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आत्म-कथा ऐसा क्षुद्र जीवन अगर महान न बन सके पर कुछ कहनेलायक बन सके तो उससे पाठकों को काफ़ी सामग्री मिल सकती है।
जीवन की छोटी छोटी घटनाएँ कैसे जीवन-धारा बदल देती हैं इस विषय की मनोवैज्ञानिक सामग्री तथा अन्य सामग्री भी इस आत्मकथा से थोड़े बहुत अंशों में मिल सकेगी इसलिये भी इस आत्मकथा को लिखने की इच्छा हो गई । कुछ दिन तक तो वह डायरी में ही रही अब वह पाठकों को सुनाई जा रही है ।
(१)शैशव झागरी [सागर सी. पी.] नामक एक छोटे से खेड़े में-जहां न रेल है न पक्की सड़क, न पुलिस का थाना न कोई स्कूल-एक परवार जैन कुटुम्ब रहता था । उसमें चार भाई थे । खाने पीने से खुश थे । कुछ साहुकारी थी इसलिये वह कुटुम्ब कुछ श्रीमान भी गिना जाता था । उनमें एक भाई का नाम था रामलाल । ये ही मेरे पितामह थे । इनके एक ही सन्तान थी जिसका नाम था नन्हलाल। ये ही मेरे पिता जी थे । रामलाल जीके देहान्त होने पर साहुकारी डूबगई और इक-दम गरीबी आ गई । इस प्रकार मेरे पिताजी जन्म से गरीब रहे । उनका जन्म वि. सं. १९२५ का था। उनदिनों नगरों में भी शिक्षण का प्रवन्ध नहीं था फिर उस खेड़े में क्या होता ? इसलिये पिताजी बिलकुल नहीं पढ़ सके । वे एक अक्षर भी नहीं लिख सकते थे। सिर्फ तेतीस तक गिनती आती थी। इसी वलपर वे अपना हिसाब किताब चलाया करते थे। जब मेरे पितामह · का देहान्त हुआ तब पिताजी की उम्र आठ वर्ष की थी । पैसा