं" बीजाधुन्मिङ्गं तिरादेशः / भवादृशे, प्रा०॥ बीजकहरितादिभिर्यदुन्मिश्रमुच्यते।पंचा०१३ विव०॥ यदा अनाभोगेन | उम्हासेस पुं०(ऊष्मावशेष) मनागपि ऊष्मे, "उम्हासेसो विसिही होऊ अविचायैव शुद्धाशुद्धाहारंसम्मील्याददातितदा सप्तम उन्मिश्रितदोषः / लद्धिं" आव०५ अ०। उत्त०२४ अ०। देवद्रव्यं खण्डादि सचित्तेन धान्यकणादिना मिश्रं ददत उय अव्य०(उत) अपि शब्दार्थे, विशे० "उतामृतस्येशानो उन्मिश्रम्। ध०३ अधि०। यदन्ने नातिरोहति'' आ०म०द्वि० सुतरामिति शब्दस्यार्थे, असण पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। "किमुयकुडवाडिस्स'' आव५ अ० / विकल्पे, समुच्चये, वितर्के, प्रश्ने, पुस्फेसु होज सम्मीसं, वीएसु हरीएसु वा // 57 / / अत्यर्थे च। वाच०॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं / उयण्णेमाण त्रि०(प्रवर्तयत्) तिरश्चीन कुर्वति, "उत्तारेमाणे वा दितियं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं // 58|| उयण्णेमाणे वा जीवहिं" आचा०२ श्रु०॥ उयत्तिय अव्य०(अपवृत्य) अपवर्त्तनं कृत्वेत्यर्थे , "उयत्तियाणं गिण्हाहि, पानकं वापि स्वाद्यं तथा पुष्पैर्जातिपाटलादिभिर्भवेदुन्मिश्र तहप्पगारं पाणगजातं" आचा०२ श्रु०॥ बीजैर्हरितैर्वेति तादृशं भक्तपानंतु संयतानामकल्पिकं यतश्चैवमतो ददती प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति। दश०५ अ०। (अस्य भेदादि उयाय त्रि०(उपयात) उपगते, "महासिलाकंटग संगामं उयाए पुरओ य सेसक्के" भ०७०६ उ०॥ उन्मिश्रग्रहणनिषेधश्च एषणा शब्दे वक्ष्यते) अत्र प्रायश्चित्तम् "उम्मीसे अणंतेचउगुरुपच्छिते चउलहु मीसुम्मीसे अणतेमासगुरुपरिते मासलहु उरहे युष्मद् (यूयम्) जस्- यूयवयौ- जसि / इति यूयादेशः / डे प्रथमयोरम् इति जसोऽमादेशः / पा० व्या०।भे तुब्भेउज्झे तुम्हे तुम्हे लित्ते चउसुठाणेसुजे तिणि तेसुसट्टाणपच्छितं"पं० चू०। "प्राबल्येन उरहे जसा ||31|| इति जसा सहितस्य युष्मच्छब्दस्य उरहे मिश्रे वस्तुमात्रे, त्रि० / आव०।""कम्मुम्भीसगा सरीरा, कार्मणेन आदेशः / प्रा०1"उय्हेचिट्ठह" प्रश्न० शरीरेणान्मिश्राणि / स्था० 4 ठा०। उम्मीलणा स्त्री०(उन्मीलना) प्रभवे, विशे०। *युष्मान् युष्मद्शस्।वो तुम्मे उज्झे तुम्हे उय्हे भेशसा" ||363|| इति शसा सहितस्ययुष्मच्छब्दस्य उय्हे आदेश 'उय्हे पेच्छामि' प्रा० / / उन्मीलिय त्रि०(उन्मीलित) उद्-मील-त-प्रादेर्मीलेः॥८॥४॥३१॥ | उर पुं० न०(उरस) -असुन धातोरुचरपरः / स्नमदामशिरोः नमः इति उदः परस्य मीलेरन्त्यस्य द्वित्वाभावे रूपम्।प्रा०।उन्मेषे, विपा० // 61 / 3 / / इति उरः पुंल्लिङ्गत्त्वम्। प्रा० / वक्षसि, स्था० 10 ठा०। 1 श्रु०७ अ० | "पंजरुम्मिलियव्वमणिकण-गथूमियागा" हृदये, प्रश्न०२ द्वा०। अष्टानामङ्गानां द्वितीयेऽङ्गे। "सीसमुरोयरपिट्टि' पञ्जरादुन्मीलित इव बहिष्कृता इव पञ्जरोन्मीलिताः / रा०। आ०चू०२अ० / उत्त० / नि० चू० / प्रज्ञा ०1"उरे वित्थडाए" उन्मीलितमुन्मिषितं स्मितमुन्निद्रमित्यादिपर्यायाः। विशे०। अर्द्धमागध्या भाषया उरसि, विस्तृततया उरसो विस्तीर्णत्वात्। औ०। उम्मुक्क त्रि०(उन्मुक्त) उद्-मुच्-क्त-ऊर्द्धक्षिप्ते, औ० परित्यक्ते, "उरसि दलावेइ" उरसि दापयति / विपा०।"उरेणरिसभं सरं"। विशे० / / "उमुक्कमणुम्मुक्के, उम्मुच्चते य केसलंकारे" आ०म० द्वि०। स्था०७ ठा०। शोभने, स्था०४ ठान प्राबल्येन मुक्ते, "ते वीरा बंधणुम्मुक्का नावकंखंति जीवियं" सूत्र०१ उरंउर न०(उरउरस्) साक्षच्छब्दार्थे "चाउरंगिणं पि उरंउरे गिण्हित्तए" श्रु०६ अ०। वि०३ अ०। उम्मुक्ककम्मकवय पुं०(उन्मुक्तकर्मकवच) सकलकर्मवियुक्तत्वा-- उरकडगन०(उरःकटक) उरो हृदयं तदेव कटकमुरः कटकम्। उरोरूपे सिद्धे, औ०। कटके, अनु०॥ उम्मुक्कबालभाव पुं०स्त्री (उन्मुक्तबालभाव) त्यक्तबाल्ये जाताष्ट-वर्षे , उरगपुं०स्त्री(उरग) उरसा गच्छति उरस्-म्-डासलोपश्च सर्प, अष्ट० / सेवियणं दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णयपरिणायमेत्ते कर्म०। "उरगगिरिजलणसागर-नहतलतरुगणसमो अ जोहोइ / उम्मुयणा स्त्री०(उन्मोचना) परिशातनायाम, आव०५ अ०। भमरमियधरणिजलरुह-रविपवणसमो अ सो समणो'" अनु० / उम्मूलणा स्त्री०(उन्मूलना) उत्पाटने, "उम्मूलणा सरीराओ" उरगवर पुं०(उरगवर) नागवरे, ज्ञा०१६ अ०।। वृक्षस्योन्मूलनेवोन्मूलना निष्काशनं जीवस्य शरीरादेहादिति द्वितिया उरगवीहि स्त्री०(उरगवीथी) उरगसंज्ञका वीथी उरगवीथी / सुक्रा-- गौणी हिंसा / प्रश्न०१ द्वा०॥ देरुरगसंज्ञेऽक्षभागे, स्था०१० ठा०(वीहीशब्दे स्पष्टम्) उम्मेस पुं०(उन्मेष) उद्- मिष् -घञ् -अक्षिव्यापारविशेषे, | उरच्छंद पुं०(उरश्छन्द) कवचे, हैम०। "आगमणगमणभासुम्मेसमणजोगकायजोगा जेयावण्णे तहप्पगारा उरत्थ त्रि०(उरःस्थ) हृदयस्थिते," उरत्थदीणारमालवीरइए णं" चलसभावा सव्वे ते" भ०१३ श०४ उ०) कल्प०॥ उम्ह(ण) त्रि०[उ(ऊ)ष्मन] उष्- आधारे-मनिन्-वाऽहस्वः। | उरतव न०(उरस्तपस्) क०स० इह लोकाद्याशंशारहितत्वेन पक्षश्मष्मस्नह्नांम्हः / / 8 / 274|| इति ष्मभागस्य मकाराक्रान्तो हः सोभनेआजीवकतपोभेदे, स्था०४ ठा०। प्रा० / गीमतों , कर्तरिमनिन् / आतपे, शषसहवणेषु, वाच० // उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियःपुं०(उरः परि सर्पस्थल

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