Book Title: Tulsi Prajna 1995 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी प्रज्ञा TULSI PRAJÑA Jain Vishva Bharati Institute Research Journal अनुसंधान-त्रैमासिकी पूर्णाङ्क-९३ जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय), लाडनूं-३४१३०६ Jain Vishva-bharati Institute, Ladnun-341306 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसो प्रज्ञा TULSI PRAJNA पूर्णाङ्क-९३ अमुसंधान-त्रैमासिकी Research Quarterly JAIN VISHVA-BHARATI INSTITUTE RESEARCH JOURNAL Jain Vishva-bharati Institute, (Deemed University), Ladnun-341 306 (Raj.) INDIA Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI April-June, 1995 मूल्य : बीस रुपये The views expressed and facts stated in this journal are those of the writers. It is not necessary that the institute agree with them. Editorial enquiries may be addressed to: The Editor, Tulsi Prajñā, JVBI Research Journal, Ladnun-341 306. Published by Parmeshwar Solanki for Jain Vishva-bharati Institute, Deemed University, Ladnun-341 306 and printed by him at Jain Vishva-bharati Press, Ladnun-341 306. Published on 12.7.95 No. 1 Editor Dr. Parmeshwar Solanki Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका/Contents १. कुन्द-कुन्द की दृष्टि में आगम का स्वरूप __ नंदलाल जैन २. ज्ञान स्वरूप विमर्श समणी मंगलप्रज्ञा ३. जैन तथा सांख्य दर्शनों में संज्ञान निर्मल कुमार तिवारी ४. 'भगवती' में सृष्टि तत्त्व-पंचास्तिकाय समणी चैतन्यप्रज्ञा ५. दसवैकालिक और धम्मपद में भिक्षु साध्वी संचितयशा ६. 'तस्मान्न बध्यते'–एक विवेचन श्रीमती विजयरानी ७. शांति-शिक्षा का स्वरूप और विकास बच्छरान दूगड़ ८. 'उत्तर रामचरित' का सामाजिक चिन्तन दिनेश चन्द्र चौबीसा ९. दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोधी आन्दोलन अनिल धर १०. प्रकीर्णकम् १. 'रत्नपालचरित' में अलंकार सौन्दर्य २. 'जयोदय महाकाव्य' में प्रतिबिम्बित अद्यतन इतिहास ३. ऋतं च सत्यं च ४. प्राकृत के बिना संस्कृत पंगु है । ५. बंगदेश में जैनधर्म का प्रारम्भ English Section 11. Gandhi's Approach to Communalism Devavrat N. Pathak 12.Communalism And Women Anil Dutta Mishra 13. Jain Conception of Reality Bhagchandra Jain 14. The Vital Force Parmeshwar Solanki १०३ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्द-कुन्द की दृष्टि में आगम का स्वरूप D] डॉ० नंदलाल जैन कुन्द-कुन्द के ग्रन्थों को परमागम कहा जाता है। इसे समझने के लिये उनकी दृष्टि में आगम का क्या अर्थ था, यह जानना और परखना आवश्यक है। उन्होंने अपने ग्रन्थों में आगम के लिए विविध शब्दों का उपयोग किया है-स्वसमय, शास्त्र, जिनोपदेश, जिनशासन, केवलवचन, जिनमार्ग, वीरशासन, जिनसमाख्यात, जिनकथन, केवलीशासन, श्रुत, सूत्र आदि । अनुयोगद्वारसूत्र और तत्वार्थसूत्रभाष्य' आदि में आगम या श्रृत के चौदह समानार्थी शब्दों का उल्लेख आया है जिन्हें दो श्रेणियों में निरूपित किया जा सकता है : १. श्रुत, सूत्र, उपदेश, आगम, शासन, जिनवचन, आप्तवचन, आज्ञा, शास्त्र २.ऐतिह्य, आम्नाय, प्रज्ञापना. सिद्धांत. ग्रन्थ यह स्पष्ट है कि इनमें कुन्दकुन्द के पर्यायवाची प्रथम कोटि में आते हैं। इनके विषय में यह धारणा सही लगती है कि प्रारम्भ में ये शब्द व्युत्पत्तिपरक थे पर उत्तरकाल में इनमें से अनेक परम्परासूचक हो गये । ये सभी शब्द आगम की परिभाषा को विविध दष्टिकोणों से निरूपित करते है । कुन्दकुन्द ने आगमों के लिये "स्वसमय"२ शब्द भी प्रयुक्त किया है जो अपूर्व है । यदि समय का अर्थ "आत्मा" लिया जाये, तो आत्मज्ञान-परकता को आगम की विशेषता बताकर उन्होंने आगम के तत्व को सही रूप में प्रकट किया है । "आगम" की "समय-परकता' स्वीकृत होने पर अनेक समस्याएं स्वयमेव समाप्त हो जाती हैं । आगम का अर्थ आगम के अनेक पर्यायवाची शब्दों का व्यावहारिक अर्थ लेना ही उपयुक्त होगा। प्रवचनसार' में कहा है कि आगम से अर्थ का निश्चय होता है, स्व और पर का ज्ञान होता है, तत्वों में श्रद्धा जागती है, संयम में प्रवृत्ति होती है, मूर्छा नष्ट होती है, एवं तदनुसारी आचरण से कर्मक्षय शीघ्रतर होता है । “आगम' शब्द गम ज्ञाने धातु में आ प्रत्यय से बनता है। इसका अर्थ चहुं ओर का, सभी प्रकार या परम्पराओं का निश्चित या यथार्थ ज्ञान होता है। इसमें परम्परागत और वर्तमान-दोनों ज्ञान कोटियां समाहित होती है। आगम की महत्ता को प्रकट करते हुए कुंदकुंद ने बताया है कि चक्षु तीन प्रकार के होते हैं- इन्द्रिय चक्षु, अनिद्रिय चक्षु और आगमचक्षु । साधु का ज्ञान आगमचाक्षुष खंड २१, अंक १ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है। इससे स्पष्ट है कि साधु का ज्ञान वर्तमान विषयपरक न होकर आत्मपरक होता है। कुंदकुंद ने कहा भी है --सुदेणाभिगच्छदि अप्पाणं ।' कुंदकुंद की इस दृष्टि की अपूर्वता की अनेक विद्वानों ने प्रशंसा की है और यह उनके आगम-विवरण में झलकती है । यह श्रमणदृष्टि है । हां, सामान्य जन के लिये परिवर्तनशील वर्तमान विश्व के ज्ञान के लिये इन्द्रियचक्षु आवश्यक माने जाते हैं। अन्यथा, प्रत्यक्षादि प्रमाणों का अर्थज्ञान में कोई उपयोग ही नहीं हो सकेगा। इसीलिये कुंदकुंद ने कहा है कि ज्ञान प्राप्ति के दो उपाय हैं । (१) जिनागम और (२) प्रत्यक्षादि प्रमाण । यह स्पष्ट है कि आगम का कुंदकुंदीय प्रवचनसारगत अर्थ अध्यात्म प्रधान है । आगम के अन्य पर्यायवाचियों में "श्रुत'' का महत्वपूर्ण स्थान है। वस्तुतः आचार्य महाप्रज्ञ' का मत है कि श्रुत शब्द "आगम' शब्द से अधिक प्राचीन है। आगम को श्रुत के एक अंग के रूप में ही माना जाता है । यह शब्द वैदिक श्रुति की अनुकृति का आभास देता है । आगम के समान श्रुत शब्द भी व्युत्पत्तिपरक और परम्परा सूचक है। प्रारम्भ में श्रुत का अर्थ गुरु-शिष्य परम्परा के आधार पर ज्ञान का मौखिक शिक्षणपठन, संरक्षण एवं संप्रसारण रहा है । ग्रंथ लेखन की प्रक्रिया तो पर्याप्त उत्तरवर्ती चरण है। अब यह अर्थ अधिक व्यापक हो गया है और इसके अन्तर्गत वाचनिक या लिखित श्रुत के अतिरिक्त अवाचनिक एवं संकेत आधारित ज्ञान एवं ज्ञानोत्पादी साधन भी समाहित होते हैं । फिर भी, परम्परा की दृष्टि से श्रुत शब्द का अर्थ सम्यक्, असाधारण एवं जीवन पक्ष को उन्नत करने वाला अलौकिक ज्ञान, नियम या शासन माना जाता है । आप्टे ने भी इसे 'पवित्र शिक्षा शास्त्र' माना है । भौतिक जगत् के ज्ञान से सम्बन्धित श्रुत को लौकिक, पाप, मिथ्याश्रुत कहते हैं । मूलाचार और षट्खंडागम में श्रुत के तीन भेद बताये हैं। लौकिक, वैदिक और सामयिक । चूंकि कुंदकुंद अध्यात्मवादी हैं, अतः इनके ग्रन्थों में केवल सामयिक (जैन) श्रुत का ही निरूपण है । जैन संस्कृति के प्रतिष्ठापन-युग में पर-समयी श्रुतों पर मौन अनुचित नहीं कहा जा सकता । लगता है, कुंदकुंद के समय में "श्रुत" और आगम'' एकार्थी हो गये थे, पर श्रुत का वर्तमान परम्परागत (अंगप्रविष्ट, अंगबाह्य) विभाजन नहीं हुआ था। फिर भी, व्यावहारिक दृष्टि से यह माना जाता है कि "आगम' तो अविसंवादी ही होता है, पर श्रुत में यह अनिवार्यता नहीं है । इसी आधार पर अकलंक और सिद्धसेन ने श्रुत को (१) आगमिक और (२) हेतुवादी बताया है जो प्रवचनसार के अनुरूप है। ऐसा प्रतीत होता है कि कुंदकुंद युग के प्रारम्भ में आगम की यही युक्ति या व्युत्पत्तिमूलक परिभाषा रही होगी। यही कारण है कि उन्होंने सम्यक् ज्ञानी को अंग-पूर्व श्रुत के प्रति अनिच्छ होने का संकेत दिया है। इससे यह अनुमान लगता है कि "पबित्र पुस्तकों" के रूप में आगम मान्यता की परम्परा कुंदकुंदोतर-कालीन है । समयसार के पूर्व के ग्रन्थों में तो अंगपूर्व का नाम भी नहीं पाया जाता। बोध पाहुड़ भी समय सारोत्तर कालीन रचना होनी चाहिये । परम्परागत रूप से आचार्य ने नियमसार में श्रुत शब्द का प्रयोग आगमरूप में किया है। इसका अर्थ है–निर्दोष एवं सर्वज्ञ व्यक्तियों के अविसंवादी उपदेश । वीर तुलसी प्रज्ञा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेन ने भी धवला में तर्कातीत एवं इंद्रियातीत तत्त्वों के प्रवचनों को श्रुत कहा है। वादिदेवसूरि ने भी आप्तोपदेश या तन्मूलक तत्वज्ञान को श्रुत कहा है । निश्चयनय से सर्वज्ञ ही आत्मा को यथार्थ एवं पूर्ण रूप से जानता है। अतः श्रुत पूर्णतः आत्मा या अध्यात्म प्रधान है । इसके विपर्यास में, भगवती टीका, मलयगिरि टीका एवं पूर्ण ज्ञान रत्नाकरावतारिका में श्रुत का अर्थ परम्परागत उपदेश एवं तत्वार्थ विषयक यथार्थ एवं पूर्ण ज्ञान के साधन के रूप में माना है। इन परिभाषाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि श्रुत-परिभाषा में, आप्त-प्रणीतता मुख्यतः दिगम्बर ग्रन्थों में पाई जाती है। संभवतः इसका सूत्रपात कुंदकुंद ने ही किया हैं । हां, न्याय युग ने अवश्य आप्त की परिभाषा "अविसंवादी वक्ता के रूप में व्यक्त की। पर यहां भी आप्तज्ञान को सर्वज्ञता के रूप में वहिर्वेशित करने से न्याययग में इस धारणा को प्रतिष्ठापित करने हेतु जैन ताकिकों को विभिन्न दार्शनिकों के तर्कबाणों से विद्ध होना पड़ा। साथ ही, इस धारणा से श्रुत की प्रामाणिकता की मान्यता में संक्षारण भी हुआ जो अब तक जारी है । ऐसा प्रतीत होता है कि न्याय युग में श्रुत की परिभाषा अधिक तर्कसंगत और व्यापक हुई । तत्व ज्ञान के लिए आगम के अतिरिक्त, लौकिक या अलौकिक प्रत्यक्ष निरीक्षण को भी प्रामाणिक माना जाने लगा। मेरा विश्वास है कि यदि अकलंक की श्रुत परिभाषा का अनुसरण किया जाता तो हम तर्क, श्रद्धा और वैज्ञानिक दृष्टिकोणों में समन्वय बनाकर तत्वज्ञान के क्षेत्र में अपनी श्रेष्ठता बनाये रखते और अन्धविश्वासी अनुसरण की हानियों से बच सकते थे। शास्त्र और सूत्र शब्द भी आगम के लिये प्रयुक्त होते हैं। परम्परागत रूप से गणधरकथित या आरातीय रचित उपदेशों से इन्हें परिभाषित किया गया है पर व्युत्पत्तिपरक व्याख्या अधिक तर्कसंगत लगती है। शास्त्र आध्यात्मिक शासन और संरक्षण का प्रतीक है जबकि सूत्र संक्षिप्त या सूक्ष्म रूप कथनों के प्रतीक हैं जो व्यक्ति या समाज को एकसूत्रता में पिरोये। कुंदकुंद के ग्रन्थों के विषय एवं लेखन-रूप आगम मुख्यतः जिनोपदेश है । कुन्दकुन्द ने इन उपदेशों को अपने ग्रन्थों में पंच अस्तिकाय, षद्रव्य, नव पदार्थ के रूप में निरूपित कर अन्तरंग और बहिरंग के वर्णन से आत्मनिष्ठता को प्रतिष्ठित किया है। अनार्य को तत्व समझाने के लिए अनार्य भाषा की उपयोगिता के उदाहरण से उन्होंने व्यवहार को निश्चय के समान मान्यता दी है । उन्होंने शुभ और शुद्ध शब्दों के उपयोग से जहां वैचारिक सूक्ष्मता का परिचय दिया, वहीं सामान्यजन को विशुद्ध आत्माभिमुखी बनाने के उद्देश्य से जगत् की निः सारता भी प्रकट की । विद्वानों का मत है कि षट्खंडागम और कषाय प्राभूत ग्रन्थ दिगम्बरों की दो धाराओं को निरूपित करते हैं। कुंदकुंद कषायप्राभत परम्परा के प्रकाशक हैं। उनके ग्रन्थों के सामान्य अध्ययन से उनके लेखन के तीन रूप प्रकट होते १. प्रवचनसार और पंचास्तिकाय का स्तर मृदु है और आधुनिक परम्परा जैसा है। वह समन्वयवादी है । खण्ड २१, अंक १ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. संमयसार का स्वर किंचित् कठोर है। उसमें स्वपरभेद - विज्ञानी निश्चय की वास्तविक उपयोगिता बताते हुए व्यवहार जगत् की एक प्रकार से भर्त्सना - सी की है। इस रचना पर तत्कालीन ब्रह्मवाद या अद्वैतवाद एवं गीता के प्रभाव का स्पष्ट भान होता है । इसीलिए यह ग्रन्थ संभवत: तब तक अज्ञातसा बना रहा जब तक शंकर का अद्वैती नाद गुंजित नहीं हुआ । ३. अष्टपाहुड़ व्यबहार जगत् को आदर्श अध्यात्ममुखी बनाने के लिए शासन ग्रंथ है । । इनमें उनके आगमिक, अध्यात्ममुखी एवं आचार्यत्व के रूप प्रकट होते हैं। उनके विचारों के विकासक्रम का अनुमान लगता है । आगमों के सकारात्मक सरल निर्देशों को आचार्य ने चेतावनी परक निर्देशों में परिणत किया फिर भी, यह आश्चर्य ही लगता है कि महावीर - निर्वाण से सात सौ वर्षों में ही ऐसे शासन ग्रन्थों की रचना करनी पड़ी। इससे तो महावीर के उपदेशों की स्थायी प्रभावशीलता की धारणा ही पुनर्विचार की सीमा में आ जाती है। [इसीलिए हमारा अनुरोध है कि कालगणना पर पुनर्विचार जरूरी है । सं०] कुंदकुंद के ग्रन्थों की विविधरूपता एवं विविध विषयता के बाबजूद भी उन्होंने निश्चय और व्यवहार की चर्चा के समय आगमों के वास्तविक स्वरूप के विषय में महत्त्वपूर्ण बातें कहीं हैं । प्रवचनसार और समयसार में उन्होंने कहा है कि श्रुत से आत्म ज्ञान प्राप्त होता है । इसका तात्पर्य यह है कि श्रुत का परमार्थ विषय तो अध्यात्म है । इसी आधार पर आत्मज्ञ ही सर्वज्ञ होता है । इसका दूसरा अर्थ यह है कि आप्तोपदिष्ट आगम मात्र आत्मज्ञान के साधन हैं। उन्हें अन्य तत्वज्ञता के वास्तविक साधन नहीं मानना चाहिये । आत्मा के अतिरिक्त अन्य सभी चीजें "पर" हैं, अत: सर्वज्ञ का पर विषयक ज्ञान आगम का विषय नहीं है । यह आगमों में प्रासंगिक रूप में संभवत: सर्वज्ञता की प्रतिष्ठा के लिए आया है । इसकी प्रामाणिकता की परीक्षा हेतुवाद एवं प्रत्यक्षादि प्रमाणों से करनी चाहिये । कुंदकुंद को, आगम की यह वास्तविकता हमारे बड़े काम की है । यह परिभाषा वैज्ञानिक दृष्टि को निरूपित करती है | सन्मति तर्क में भी यही बताया गया है कि हेतुवाद से सिद्ध न हो सके, वह आगम विषय है । उपाध्याय अमर मुनि, स्वामी सत्यभक्त एवं जैन" ने इस दृष्टिकोण का ही समर्थन किया है और सुझाया है कि संगीति द्वारा वर्तमान आगम तुल्य ग्रन्थों की परमार्थता प्रतिष्ठित की जानी चाहिए । आगमों की प्रामाणिकता एवं मूल आचारता यह सुज्ञात है कि "जिन" या आप्त की परिभाषा सम्प्रदायातीत होने पर भी रूढ़ तो है ही, फिर भी, उनके वचनों की प्रामाणिकता या स्वीकार्यता के लिये कुंदकुंद ने तीन आधार बताये हैं । इनका अनुसरण उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी किया है । प्रवचनसार" में "पुग्गलदव्वपागेहि वयणेहि जिणोवदिट्ठ सुत्तं" तो अवश्य कहा है पर आज हमारे समक्ष उपलब्ध आगम तुल्य ग्रन्थ उनके उपदेशों के गणधर - ग्रंथित या तुलसी प्रज्ञा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरातीय आचार्यप्रणीत सार-मात्र हैं । इस सार की प्रामाणिकता केवली, श्रुत केवली जिनवर कथित, निर्दिष्ट आदि पदों से सूचित की गई है। उनकी वाणी की प्रामाणिकता के तीन तर्कसंगत आधार निम्न है।५ । १. आप्त या जिन को क्षुधा तृषादि अठारह दोषों से रहित होना चाहिये। मालवणिया के अनुसार यह नामावली दिगम्बर-परम्परा के ही अनुकूल है। २. आप्त को निर्दोषता के साथ केवल ज्ञान के परम विभव से युक्त भी होना चाहिये। ३. आप्त के वचनों में पूर्वापर-दोष-विरहितता (युक्ति शास्त्राविरोधिता, संभवबाधक प्रमाणाभावता) या अविसंवादिता होना चाहिये । यद्यपि ये तीनों आधार आप्त-पक्ष के हैं पर इनमें तीसरा आधार श्रोतापक्ष पर भी लाग होता है । नियमसार में बताया गया है कि यदि वचनों में अविसंवादिता न पाई जावे, तो शास्त्रों की विसंवादिता दूर कर लेना चाहिए। इससे श्रोता का एक गुण तो पता चलता है कि उसे भी शास्त्र-ज्ञान होना चाहिए । नहीं तो वह मूल्यांकन कैसे करेगा ? इसीलिए कुंदकुंद ने श्रोता के लिए "सत्यम् समधिदव्वं" कहा है । उसे शास्त्र पढ़ना ही न चाहिए अपितु सम्यक् रूप से समीक्षापूर्वक पढ़ना चाहिए । यह उत्तराध्ययन के “पण्णा समिक्खए धम्म' का ही एक रूप है । यही नहीं, कुंदकुंद युग में "शास्त्राविरोधिता" ही अधिक मान्य थी पर न्याय युग में युक्ति-अविरोधिता भी इसमें समाहित हो गई । अतः श्रोता को युक्ति-प्रवीण भी होना चाहिए । न्याय युग में श्रद्धा के साथ बुद्धि का समन्वय कर आचार्यों ने आगम की प्रामाणिकता के मूल्यांकन का बहुतेरा भार श्रोता पर छोड़ दिया। फिर भी, समंतभद्र ने सावधान किया है कि यदि वक्ता अनाप्त या कषाय कलुषित हो, तो तत्वसिद्धि आगम से ही करनी चाहिए । अत: आगम को इन्द्रिय और मन का चक्षुओं की अधिक सूक्ष्मता, तीक्ष्णता एवं यथार्थता का प्रेरक तो माना ही जा सकता है। इसीलिए अकलंक ने श्रुतज्ञान को तीन प्रकार से संभव माना है : (१) प्रत्यक्ष निरीक्षण (२) अनुमान (३) आगम उत्तरकाल में जैनवातिककार ने प्रथम दो कोटियों को एकीकृत कर श्रुत के दो ही स्रोत कर दिए हैं—आगमिक एवं हेतुवादी। यह कुंदकुंद के प्रवचनसार की गाथा ८६ के अनुरूप है। ___ मुझे ऐसा लगता है कि प्रारम्भ मे कुंदकुंद ने आगमिक एवं हेतुवादी-दोनों पक्षों को स्वीकृत कर ही प्रवचनसार की रचना की होगी। उन्होंने पंच परमेष्ठियों को विभिन्न नामों से सम्बोधित कर वंदित किया है और शास्त्रीय मत की पुष्टि में लौकिक उपमानों एवं तर्कों के माध्यम से अपना विवरण दिया है। नियमसार गाथा ७१-७५ में दिए गए पंच परमेष्ठियों के प्रचलित नामों से ऐसा लगता है कि णमोकार मंत्र की वर्तमान पदरचना कुंदकुंद के समय में प्रवचन एवं नियमसार की रचना के मध्यवर्ती काल में हुई होगी। खंड २१, बंक १ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों की प्रामाणिकता के लिए कुंदकुंद के उपर्युक्त आधार (तथा युक्ति आधार) आधुनिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है । यदि इन आधारों के अनुसार, आज प्रवृत्ति की जाये, तो बीसवीं सदी में उठने वाले अनेक ऊहापोह एवं आस्था संक्षारण पर्याप्त मात्रा में शांत हो जावें । इसी दृष्टि से यह बात महत्वपूर्ण हो जाती है कि जब दिगम्बर-परम्परा में मूल आगम लुप्त मान लिए गए हैं, तब कुंदकुंद या अन्य आचार्यों के ग्रन्थों को “आगम" या "परमागम' कहना कितना तर्कसंगत है ? इसके लिए "आगम तुल्य' या "उप-आगम'' (प्रो-केनन, उपाध्ये) पदों का उपयोग अधिक सार्थक होगा। आगम शब्द "आप्तवचन" तथा "परमागम" शब्द सर्वज्ञ वचन के लिए ही प्रयोग किया जावे, तो अच्छा रहेगा। (नई पीढ़ी इस प्रकार की मनोवैज्ञानिक प्रवंचना समझने में सक्षम है । भूतकाल में नाम, ग्रंथ नाम, परम्परा व्याख्या आदि की समानता से अनेक भ्रम उत्पन्न हुए हैं जिनका समाधान हम अभी भी नहीं कर पा रहे हैं । कमसे-कम भ्रमों की संख्या तो न बढ़ावें । कुंदकुंद ने सांख्यों की मान्यताओं की विसंवादिता तर्कों से सिद्ध की है। फलत: तर्कवाद अविसंवादिता परखने की एक कसौटी है। प्राचीन युग में बौद्धिकता ही इसका प्रमुख आधार है, पर अब प्रत्यक्ष निरीक्षण, यांत्रिक निरीक्षण, गणितीय परिकलन आदि अनेक आधार इस युग में जुड़ गए हैं। इसलिए अब अविसंवादिता की परख और भी सूक्ष्मता एवं तीक्ष्णता से हो सकती है। यद्यपि अभी आत्मा नवयुगीन परीक्षण आधारों के क्षेत्र में पूर्णतः नहीं आ पाया है पर जीव, पुद्गल, आकाश, धर्म और अधर्म द्रव्य तो प्रायः पूर्ण परीक्ष्य कोटि में आ गये हैं । इनके शास्त्रीय गुणों की संगत परीक्षा के आधार पर आगमों की अविसंवादिता एवं प्रामाणिकता की परीक्षा की जा सकती है । ऐसी परीक्षा कुंदकुंद के मत के अनुरूप ही होगी। इस दृष्टि से कुंदकुंद साहित्य के कुछ प्रकरणों का परीक्षण करने पर निम्न सूचनाएं प्राप्त होती है : १. शब्दावली की विविधता :-कुंदकुंद के ग्रन्थों में द्रव्य और पदार्थ सम्बन्धी पारिभाषिक शब्दावली में विविधता पाई जाती है जैसे भूतार्थ, तत्वार्थ, पदार्थ, अर्थ, द्रव्य । एक ही आचार्य की कृति में एक ही वर्णन के लिए शब्दावली की विविधता अच्छा गुण नहीं माना चाहिए । इसे "विनेयाशयवशात्" कहकर भी उत्तरित नहीं किया जा सकता । यह विविधता विसंवादी होती है। २. द्रव्य की परिभाषा-कुंदकुंद के ग्रन्थों में द्रव्य की परिभाषा "गुणात्मकं द्रव्यं" से लेकर "स्वभाव-विभाव-पर्याय-प्रापकं द्रव्यं" तक पाई जाती है। इसे विचार विकास माना जावे या परिभाषा-संग्रह-क्षमता ? ३. स्कंध भेदों का क्रम : ---पंचास्तिकाय और नियमसार में स्कंध के भेदों के उत्तरोत्तर सूक्ष्मता पर आधारित विवरण में "स्थूल-सूक्ष्म" (प्रकाश, छायादि) एवं "सूक्ष्मस्थूल" (वायु, गंध आदि अचक्षु विषय) कोटियों के क्रम के विषय में “स्थौल्ये सति तदुपलब्धेः'' की धारणा को जैन और जैन ने प्रत्यक्षबाधित बताया है । वस्तु की अप्राप्यकारिता का प्रकरण भी इसी कोटि में है। ४. जलादि चार की सजीवता-इस विषय में उपाध्ये" ने समीक्षा की है कि इस तुलसी प्रज्ञा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारणा से जैनों की प्राचीनता ही सिद्ध की जा सकती है। इनकी सजीवता तो लगभग अविश्वसनीय है । ऐसा प्रतीत होता है कि जैनों ने वैदिक देवताओं को मध्यलोकी बना दिया। ५. जीवों में इंद्रियां--पंचास्तिकाय में कृमि, पिपीलिकादि की वर्णित इंद्रियों की मान्यता आधुनिक वैज्ञानिक परीक्षणों की दृष्टि से अपूर्ण लगती है । यंत्रपरीक्षा के चक्षुग्राह्यता से सूक्ष्मतर होने से कुछ नए तथ्य प्रकट हुए हैं। इससे शास्त्रीय विवरण विसंवाद की कोटि में आ गये हैं। जीवों के जन्म-संबन्धी विवरण भी इसी कोटि में हैं। ६. विवरण भिन्नता---कुंदकुंद के पूर्ववर्ती एवं उत्तरवर्ती साहित्य के अनेक विवरणों में भिन्नता पाई जाती है :----- १. बंध हेतु चार (उमास्वामी ५ बंध हेतु) २. आचार पांच (उमास्वामी ३ रत्न) ३. तत्व/पदार्थ नव, क्रम आगमिक (उमास्वामी ७ तत्व, क्रम मनोवैज्ञानिक) (औपपातिक १० पदार्थ) (उपासक दशा ११ पदार्थ) ७. विचारों के ऐतिहासिक विकास की दृष्टि--- शास्त्रीय अध्ययनों से ऐसा प्रतीत होता है कि अनेक जैन मान्यताएं विभिन्न विचार सरणियों को पार करते हुए कालचक्र में विकसित हुई हैं। दीक्षित ने इस विषय में अपने ग्रन्थ में उल्लेख किया है। इनमें में बहुतों का उल्लेख कुंदकुंद के ग्रन्थों में नहीं पाया जाता । ८. आध्यात्मिक विवरणों की आपतित विसंवादिता ---अनेक भौतिक विवरणों की तत्तद् युगीन एवं आधुनिक विसंवादिता के कारण इन ग्रन्थों के अनेक आध्यात्मिक विवरणों की प्रामाणिकता भी परीक्षणीयता के घेरे में आती जा रही है। इस प्रकार इन सूचनाओं की संख्या अगणित हो सकती है । इनसे यह स्पष्ट है कि इन विवरणों में अनेक प्रकार की विसंवाद की स्थिति आई है । इस स्थिति के रहते आगमों की कालिक प्रामाणिकता सदैव संदिग्ध रहेगी। इसलिए इन्हें "श्रुतकेवली भणितं" कहना या मूलाधार मानना तर्कसंगत नहीं लगता। "उभावपि ग्राह्यो, सत्यं किमिति सर्वज्ञ एव जानाति" की दसवीं सदी की धारणा भी इस युग में संतोषप्रद नहीं लगती । इनकी प्रामाणिकता को स्थिर रखने के लिए अनेक विद्वानों ने विचार किया है और कुछ सुझाव दिए हैं। विद्वत् जन इन पर विचार कर नई पीढ़ी को मार्गदर्शन दें, यही इस शोध पत्र का उद्देश्य है। यह माना जाता है कि १ ज्ञान अनन्त है एवं सतत प्रवाहशील वर्धमान है। यहां प्रवाहशीलता की धारणा व्यावहारिक है, यह सर्वज्ञता की सामान्य धारणा से मेल नहीं खाती। हां, यदि सर्वज्ञता की परिभाषा कुंदकुंद की आत्मज्ञता के रूप में मानी जावे तो निश्चित रूप में आत्मज्ञान अपरिवर्तनीय एवं स्थिर है, अनंत है। यह धारणा परिवर्तनशील विश्व पर लागू नहीं होती। बड २१,पंक १ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रवाहशीलता ऋमिक एवं विकासोन्मुखी होती है। ३. आगम या उपागम ग्रन्थों को हमें ज्ञानविकास की ऐतिहासिक दृष्टि से मान्यता देनी चाहिए । इन्हें "श्रुत केवलि भणितं" की परम्परा के बदले तत्तत् युगीन ज्ञात ज्ञान/अनुभव के अभिलेखों के रूप में मानें। इस आधार पर हम विभिन्न युगों/ कालों में रचित ग्रन्थों के विवरण का तुलनात्मक आधार पर अध्ययन कर अपने बौद्धिक, आध्यात्मिक या अन्य प्रकार के विकास का ज्ञान एवं मूल्यांकन कर सकते हैं । इससे अपने भविष्य के पथ को प्रशस्त भी कर सकते हैं। यहीं कुंदकुंद की नियमसारी गाथा १८४ हमारी मार्गदर्शक बन सकती है । कुंदकुंद समयसार में स्वयं कहते है..-जो मैं कह रहा हूं, वह अपने अनुभव ज्ञान/विभव से कह रहा हूं। यदि इसमें कोई अपूर्णता दिखे, तो उसे मेरा छल मत समझना, अपने अनुभव से उसे पूर्ण/सत्यापित कर लेना। ये वाक्य कुंदकुंद की वैज्ञानिक दृष्टि एवं प्रवृत्ति के प्रतीक हैं । बीसवीं सदी और उससे आगे की पीढ़ी कुंदकुंद के इसी सिद्धांत के अनुकरण की प्रतीक्षा में है। इससे ही हमारे उपागम व अन्य ग्रन्थ सदा काल-सापेक्ष प्रामाणिकता की कोटि में बने रहेंगे। आगम और आगम प्रमाण प्राचीन जैन शास्त्रों में ज्ञान की चर्चा पर्याप्त है, पर प्रमाणों की चर्चा सम्भवतः संकेत या संग्रह रूप में है । ज्ञान की सम्यकता की धारणा के लिए प्रमाण की चर्चा स्वाभाविक है । यद्यपि कुंदकुंद ने अपने ग्रन्थों में प्रमाण की चर्चा तो नहीं की है पर उन्होंने सम्यक्ज्ञान हेतु नियमसार में कहा है :२० ___ संसय-विमोह-विन्ध्रम-विवज्जियं होदि सण्णाणं । लेकिन उमास्वामी ने जान को ही प्रमाणशब्द से निरूपित कर जैन विद्याओं में प्रमाणवाद का समावेश किया एवं मति एवं श्रत (आगम) को परोक्ष प्रमाण माना । बाद में लौकिक समकक्षता हेतु अनुयोगद्वार और अकलंक ने इन्हें सांव्यवहारिक प्रत्यक्षता की मान्यता दी । फलतः इन्द्रिय ज्ञान और आगम ज्ञान भी प्रत्यक्ष माना जाता है । इसकी प्रत्यक्षता से ही इसकी प्रामाणिकता पुष्ट होती है। यह प्रत्यक्षता इन्द्रियदर्शन के अतिरिक्त अनिद्रिय दर्शन, यंत्र दर्शन एवं स्वानुभूति से होती है। कुंदकुंद के युग में विविध दर्शन आगम प्रमाण मानते थे, पर जैनों में इसका विशेष प्रचलन नहीं था। न्यायाचार्य के अनुसार, अपौरुषेयतामूलक वेद की प्रमाणिकता के स्थान पर जैनों ने सर्वज्ञ-पुरुष मूलक आगम की प्रामाणिकता की धारणा विकसित की और उपरोक्त तीन आधारों को उसकी कसौटी बनाया। इस प्रकार परीक्षा-प्रधानी मूल्यांकन पद्धति का विकास जैनों की अतिविशिष्टता है । वस्तुतः जैनों की दृष्टि से आगम या उपागम स्वत: प्रमाण नहीं है, उनकी प्रामाणिकता वक्ता एवं श्रोता के गुणों पर निर्भर करती है । इस दृष्टि से कुंदकुंद के ग्रंथों की आगम प्रमाणता पर विभिन्न आचारों से ऊहापोह अपेक्षित है । नंदीसूत्र में श्रुत की परख का एक और आधार भी बताया गया है-वह है--- दृष्टिकोण । सम्यक् दृष्टि के लिए पर-समय भी सम्यक्श्रुत है और तुलसी प्रज्ञा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यादृष्टि के लिए स्व-समय भी मिथ्याश्रुत है । इस प्रकार परख दृष्टि के कारण भी आगमों में प्रमाणता आती है । कुंदकुंद के संशय, विमोह, विभ्रम-रहितता के आचार के साथ दृष्टि परखता ने प्रामाणिकता के आधारों को बलवत्तर बनाया है । ये आधार पूर्वापर-दोष रहितता के ही पुनः संस्करण हैं । यह परखदृष्टि कुंदकुंद द्वारा ज्ञान के क्षेत्र में महान योगदान है। उपसंहार उपरोक्त विवेचन से निम्न निष्कर्ष प्राप्त होते हैं : १. कुंदकुंद के अनुसार आगम का परमार्थ विषय अध्यात्म है । अपर विषय इसका प्रासंगिक रूप है। अध्यात्मवर्धन की प्रामाणिकता वक्ता और श्रोता के गुणों पर निर्भर करती है पर उसके अपर-विषय वर्णन की प्रामाणिकता हेतुवादी परीक्षा पर निर्भर करती है। २. कुंदकुंद महान् अध्यात्मविज्ञानी और वैज्ञानिक थे। उन्होंने पूर्वापर-दोष-रहितता के माध्यम से युक्तिशास्त्राविरोधिता एवं संभव-बाधक-प्रमाणाभावता के परीक्षण गुणों को अपने शास्त्रों में समाहित कर हमें स्वयं भी वैज्ञानिक पद्धति के अनुसरण की प्रेरण दी है। कुंदकुंद के अध्ययन के समय उनकी इस प्रेरक प्रेरणा का भी प्रचार करना चाहिए। ३. ऐतिहासिक दृष्टिकोण तथा अन्य शास्त्रीय विवरणों की संगतता के अभाव में कुंदकुंद के प्रति आस्था-विचलन किचित् स्वाभाविक है। अध्यात्म के प्रति आस्था को बलवती बनाने के लिए विसंगतियों की परीक्षा आवश्यक है। . सन्दर्भ १. (अ) आर्यरक्षित स्थविर, अनुयोगद्वार सूत्र, आगम प्रकाशन समिति, १९८७ पेज ३८-३९ (ब) उमास्वाति आचार्य, सभाष्य तत्वार्थाधिगम सूत्र, रायचन्द्र आश्रम, अगास, १९३२, पेज ४२ २. कुंदकुंदाचार्य, समयसार, अजिताश्रम, लखनऊ, १९३०, पेज २ ३. कुंदकुंदाचार्य, प्रवचनसार, पाटनी ग्रंथमाला, मारोठ, १९५०, पेज २८३-२९४ ४. देखो, संदर्भ २ पेज ८, संदर्भ, ३ पेज ३८ ५. देखो, संदर्भ ३, पेज ९७ ६. युवाचार्य महाप्रज्ञ , दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन, तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, १९६७, पेज ४-५ ७. आप्टे, व्ही० एस०, स्टूडेन्टस संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी, मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली १९८६, पेज ५६६ ८. बट्टकेर आचार्य, मूलाचार-१, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९८४. पेज १२३ ९. न्याया'चार्य, महेन्द्र कुमार, जैन दर्शन, वर्णी ग्रन्थमाला, काशी, १९६६, - पेज ३५४-५६ खण्ड २१, अंक १ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. देखो, संदर्भ २ पेज १२९ ११. कुंदकुंदाचार्य, नियमसार, अजिताश्रम, लखनऊ, १९३१ पेज, ४ १२. देवेन्द्र मुनि शास्त्री, आचारांग-१ (प्रस्ता०) आगम प्र० समिति, व्यावर, १९८० पेज २२ १३. (अ) अमर मुनि उपाध्याय, पण्णासमिक्खये धम्म-२, वीरायतन, राजगिर, १९८७ (ब) सत्यभक्त, स्वामी, सत्यामृत दृष्टिकांड, सत्याश्रम, वर्धा १९५१ (स) जैन एन० एल०, यूनिट्स आफ लेग्य इन जैन केनन्स, जैन जर्नल, कलकत्ता, १९८६, पेज ९४, १४. देखो, संदर्भ ३ पेज ३२ १५. देखो, संदर्भ ११ पेज ४७५ १६. जैन, ए० के०, तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं, १२-४-१९८७ पेज ४० जैन, ए० एल०, तुलसी प्रज्ञा, लाडनं, १९८२ पेज ५ १७. उपाध्ये, ए० एन० पंचास्तिकाय, अंग्रेजी टीका, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९७५, पेज ९८ १८. दीक्षित, के० के०, जैन आन्टोलोजी, एल० डी० इन्स्टीच्यूट अहमदाबाद, १९७१ १९. देखो संदर्भ २ पेज ४ २०. देखो, संदर्भ ११, पेज २९ २१. देववाचक, नंदीसूत्र आगम प्र० समिति व्यावर, १९८२ पेज १५५ -जैन केन्द्र, ८/६६२, बजरंगनगर रीवा-४८६००१ तुलसी प्रज्ञा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान स्वरूप विमर्श [समणी मंगलप्रज्ञा मानव-संस्कृति ज्ञान की उपासक रही है। द्रष्टा पुरुषों ने ज्ञान-संप्राप्ति के लिए अपने आपको सर्वात्मना समर्पित कर दिया। ज्ञान के प्रति समर्पण भाव ने अनेक अज्ञात रहस्यों का उद्घाटन किया। तत्त्व चिंतन का आधार ज्ञान-मीमांसा ही रही । तत्त्व-मीमांसा एवं ज्ञान-मीमांसा दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। ज्ञान-सिद्धांत ने सर्वदा तत्त्व-मीमांसा का अनुगमन किया है। वह उसका अंग बनकर रहा है। वस्तुतः तत्त्वमीमांसा का अध्ययन ज्ञान-सिद्धांत के अभाव में अपूर्ण है। तत्त्व-मीमांसा से ज्ञानमीमांसा को वियुक्त नहीं किया जा सकता। ज्ञान-मीमांसा तत्त्व-मीमांसा का आवश्यक अंग है । यथार्थ ज्ञान के द्वारा ही हम सत् के स्वरूप का निर्णय कर सकते हैं। ज्ञान-मीमांसा केवल दार्शनिक ज्ञान का ही नहीं वरन् समस्त ज्ञान मात्र का आधार है । ज्ञान के सम्बन्ध में उपस्थित होने वाले विभिन्न प्रश्नों की मीमांसा करना ज्ञान-मीमांसा का उद्देश्य है । ज्ञान-मीमांसा के बहुचर्चित विषय हैं-ज्ञाता का ज्ञेय से क्या सम्बन्ध है ? ज्ञान की सीमाएं क्या है ? ज्ञान के स्रोत क्या हैं ? हम कैसे जान सकते हैं कि हमारा ज्ञान वस्तु का यथार्थ ज्ञान है ? क्या ज्ञाता का ज्ञान संभव है ? ज्ञान क्या है ? इन विभिन्न प्रश्नों से ज्ञान-मीमांसा का विषय-क्षेत्र स्पष्ट हो सकता है। ज्ञान-मीमांसा की विषय सामग्री-ज्ञान की प्रक्रिया, उसके स्रोत, आलम्बन, लक्षण, प्रामाणिकता, अयथार्थता आदि हैं। इनका विवेचन ही ज्ञान-मीमांसा है। __भारतीय दर्शन मोक्षवादी है। उसकी सारी प्रवृत्ति-निवृत्ति का केन्द्र बिन्दु बंधन-मुक्ति की अवधारणा है। ज्ञान-स्वरूप-चिंतन में भी हमें इस अवधारणा का दर्शन होता है । मोक्ष तत्त्व में संलग्न धी/बुद्धि ज्ञान है और शिल्प शास्त्र में प्रवण बुद्धि विज्ञान है। चेतन और अचेतन के अन्यत्व का विज्ञान ही ज्ञान कहलाता है । योगशास्त्र में ज्ञान को परिभाषित करते हुए कहा गया-बुद्धि, मन, इन्द्रियां एवं व्यापी आत्मा का एकत्व ही सर्वोत्कृष्ट ज्ञान है। योगशास्त्र में इस ज्ञान को ही मोक्ष धर्म कहा गया है । साधना के क्षेत्र में ज्ञान की अवधारणा का स्वरूप मोक्ष प्राप्ति की ओर ले जाने के रूप में ही रहा है। ज्ञानवादी चिन्तकों ने तो यहां तक कहा-"ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः" । ज्ञान नहीं तो मुक्ति भी नहीं हो सकती । गीता कहती है-" नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। ज्ञान के समान इस संसार में अन्य कुछ भी पवित्र नहीं है' । ज्ञानयोग के विवेचन के सन्दर्भ में गीता में ज्ञान पर विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। वहां पर ज्ञानयज्ञ को ही परम तप कहा गया है। गीता में सात्त्विक, राजस एवं खण्ड २१, अंक १ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामस के भेदों से ज्ञान को तीन भागों में विभक्त किया गया है। पृथक्-पृथक् सर्वभूतों में जिसके द्वारा अविभक्त एक एवं अव्यय सत्ता देखी जाती है, वह सात्विक ज्ञान है ।' जो ज्ञान सर्वभूतों में पृथग्भूत नाना भावों को पृथक रूप में जानता है, वह ज्ञान राजस कहलाता है । जो देह, प्रतिमा आदि एक कार्य में परिपूर्ण की तरह आसक्त होता है । यही आत्मा है, यही ईश्वर है। ऐसा अभिनिवेश युक्त ज्ञान अयथार्थ, तुच्छ है । उसी को तामस ज्ञान कहा जाता है। भारतीय दर्शन ने आत्मज्ञान को मुख्य माना है । आत्मज्ञान के अभाव में अन्य ज्ञान संसार-परिभ्रमण के ही हेतु बनते हैं। आत्मज्ञान कैसे उत्पन्न होता है, उसका वर्णन करते हुए विष्णु पुराण में कहा गया-वैराग्य से ज्ञान उत्पन्न होता है। ज्ञान के फल का वर्णन करते हुए कहा गया-वैराग्य से ज्ञान उत्पन्न होता है। ज्ञान से योग परिवर्तित होता है। योगज्ञ पतित हो जाने पर भी मुक्त हो जाता है इसमें कोई संशय नहीं है । वायुपुराण में ज्ञान की विवेचना में कहा गया--ज्ञान प्रकृष्ट, अजन्य, अनवछिन्न एवं सर्वसाधक है । ज्ञान उत्तम, सत्य, अनन्त एवं ब्रह्म है।" ज्ञान नेत्र को ग्रहण करके जीव निष्कल, निर्मल, शांत हो जाता है । तब उसे यह स्मृति हो जाती है कि मैं ही ब्रह्म हूं।१२ ब्रह्म स्वरूप में प्रतिष्ठा ज्ञान के द्वारा ही हो सकती है । मोक्ष का एकमात्र कारण ज्ञान ही है। ज्ञान का प्रामुख्य अध्यात्म मीमांसा, तत्त्व-मीमांसा आदि में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है । जैन-दर्शन में भी ज्ञान को मोक्ष मार्ग के रूप में स्वीकार किया गया ।3 आचार-मीमांसा में कहा है कि --प्रथम ज्ञान एवं उसके बाद अहिंसा आदि का आचरण होता है।" आत्मा और ज्ञान में अभिन्नता भी जैन दर्शन में स्वीकार की गई है । जो आत्मा है, वह विज्ञाता है । जो विज्ञाता है, वही आत्मा है।५ उपर्युक्त विवेचना प्रमुख रूप से आत्मदर्शन के संदर्भ में हुई है। ज्ञान की स्वरूप मीमांसा तत्त्व-दर्शन के संदर्भ में भी हुई है और दार्शनिक युग में तो ज्ञान के तत्त्वदर्शनीय स्वरूप का ही विस्तार हुआ है । वर्तमान में ज्ञान-मीमांसा के क्षेत्र में इसी ज्ञान पर विचार-विमर्श किया जाता है। ज्ञान संवेदन, अधिगम, चेतन भाव, विद्या-ये परस्पर एकार्थक शब्द हैं।" इन शब्दों के द्वारा ज्ञान के स्वरूप का निरूपण हुआ है। नंदी चणि में ज्ञान की व्युत्पत्तिपरक परिभाषा उपलब्ध होती है। जिसके द्वारा जाना जाता है, वह ज्ञान है। यह परिभाषा करण साधन के आधार पर है। अधिकरण साधन के द्वारा ज्ञान को पारिभाषित करते हुए कहा गया जिसमें जानता है वह ज्ञान है।" भाव साधन में जानने मात्र को ज्ञान कहा गया है ।" करण साधन की स्पष्टता करते हुए कहा गया है कि क्षायोपशमिक एवं क्षायिक भाव के द्वारा जीवादि पदार्थों को जानना ज्ञान है ।" ज्ञान की ये परिभाषाएं वस्तुजगत् के साथ सम्बन्ध की द्योतक हैं। पाश्चात्य परम्परा पाश्चात्य दर्शन में ज्ञान-मीमांसा दर्शन की मुख्य शाखा के रूप में विकसित हुई है। इसमें ज्ञान पर बहुविध विचार हुआ है । सुकरात पूर्व के ग्रीक दर्शन में हम ज्ञानमीमांसा के स्वरूप का अवलोकन करते हैं तो ज्ञात होता है कि उनकी ज्ञान सम्बन्धी अवधारणा आत्मकेन्द्रित थी। प्रोटागोरस प्रथम सोफिस्ट हुए। उनके दर्शन का सार है १२ तुलसी प्रज्ञा Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव सब पदार्थों का मापदण्ड है। (Man is the measure of all things) उन्होंने मनुष्य को ही सर्वोत्कृष्ट माना है। इस विचारधारा से उनकी ज्ञान-मीमांसा भी प्रभावित हुई है। इलियाई मत के अनुसार इन्द्रिय तथा बुद्धि दोनों ही ज्ञान-प्राप्ति के साधन हैं। सत् का ज्ञान बुद्धि से तथा परिणाम का ज्ञान इन्द्रियों द्वारा होता है। इसके विपरीत हेराक्लाइटस के अनुसार परिणाम का ज्ञान बुद्धि द्वारा प्राप्त होता है। डिमाक्रिटस परमाणुओं का ज्ञान बुद्धि से तथा स्थूल वस्तुओं का ज्ञान इन्द्रियों से मानते हैं । प्रोटागोरस बुद्धि और इन्द्रिय के भेद का खण्डन करते हैं। उसके अनुसार मनुष्य सब पदाथों का मापदण्ड है । अतः वही सत्य है जो उसे सत्य प्रतीत होता है । सत्य तो व्यक्ति की संवेदना और अनुभूति तक ही सीमित है । अतः सत्य व्यक्तिगत है । वस्तुगत नहीं है ।२० ज्ञान के क्षेत्र में साफिस्ट लोगों ने एक बड़े ही विवादास्पद सिद्धांत का प्रतिपादन किया है । उनके अनुसार सत्य तो संवेदनाजन्य है। संवेदनाएं व्यक्तिगत होती हैं अतः सत्य आत्मकेन्द्रित है। सुकरात के दर्शन में ज्ञान विचार सबसे महत्त्वपूर्ण विचार है। ज्ञान के क्षेत्र में सुकरात का मत दो ज्ञान का सिद्धांत (Doctrine of two knowledge) कहलाता है। उनके अनुसार ज्ञान के दो रूप हैं - बाह्य और आंतरिक । बाह्य ज्ञान अस्पष्ट, संदिग्ध, इन्द्रियजन्य तथा लोक आधारित है। यह ज्ञान परिवर्तनशील है। आंतरिक ज्ञान तर्कसंगत एवं यथार्थ ज्ञान है । सुकरात ज्ञान को प्रत्ययात्मक जाति रूप मानते हैं। उसकी उत्पत्ति अनुभव से होती है। सुकरात के अनुसार ज्ञान सार्वजनिक तथा सार्वकालिक है । यह व्यक्ति का व्यक्तिगत अनुभव नहीं अपितु सभी व्यक्तियों का सत्य ज्ञान है। सुकरात साफिस्ट लोगों के ज्ञान सिद्धांत का निराकरण करते हैं। महात्मा सुकरात सामान्य ज्ञान को ही यथार्थ ज्ञान मानते हैं। वह प्रत्ययात्मक है।" ज्ञान प्रत्यय या जाति रूप होने से ज्ञान सार्वभौम और सामान्य बन जाता है। उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट होता है कि साफिस्ट वस्तु विशेष को ज्ञान मानते तथा इसके विपरीत सुकरात सामान्य को ही यथार्थ मानते हैं । जैन दर्शन इन दोनों विचारधाराओं का समन्वय करता है। वस्तु का स्वरूप उभयात्मक है और ज्ञान उभयात्मक वस्तु को ग्रहण करता है। इतना अवश्य है जैन परिभाषा में सामान्यग्राही को दर्शन एवं विशेषग्राही को ज्ञान कहा जाता है। प्लेटो का ज्ञान-सिद्धांत भी महत्त्वपूर्ण है। प्लेटो के अन्य दार्शनिक विचार उनके ज्ञान-सिद्धांत पर ही आधारित हैं । प्लेटो के अनुसार बौद्धिक ज्ञान ही यथार्थ है । प्लेटोसुकरात के ज्ञान सम्बन्धी विचार की सम्पुष्टि करते हैं। ज्ञान को प्रत्ययात्मक स्वीकार करके प्लेटो स्पष्टतः ज्ञान के संवेदनात्मक स्वरूप (साफिस्ट मतानुसार) का निराकरण करते हैं। प्रातिभासिक, व्यावहारिक, विश्लेषणात्मक एवं प्रत्ययात्मक ज्ञान को ही वास्तविक एवं सत् मानते हैं। प्लेटो सुकरात के मत को अधिक पुष्ट, परिष्कृत एवं विस्तृत करते हैं । सुकरात के अनुसार प्रत्यय केवल मानसिक है जबकि प्लेटो प्रत्यय को वास्तविक मानते हैं। प्लेटो के अनुसार प्रत्यय केवल मानसिक विचार ही नहीं वरन् वाह्यवस्तु है । २२ सन्त ऑगस्टाइन मध्ययुग के सबसे महत्त्वपूर्ण ईसाई विचारक माने जाने जाते हैं। खण्ड २१, अंक १ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके अनुसार यथार्थज्ञान ईश्वर विषयक होता है। परमात्मा का ज्ञान ही सर्वोत्तम ज्ञान है । अन्य सभी सांसारिक या व्यावहारिक ज्ञान है । ईश्वर से अलग किसी ज्ञान का स्वतः अस्तित्व नहीं है। सन्त ऑगस्टाइन के अनुसार ज्ञान तीन प्रकार का है-ऐन्द्रिय ज्ञान (Sense Knowledge), बौद्धिक ज्ञान (Rational Knowledge) एवं अन्तर्प्रज्ञा (Wisdom)। ऐन्द्रिय ज्ञान संवेदनात्मक होता है। यह ज्ञान इन्द्रिय तथा विषय के सम्पर्क से उत्पन्न होता है। इसको इन्होंने निम्न स्तर का माना है । बौद्धिक ज्ञान, इन्द्रिय ज्ञान एवं अन्तर्ज्ञान के मध्य की अवस्था है। यह शुद्ध बुद्धि का व्यापार है। ऑगस्टाइन के अनुसार इन्द्रियां भौतिक वस्तु का ज्ञान करवाती हैं एवं बुद्धि से अभौतिक वस्तु का ज्ञान प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ सुन्दर वस्तु का ज्ञान ऐन्द्रियिक एवं सौन्दर्य का ज्ञान बौद्धिक है। बौद्धिक ज्ञान नित्य, अपरिणामी सत्यों (eternal and immutable truths) का ज्ञान है । आन्तर ज्ञान यह उच्चतम ज्ञान है। ऑगस्टाइन इसे 'प्रज्ञा' कहते हैं। यह बुद्धि का सर्वोत्तम स्वरूप है। बुद्धि निर्णय करती है परन्तु निर्णय की शक्ति प्रज्ञा से प्राप्त होती है। प्रज्ञा ध्यानपरक ज्ञान है।" वह आत्मज्ञान है। ज्ञान स्वरूप एवं ज्ञान की प्रामाणिकता स्पिनोजा की ज्ञान-मीमांसा के महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । स्पिनोजा स्वतः प्रामाण्यवादी हैं। उनकी प्रसिद्ध उक्ति है कि ज्ञान स्वत: प्रकाश है, उसे प्रकाशित करने के लिए किसी दूसरे ज्ञान की आवश्यकता नहीं है । स्पिनोजा भी ज्ञान के तीन स्तर बताते हैं । इन्द्रियजन्य ज्ञान, बौद्धिक ज्ञान एवं प्रज्ञाजन्य ज्ञान । जैनदर्शन के अनुसार स्पिनोजा स्वीकृत प्रथम दो ज्ञानों का समावेश मति, श्रत ज्ञान में तथा प्रज्ञाजन्य ज्ञान का समाहार पारमार्थिक प्रत्यक्ष में किया जा सकता लॉक के दार्शनिक विचारों का प्रारम्भ उनके ज्ञान सिद्धांत से होता है। लॉक ज्ञान-मीमांसा को सभी दार्शनिक विचारों की आधारशिला मानते हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि ज्ञान-मीमांसा से लॉक का तात्पर्य ज्ञान की उत्पत्ति तथा ज्ञान के प्रामाण्य से है । इन दोनों के आधार पर लॉक ज्ञान के स्वरूप का निश्चय करते हैं ।२४ लॉक के अनुसार समस्त ज्ञान अनुभव जन्य है तथा उसकी प्रामाणिकता भी अनुभव पर आश्रित है। उनके अनुसार कोई भी प्रत्यय, धारणा जन्मजात नहीं है। लॉक ज्ञान पक्ष में बुद्धिवाद का खण्डन करके अनुभववाद का समर्थन करते हैं। वर्कले भी अनुभववादी हैं । लॉक ने अनुभववाद का प्रारम्भ किया तथा वर्कले ने उसे परिष्कृत किया । देकार्त बुद्धिवादी हैं । इनके अनुसार बुद्धि ही यथार्थज्ञान की जननी है । यह यथार्थज्ञान सार्वभौम, सुनिश्चित और अनिवार्य है। यही ज्ञान का स्वरूप है। इस प्रकार के ज्ञान का आदर्श गणित शास्त्र है । देकार्त के अनुसार यथार्थ ज्ञान प्राप्ति के दो साधन हैं.....--- सहज ज्ञान एवं निगमन । सहज ज्ञान तो सद्यः अनुभूति है तथा निगमम अनुमानजन्य ज्ञान है। देकार्त का मानना है कि सब ज्ञानों का आधार तो सहजज्ञान है, परन्तु निष्कर्ष निगमनात्मक ज्ञान है। देकार्त आत्मज्ञान को सहज-बोध, स्वत:सिद्ध मानकर अन्य विषयों का ज्ञान आत्मज्ञान पर आधारित मानते हैं। तुलसी प्रज्ञा Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाइवनिज का ज्ञान सिद्धांत उनके तत्त्व सिद्धांत से सम्बन्धित है । उनके अनुसार चिदणु ही तत्त्व है तथा चिदणु गवाक्षहीन होने के कारण बाह्य प्रभाव से विहीन है । अतः ज्ञान के लिए बाह्य जगत् की आवश्यकता नहीं है। ज्ञान बुद्धि- प्रसूत है | ज्ञान जन्मजात है | अनुभवजन्य नहीं है । अनुभववादी लॉक के अनुसार कोई भी प्रत्यय जन्मजात नहीं है । सभी अनुभवजन्य है । बुद्धिवादी लाइवनित्ज के अनुसार सभी प्रत्यय जन्मजात है ।" इनके अनुसार ज्ञान के दो भाग हैं विज्ञान तथा विचार । विज्ञान जन्मजात है तथा विचार के उपादान है। विचार विज्ञानों का विस्तार है । इमान्युएल काट के सिद्धांत को "समीक्षाबाद" कहा जाता है । काण्ट ज्ञान विचार के क्षेत्र में बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों मतों की समीक्षा करते हैं । काट के पहले बुद्धिवाद और अनुभववाद दो विरोधी सिद्धांत थे । काण्ट ने इन दोनों का समन्वय किया । काण्ट ने दोनों पक्षों के दोषों का परिहार करके दोनों के गुणों का समन्वय किया है । इसे ही "समीक्षावाद" कहते हैं । काण्ट के अनुसार जिन बातों को बुद्धिवादी एवं अनुभववादी स्वीकार करते हैं, वे सत्य हैं और जिनका वे निषेध करते हैं, वे असत्य हैं ।" अर्थात् काण्ट किसी भी एकांगी पक्ष को स्वीकार नहीं करते । अकेला बुद्धिवाद पूर्ण ज्ञान-मीमांसा नहीं कर सकता वैसे ही अकेला अनुभववाद भी पूर्ण ज्ञान व्याख्या करने में असमर्थ है। उसके अनुसार इन्द्रियानुभव के बिना बुद्धि रिक्त है और बुद्धि के बिना इन्द्रियानुभव अंधा है । काण्ट का दृष्टिकोण अनेकांतवादी परिलक्षित होता है। जैनदर्शन में भी समन्वय का दृष्टिकोण ही सत्य व्याख्या का आधारभूत तत्त्व है । इन्द्रिय ज्ञान एवं अतीन्द्रिय ज्ञान अपनी-अपनी सीमा में दोनों यथार्थ हैं एवं यथार्थता के निर्णायक हैं । पाश्चात्य दर्शनों का जैन ज्ञान-मीमांसा के आलोक में अवलोकन करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि जैन दर्शन जैसे अतीन्द्रिय ज्ञान की यहां पर कोई परिकल्पना नहीं है । पाश्चात्य दर्शन सम्मत अनुभववाद एवं बुद्धिवाद दोनों का समावेश जैन स्वीकृत संव्यावहार प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ज्ञान के अन्तर्गत हो जाता है । हम यों समझ सकते हैं पाश्चात्य दर्शन में भारतीय अतीन्द्रिय ज्ञानमीमांसा जैसी अवधारणा नहीं है । उनका ज्ञान-मीमांसीय चिन्तन इन्द्रिय जगत् एवं बुद्धि की परिक्रमा करता हुआ दृष्टिगोचर होता है । भारतीय परम्परा भारतीय परम्परा में ज्ञान-मीमांसा का महत्त्वपूर्ण स्थान है । सभी तत्त्वचिन्तकों ने तत्त्व की अवगति के लिए ज्ञान की अनिवार्य अपेक्षा स्वीकार की है। वैदिक, अवैदिक-सभी धर्म-दर्शनों में ज्ञान-चिंतन और विचारणा उपलब्ध है । भारतीय चिन्तक सत्य की खोज करके रुक नहीं जाते थे बल्कि उसे अपने अनुभव में उतारने का भी प्रयत्न करते थे । दर्शन का उद्देश्य मात्र बौद्धिक आस्था की प्राप्ति नहीं था । मैक्समूलर ने कहा है कि भारत में तत्त्व-चिन्तन ज्ञान की उपलब्धि के लिए नहीं है बल्कि उस परम उद्देश्य की सिद्धि के लिए किया जाता था जिसके लिए मनुष्य का इस लोक में प्रयत्न करना सम्भव है । इस दृष्टि से भारतीय चिन्तनधारा में ज्ञान का स्वरूप, २८ खण्ड २१, अंक १ १५ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके भेद-प्रभेद आदि का निरूपण अपने केन्द्रीय तत्त्व को ध्यान में रखकर ही हुआ ज्ञान के विषय में उपनिषद् में ब्रह्म विद्या के प्ररूपण के प्रसंग में ज्ञान-मीमांसीय तत्त्व उपलब्ध होते हैं। अनुभव की वस्तुओं के लिए उपनिषदों में 'नाम-रूप' का प्रयोग हुआ है । मनस और ज्ञानेन्द्रियों का व्यापार 'नामरूप' के दायरे तक ही सीमित है । इन्द्रिय ज्ञान अनिवार्यतः परिच्छिन्न वस्तु का ही होता है । ब्रह्मज्ञान इन्द्रियज्ञान से उच्चकोटि का है। ब्रह्म अज्ञेय नहीं है। उपनिषद् का परम उद्देश्य ब्रह्म का ज्ञान कराना ही है । मुण्डक उपनिषद् में सारे ज्ञान को दो वर्गों में विभक्त किया गया है-- परा विद्या एवं अपरा विद्या ।२९ परा विद्या सर्वोत्कृष्ट है। इससे परब्रह्म का साक्षात्कार होता है तथा अपरा विद्या के द्वारा सांसारिक वस्तुओं का ज्ञान होता है । वेदान्त परम्परा में अध्यात्म विद्या, आत्म विद्या का मूल है । मुण्डकोपनिषद् में शिष्य गुरु से पूछता है-भगवन् ! ऐसा कौनसा तत्त्व है जिसको जान लेने से सबकुछ ज्ञात हो जाता है। परम तत्त्व की जिज्ञासा ज्ञान उत्पत्ति का मुख्य आधार है । सत्य ज्ञान स्वरूप ब्रह्म ही परम तत्त्व है।" ब्रह्म पराविद्यागम्य है। अपरा विद्या सांसारिक मार्गानुसारी है । वह भवभ्रमण का कारण है। श्रेय और प्रेय चिरन्तन काल से मनुष्य के लक्ष्य बनते रहे हैं। विद्यावान् धीर पुरुष ज्ञान चेतना के द्वारा प्रेय को त्याग कर श्रेय को स्वीकार करता है जबकि मंद त्वरा से प्रेरित होकर प्रेय का वरण करता है । प्रेय मार्ग तमस की ओर ले जाता है। श्रेय मार्ग प्रकाश का पुञ्ज है। श्रेय मार्ग अर्थात् विद्या, प्रेय अर्थात् अविद्या। उपनिषदों के अनुसार अविद्या वह है जिसका अंतिम परिणाम अन्धकार है तथा विद्या वह है, जो प्रकाश में ले जाती है। इसलिए उपनिषद् का ऋषि गाता है-तमसो मा ज्योतिर्गमय ।विद्या बन्धन से मुक्त करवाती है जबकि अविद्या बन्धन का हेतु है। संसार के सम्पूर्ण ज्ञान में पारंगत होकर भी व्यक्ति ब्रह्मविद् नहीं हो सकता तथा एक ब्रह्म को जान लेने से सब कुछ ज्ञात हो जाता है । जैन आगम आचारांग में भी कहा गया है जो एक को जानता है वह सबको जान लेता है।" उपनिषद् दर्शन के अनुसार सांसारिक ज्ञान में वैदुष्य-प्राप्त व्यक्ति भी अविद्यावान ही है । यदि वह ब्रह्म ज्ञाता नहीं है। उपनिषद् कहता है--जो लोग अविद्या में पड़े रहकर अपने आपको बहुत बड़ा पंडित और ज्ञानी मानते हैं, वे वास्तव में मूढ़ हैं और उन अंधे मनुष्यों के समान हैं जिनको अंधे मनुष्य ही ले जा रहे हैं और जो गिरते-पड़ते भटकते रहते हैं।" नचिकेता-यम, मैत्रेयी-याज्ञवल्क्य, नारद-सनत्कुमार आदि के औपनिषदिक आख्यानों से उपनिषद् ज्ञान-मीमांसा का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। उपनिषद् की ज्ञान-मीमांसा का प्रमुख लक्ष्य है- ब्रह्मज्ञान । ब्रह्म की प्राप्ति अथवा ब्रह्ममय बन जाने के साथ ही ज्ञान-मीमांसा कृतकृत्य हो जाती है। उपनिषद् ‘सा विद्या या विमुक्तये' के माध्यम से मोक्षदायिनी विद्या (ज्ञान) को सर्वश्रेष्ठ स्वीकार करता है। सांख्य दर्शन प्रकृति और पुरुष इन दो तत्त्वों को स्वीकार करता है । पुरुष निर्गुण है एवं प्रकृति त्रिगुणात्मिका । पुरुष चेतन है किन्तु वह ज्ञान शून्य है। सांख्य के अनुसार तुलसी प्रशा Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि या ज्ञान जड़ है। ज्ञान पुरुष का धर्म नहीं किन्तु प्रकृति का धर्म है । अतः अनुभव की उपलब्धि न तो पुरुष में होती है और न ही बुद्धि में होती है । जब ज्ञानेन्द्रिय वाह्य जगत् के पदार्थों को बुद्धि के सामने उपस्थित करती है तब बुद्धि उपस्थित पदार्थ का आकार धारण कर लेती है। बुद्धि के पदार्थाकार होने के पश्चात् चैतन्यात्मक पुरुष का प्रतिबिम्ब जब तक बुद्धि में नहीं पड़ता तब तक अनुभव नहीं होता। बुद्धि में पुरुष का प्रतिबिम्ब पड़ता है । बुद्धि में प्रतिबिम्बित पुरुष का पदार्थों से सम्पर्क होना ही ज्ञान है।५ बुद्धि में प्रतिबिम्बत होने पर ही पुरुष को ज्ञाता कहा जाता है। प्रत्यक्ष अनुमान एवं आगम के भेद से सांख्य तीन प्रमाण स्वीकार करता है। सांख्य 'व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात्' के माध्यम से विवेक ज्ञान को ही पूर्ण ज्ञान मानता है। विपर्यय ज्ञान को इस दर्शन में सदसत् ख्याति कहते हैं। सांख्य दर्शन ज्ञान की प्रमाणता एवं अप्रमाणता को स्वतः स्वीकार करता है .३६ जैन दर्शन ज्ञान गुण के सन्दर्भ में सांख्यों की तरह जड़वादी नहीं है । वह ज्ञान को प्रकृति का गुण धर्म नहीं मानता। जैन मत के अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वभाव है । वह आत्मा का गुण है । आत्मा स्वरूपतः ज्ञान गुण सम्पन्न है। जैन चैतन्य और ज्ञान को सांख्यों की तरह भिन्न-भिन्न नहीं मानते। ये दोनों अभिन्न है। जैसे अग्नि स्वभावतः ही उष्णता गुण युक्त होती है वैसे ही आत्मा भी स्वभावतः ज्ञान गुण युक्त ही होती हैं।" न्याय तथा वैशेषिक दर्शन, परस्पर सम्बद्ध हैं। वैशेषिक में तत्त्व-मीमांसा प्रधान है तथा न्यायदर्शन में तर्कशास्त्र और ज्ञान-मीमांसा का प्राधान्य है । न्यायदर्शन वस्तुवादी है । वह ज्ञान को ज्ञाता और ज्ञेय का संबंध मानता है। ज्ञाता और ज्ञेय के अभाव में ज्ञान पैदा नहीं हो सकता । ज्ञाता जब ज्ञेय के सम्पर्क में आता है तब उसमें "ज्ञान" नामक गुण उत्पन्न होता है ज्ञान आत्मा का आगन्तुक धर्म है क्योंकि चेतना उसका आगन्तुक लक्षण है । न्याय दर्शन के अनुसार द्रव्य अपनी उत्पत्ति के प्रथम क्षण में गुण विहीन होता है। समवाय संबंध के द्वारा उत्पत्ति के बाद गुण का गुणी से सम्बन्ध करवाया जाता है । चैतन्य गुण आत्मा से अन्य है। समवाय सम्बन्ध रूप उपाधि से आगत है। न्यायदर्शन की आत्मा स्वरूपतः अज्ञान स्वरूप है। जब ज्ञाता ज्ञेय पदार्थ के संपर्क में आता है तब ज्ञेय पदार्थ के द्वारा ही ज्ञाता में ज्ञान पैदा होता है । ज्ञेय पदार्थ के अभाव में ज्ञान पैदा ही नहीं हो सकता। ज्ञान का कार्य ज्ञेय पदार्थ को प्रकाशित करना है। बुद्धि उपलब्धि, अनुभव ये शब्द ज्ञान के पर्याय हैं। जैन दर्शन ज्ञान को आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं मानता है। ज्ञान तो आत्मा का स्वरूप है । आत्मा चैतन्य लक्षण वाली है । ज्ञान का अस्तित्व ज्ञेय पदार्थ पर निर्भर नहीं है । वह स्वतः अस्तित्ववान । जैनदर्शन के अनुसार गुण-गुणी में धर्म-धर्मी में ज्ञानगत भिन्नता है वस्तुगत भिन्नता नहीं है। द्रव्य गुण से संयुक्त ही होता है। उत्पत्ति के प्रथम क्षण अगुणता का सिद्धांत सम्यक नहीं है । न्याय के अनुसार यथार्थ एवं अयथार्थ के भेद से ज्ञान दो प्रकार का है । वस्तु जैसी है उसका वैसा ही ज्ञान होना यथार्थ ज्ञान है । तथा वस्तु स्वभाव से विपरीत ज्ञान होना अयथार्थ अनुभव है।४३ इनके अनुसार ज्ञान स्वप्रकाशक नहीं है मात्र अर्थ प्रकाशक है । ज्ञान भी ज्ञानान्तर वेद्य है । ४ प्रमाण के चार खण्ड २१, अंक १ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार इस दर्शन में स्वीकार किए गए हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शाब्द (आगम)।१५ मीमांसा-दर्शन में ज्ञान को आत्मा का विकार कहा गया है। ज्ञान को एक क्रिया का व्यापार और उसे अतीन्द्रिय माना गया है। इस दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा जैसे सूक्ष्म द्रव्य में पाया जाता है। प्रमुख मीमांसक कुमारिल एवं प्रभाकर की ज्ञान संबंधी अवधारणा पृथक्-पृथक् दीखती है । कुमारिल का ज्ञान विषयक मत ज्ञाततावाद कहलाता है । यह प्रभाकर के मत से भिन्न है । कुमारिल के अनुसार ज्ञान स्व प्रकाशक नहीं है । ज्ञान केवल ज्ञेय विषय को ही प्रकाशित करता है। अर्थ प्राकट्य के द्वारा उसका ज्ञान होता है। जैन मत से जो ज्ञान स्व-प्रकाशक नहीं है वह अर्थ प्रकाशक भी नहीं हो सकता। प्रभाकर का ज्ञान विषयक मत त्रिपुटी प्रत्यक्षवाद कहा जाता है। वे ज्ञान को स्वप्रकाशक मानते हैं। उसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। ज्ञान के लिए ज्ञानान्तर की कल्पना से अनवस्था दोष आता है । ज्ञान स्वप्रकाशक तो है किन्तु नित्य नहीं । ज्ञान आत्मा का आगन्तुक गुण है। विषय संपर्क से आत्मा में ज्ञान उत्पन्न होता है। प्रत्येक ज्ञान में जेय, ज्ञान और ज्ञाता की त्रिपुटी का प्रत्यक्ष होता है । इसलिए यह त्रिपुटी प्रत्यक्षवाद है। ___ बौद्ध दर्शन में साकार चित्त को ज्ञान कहते हैं। बौद्ध दर्शन के भिन्न-भिन्न प्रस्थान हैं । अत: उनकी ज्ञान-मीमांसा में भी वैविध्य है। योगाचार अर्थात् विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध ज्ञान को ही मात्र परमार्थ सत् मानता है। उसके अनुसार बाह्य पदार्थ का कोई अस्तित्व ही नहीं है । वैभाषिक बौद्ध ज्ञान-मीमांसा के क्षेत्र में तदुत्पत्ति एवं तदाकारता के सिद्धांत को स्वीकार करते हैं। उनका मानना है कि तदुत्पत्ति एवं तदाकारता के अभाव में प्रतिनियत कर्म-व्यवस्था नहीं हो सकती। ज्ञान पदार्थ से उत्पन्न होता है तथा पदार्थाकार को ग्रहण करता है। घट से उत्पन्न ज्ञान घटाकार में परिणत होकर ही घटज्ञान करता है । बौद्ध दर्शन में अपूर्व अर्थ के ज्ञापक सम्यक् ज्ञान को ही प्रमाण कहा गया है ।५० जो ज्ञान अविसंवादी है वही सम्यग्ज्ञान कहलाता है ।" अर्थ क्रिया की व्यवस्था से ही ज्ञान के अविसंवादित्व आदि का बोध होता है। सम्यग्ज्ञान प्रत्यक्ष एवं अनुमान भेद से दो प्रकार का है। कल्पना रहित ज्ञान अर्थात निविकल्प ज्ञान एवं अभ्रांत ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है।५२ व्याप्ति ज्ञान से सम्बन्धित किसी धर्म के ज्ञान से धर्मी के विषय में जो परोक्ष ज्ञान होता है वह अनुमान है ।५३ बौद्ध दर्शन में वही ज्ञान प्रमाण है और वही ज्ञान प्रमाण फल भी है। प्रत्येक ज्ञान अर्थ से उत्पन्न होता है तथा अर्थाकार होता है । यथा जो ज्ञान पुस्तक से उत्पन्न हुआ है वह पुस्तकाकार है तथा पुस्तक के बोधरूप हैं। अतः ज्ञान में जो पुस्तकाकारता है वह प्रमाण है और जो पुस्तक का बोध है, वह प्रमाणफल है। इस प्रकार एक ही ज्ञान में प्रमाण और फल की व्यवस्था की जाती है। बौद्ध दर्शन क्षणिकवादी है वहां आत्मा जैसे किसी नित्य द्रव्य की स्वीकृति नहीं है। ज्ञान चैतसिक है। चित्त परम्परा चलती रहती है । प्रवृत्ति विज्ञान एवं आलय विज्ञान की अवधारणा बोद्ध दर्शन में है। तुलसी प्रज्ञा Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारू (रुचिकर) वक्तव्य के आधार पर इस दर्शन को चार्वाक दर्शन के रूप में जाना जाता है। इसको नास्तिक दर्शन भी कहा गया है। चार्वाक दर्शन में प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है। इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष है। इस पञ्चविध इन्द्रिय प्रत्यक्ष द्वारा अनुभूत बस्तु प्रमाणसिद्ध; अन्य सब वस्तुएं कल्पना प्रसूत हैं। प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अन्य किसी अनुमान आदि को यह स्वीकार नहीं करता है। भारतीय परंपरा में जैन दर्शन जैन दर्शन के अनुसार आत्मा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद एवं अनंत वीर्य से सम्पन्न है ।५५ किन्तु सांसारिक अवस्था में आत्मा के ये गुण तिरोहित रहते हैं। कर्म आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि को आवृत्त किए रहता है। अतः आत्मा का सांसारिक अवस्था में मूल स्वरूप दृष्टिगोचर नहीं होता है। ज्ञान, आत्मा का स्वरूप है। ज्ञान, जीव का विशेषण नहीं किन्तु स्वरूप है अतः जीव में यह सामर्थ्य है कि वह संसार के संपूर्ण ज्ञेय को अपरोक्षतः और यथार्थ रूप में जान सकता है। आत्मा सर्वज्ञ बन सकती है । कर्म के आवरण के कारण जीव को आंशिक ज्ञान होता है। जिस प्रकार कुछ लोग दर्शन ज्ञान की परिच्छिन्नता का कारण अविद्या को बताते हैं उसी प्रकार जैन दर्शन कर्म को बताता है । कर्मरूपी मेघ आत्मा के सूर्य प्रकाश को आवृत्त कर देते हैं जिससे आंशिक ज्ञान होता है । किन्तु कर्म ज्ञान रूप जीव के स्वभाव को नष्ट नहीं कर सकते । जीव का अक्षर के अनंतवें भाग जितना ज्ञान हमेशा उद्घाटित रहता है। यदि ऐसा न हो तो जीव अजीव हो जाएगा । जैन दर्शन ज्ञान को नैयायिक-वैशेषिक की तरह आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं मानता तथा सांख्य की तरह प्रकृतिजन्य भी नहीं मानता । ज्ञान तो आत्मा का सहजात गुण है। ज्ञान के अभाव में आत्मा की एवं आत्मा के अभाव में ज्ञान की कल्पना करना भी संभव नहीं है। ज्ञान और आत्मा का अभेद स्थापित करते हुए कहा गया-विशिष्ट क्षयोपशम युक्त आत्मा जानती है, वही ज्ञान है। 'राजवार्तिक' में भी आत्मा को ही ज्ञान एवं दर्शन कहा गया है । एवंभूतनय की वक्तव्यता से ज्ञान, दर्शन रूप पर्याय में परिणत आत्मा ही ज्ञान और दर्शन है ।५८ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आत्मा को ही उसकी पर्याय विशेष के आधार पर 'ज्ञान' कहा गया है। __ ज्ञान की परिभाषा ज्ञेय तत्त्व के आधार पर भी प्राप्त होती है। जिसके द्वारा जाना जाता है अथवा जानने मात्र को ज्ञान कहा जाता है। ज्ञान ज्ञेय का प्रकाशक होता है। जो यथार्थ तत्त्व को प्रकाशित करता है अथवा सद्भाव पदार्थों का निश्चायक होता है। उसे ज्ञान कहा जाता है। जैन दर्शन में आत्म-मीमांसा, ज्ञान-मीमांसा, कर्म-मीमांसा परस्पर में अत्यन्त सम्बद्ध है। आत्मा अधिगम स्वभाव वाली है । ६६ निश्चयनय के अनुसार तो आत्मा का स्वभाव या स्वरूप केवल ज्ञान ही है । २ सांसारिक अर्थात् कर्मयुक्त अवस्था में वह स्वभाव पूर्णरूपेण प्रकट नहीं होता है । अत: जैन साधना पद्धति का यही उद्देश्य है कि वह आत्मा पर आए हुए आवरणों को दूर करे ताकि वह अपने शुद्ध स्वरूप में उपस्थित हो सके । खंड २१, अंक १ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्मा ज्ञान दर्शन स्वभाव वाली है। ज्ञान की तरह दर्शन भी उसका स्वभाव है । ज्ञान एवं दर्शन दोनों की ज्ञापकता में क्या विशेषता है। इसका अवबोध ज्ञान एवं दर्शन के भेद को समझने से ही प्राप्त हो सकता है। जैन दर्शन के अनुसार वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है। द्रव्य सामान्य एवं पर्याय विशेष का द्योतक है। जब वस्तु का स्वरूप उभयात्मक है तो उसके ज्ञापक का स्वरूप भी उभयात्मक होना चाहिए। अत: 'सन्मति तर्क' में कहा गया - सामान्यग्राही दर्शन एवं विशेषग्राही ज्ञान कहलाता है । सामान्यग्राही दर्शन की प्रवृत्ति द्रब्यास्तिक नय की एवं विशेषग्राही ज्ञान की प्रवृत्ति पर्यायास्तिक दृष्टि की प्रेरक है। अतएव दर्शन द्रव्यास्तिक नय में एवं ज्ञान पर्यायास्तिक नय में माना जाता है । दर्शन और ज्ञान काल में ग्राह्य वस्तु में अधिक अन्तर नहीं पड़ता है। दर्शन काल में वस्तु का सामान्य धर्म प्रधान एवं विशेष गौण हो जाता है तथा ज्ञान काल में विशेष प्रधान एवं सामान्य गौण हो जाता है। आत्मा पर दर्शन एवं ज्ञान को घटित करके आचार्य सिबसेन ने इस तथ्य को उजागर किया है ।६५ साकार व अनाकार के भेद से उपयोग दो प्रकार का है। साकार उपयोग ज्ञान एवं अनाकार उपयोग दर्शन है। ग्राह्य वस्तु को भेद के साथ ग्रहण करने वाला ज्ञान तथा अभेद का ग्राह्य दर्शन कहलाता है।" जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान स्व-पर प्रकाशक है। स्व-पर प्रकाशता के अभाव में ज्ञान स्वयं की एवं वस्तु जगत् की व्यवस्था नहीं कर सकता। प्रमाण-मीमांसा के अन्तर्गत ज्ञान की स्व-पर प्रकाशकता की चर्चा की गई है। किन्तु उपाध्याय यशोविजय ने ज्ञान परिभाषा में इसका समावेश करके ज्ञान-मीमांसा के क्षेत्र में एक नया अध्याय जोड़ा है । ज्ञान को परिभाषित करते हुए उन्होंने 'ज्ञान बिन्दु प्रकरण' में कहा है-स्वपर प्रकाशक ज्ञान आत्मा का असाधारण गुण है। जैन सम्मत इस ज्ञान स्वरूप की दर्शनान्तरीय ज्ञान स्वरूप से तुलना करते समय आर्य चिन्तकों की मुख्य रूप से दो विचारधाराओं की ओर ध्यान आकृष्ट होता है । प्रथम विचारधारा सांख्य एवं वेदान्त तथा दूसरी विचारधारा बौद्ध, न्याय आदि दर्शनों में उपलब्ध होती है । प्रथम धारा के अनुसार ज्ञान गुण और चित्तशक्ति इन दोनों का आधार एक नहीं है। प्रथम धारा के अनुसार चेतना और ज्ञान दोनों भिन्न-भिन्न आधार वाले हैं। दूसरी धारा चैतन्य और ज्ञान का आधार भिन्न-भिन्न नहीं मानती । बौद्ध चित्त में, जिसे वह नाम भी कहता है, चैतन्य और ज्ञान का अस्तित्व मानता है। न्याय आदि दर्शन भी क्षणिक चित्त की बजाय स्थिर आत्मा में चैतन्य और ज्ञान का अस्तित्व मानते हैं। जैन दर्शन दूसरी विचारधारा का अवलम्बी है क्योंकि वह एक ही आत्मतत्त्व में कारणरूप से चेतना और कार्य रूप से ज्ञान को स्वीकार करता है। उपाध्याय यशोविजयजी ने उसी भाव-ज्ञान को आत्मा का गुण कहकर प्रकट किया है । तत्त्वार्थ सूत्र में मोक्ष मार्ग की विवेचना करते हुए आचार्य उमास्वाति सम्यक दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र को मोक्ष मार्ग कहते हैं। स्वामी के भेद से ज्ञान भी सम्यक् एवं मिथ्या इन दो भेद में विभक्त हो जाता है। मोक्ष मार्ग का हेतु सम्यक् ज्ञान बनता है । मिथ्याज्ञान संसार परिभ्रमण का हेतु बनता है । सम्यक् रूप से २. तुलसी प्रज्ञा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसके द्वारा वस्तु का ग्रहण होता है, वही शान है ।" सम्यक्दृष्टि से जो ज्ञान कहलाता है वही मिथ्यादृष्टि से अज्ञान कहलाता है ।२ मति, श्रुत एवं अवधि-ये ज्ञान सम्यक् एवं मिथ्या दोनों ही प्रकार से हो सकते हैं। सामान्यतः मति के दो भेद होते हैंमतिज्ञान और मति-अज्ञान । उसको विश्लेषित करने से ज्ञात होता है कि वह सम्यक दृष्टि के मतिज्ञान है एवं मिथ्यादृष्टि के मति अज्ञान है । मति अज्ञान भी ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम रूप है किन्तु उस ज्ञान के धारक व्यक्ति की दृष्टि मिथ्या है अतः दर्शन मोहकर्म के उदय के कारण क्षायोपशामक ज्ञान भी अज्ञान कहलाता है। यह अज्ञान संसार बृद्धि एवं परिभ्रमण का हेतु बनता है। ज्ञानावरण के उदय से औदयिक भावरूप जो अज्ञान है उसकी वक्तव्यता प्रस्तुत प्रकरण में नहीं है । औदयिक अज्ञान ज्ञान अभाव है। जबकि मिथ्याज्ञान कुत्सित ज्ञान है। इस प्रकार अज्ञान में आगत नञ् का एक स्थान पर अभाव एवं एक स्थान पर कुत्सित अर्थ होगा। जीव की क्रमिक आत्म-विशुद्धि के आधार पर जन-परम्परा में गुणस्थान की अवधारणा है । कर्म-विशुद्धि की अपेक्षा से चौदह गुणस्थान जीवस्थान माने गए हैं । मिथ्याज्ञान प्रथम एवं तृतीय, इन दो गुणस्थानों में ही होता है। क्योंकि इन दो गुणस्थानों में ही मिथ्यात्वी जीव स्थित है। प्रथम गुणस्थान मिथ्यादृष्टि एवं तृतीय मिश्र गुणस्थान है । ज्ञान का अभाव रूप अज्ञान तो प्रथम गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक रहता है। केवलज्ञान प्राप्त होने पर ही उदयभाव अज्ञान नष्ट होता है। उदयभाव रूप अज्ञान सम्यक्त्वी एवं मिथ्यादृष्टि दोनों के होता है। प्रथम एवं तृतीय गुणस्थान को छोड़कर अवशिष्ट सभी गुणस्थानों में सम्यक् ज्ञान माना गया है। यद्यपि सम्यक्दृष्टि को भी पदार्थों का विपरीत ज्ञान हो सकता है। रज्जू में सर्प का भ्रम हो सकता है पर वह कुत्सित ज्ञान नहीं कहलाता है। __ अयथार्थ ज्ञान के दो पक्ष होते हैं-आध्यात्मिक और व्यावहारिक । आध्यात्मिक विपर्यय को मिथ्यात्व एवं आध्यात्मिक संशय को मिश्र मोह कहा जाता है। इनका उद्भव आत्मा की मोह दशा से होता है। इससे श्रद्धा विकृत होती है । व्यावहारिक संशय और विपर्यय का नाम समारोप है। यह ज्ञानावरण कर्म के उदय से होता है। इससे ज्ञान यथार्थ नहीं होता है। पहला पक्ष दृष्टि मोह है तथा दूसरा पक्ष ज्ञान-मोह इनका भेद समझाते हुए आचार्य भिक्षु ने लिखा है-तत्त्व श्रद्धा में विपर्यय होने पर मिथ्यात्व होता है। अन्यत्र विपर्यय होता है, तब ज्ञान असत्य होता है किन्तु मिथ्या नहीं बनता।" दृष्टि मोह मिथ्यादृष्टि के ही होता है। जबकि ज्ञान-मोह सम्यक्ष्टि एवं मिथ्यादृष्टि दोनों के होता है। अत: उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ज्ञान के सम्यक् एवं मिथ्या होने में पात्र की अपेक्षा, उसके धारक व्यक्ति के आधार पर है। जयाचार्य ने भी इसी को स्पष्ट किया है। अध्यात्म साधना में सर्वप्रथम दृष्टि का परिमार्जन आवश्यक माना जाता है । दृष्टि परिशुद्ध होते ही ज्ञान स्वतः ही सम्यक् बन जाता है । ज्ञान को सम्यक् बनाने के लिए अतिरिक्त प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती है । जैन दर्शन में दृष्टि विशुद्धि को ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ज्ञान एवं चारित्र की विशुद्धता उसके ऊपर ही निर्भर रहती है अतः कहा जाता है-चरित्र भ्रष्ट की तो खण्ड २१, अंक १ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति हो सकती है किन्तु दर्शन भ्रष्ट सिद्ध नहीं हो सकता। इस प्रकार भारतीय चिंतन परम्परा और पाश्चात्य चिंतन परम्परा में ज्ञान के स्वरूप का सविस्तार विमर्श हुआ है। ज्ञान निदर्शन में स्वरूप का अन्तर स्वाभाविक है पर कहीं भी ज्ञान की उपेक्षा दृष्टिगोचर नहीं होती है। तुलनात्मक दृष्टि से समीक्षा करने के पश्चात् इस निष्कर्ष पर पहुंचने में कोई विरोध नहीं होना चाहिए कि जैन दर्शन में ज्ञान का जो सूक्ष्म और विश्लेषणात्मक चिंतन हुआ है वह अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता। संदर्भ : १. मोक्षे धीनिमन्यत्र विज्ञानं, इत्यमरः । २. चेतनाचेतनान्यत्वविज्ञानं ज्ञानमुच्यते, ज्ञानस्तु ज्ञानमित्याहुः भगवान् ज्ञान .. सन्निधिः । -लिङ्गपुराण पूर्वार्ध, १०।२९ ३. एकत्वं बुद्धिमनसोरिन्द्रियाणाञ्च सर्वशः । आत्मनो व्यापिनस्तात ज्ञानमेतदनुत्तमम् ।। -योगशास्त्र ४. गीता, ४१३८ ५. ज्ञानयज्ञः परन्तपः। -~-गीता, ४१३३ ६. सर्वभूतेषु येनैक भावमव्ययमीक्षते । अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धिसात्विकम् । -गीता, १८:२० ७. पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान् पृथग्विधान् । वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ।। --गीता, १८।२१ ८. यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन् कार्येसक्तमहेतुकम् । अतत्त्वार्थवदल्पञ्च तत्तामसमुदाहृतम् ॥ -~-गीता, १८१२२ ९. वैराग्याज्जायते ज्ञानम् ॥ वि. पु. महा. भा., १३।१४९।६१ १०. वैराग्याज्जायते ज्ञानं ज्ञानाद् योगः प्रवर्ततेः। योगज्ञः पतितो वापि मुच्यते नात्र संशयः ॥ ---वि. पू. महाभा., १३।१४९।६१ ११. ज्ञानं प्रकृष्टमजन्यमनवच्छिन्नं सर्वस्य साधकमिति ज्ञानमुत्तमं सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म इति श्रुतेः। -वायुपुराण उत्तरार्ध, ११॥३६ (तद्भाष्यम्) तुलसी प्रज्ञा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. ज्ञाननेत्रं समादाय चरेद् वह्निमतः परम् । निष्कलं निर्मलं शान्तं तद् ब्रह्माहमितिस्मृतम् ॥ १३. सम्यक् दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । १४. पढमं नाणं तओ दया । १५. जे आया से विम्माया, जे विम्माया से आया । १६. गाणंति वा संवेदनं ति वा अधिगमोति वा चेतणं एगट्ठा । गाणं ति वा विज्ज ति वा एगट्टा । १७. णज्जइ अणेणेतिज्ञानं, णज्जति एतम्हि त्तिणाणं । १८. जाती- णाणं अवबोधमेते, भावसाधणो । १९. अहवा णज्जइ अणेणेति णाणं, खयोवस मिय - खाइएण । वा भावेण जीवादिपदत्था णज्जंति इति णाणं करणसाधणो । - नंदी चू., पृ. १३ 20. Man is the measure of all things – It means that the way thing appear to one man is truth for him, and the way thing appear to another is the truth for him. ---W.K.C. Guthric, the Greek philosophy, pp. 63-69 - ब्रह्मबिन्दु उपनिषद्, २१ - तत्त्वार्थ सूत्र, ११ -- दशवं., ४।१० आचा., ५।१०४ ति वा भावोति वा एते सद्दा - दशवं. जि. चू., पृ. १० - उत्तरा . चू., पृ. १४७ -नंदी चू., पृ. १३ - नंदी चु., पृ. १३ 21. All knowledge is knowledge through concepts. W. T. stace. A Critical Hostory of Greek Philosophy, p. 143 22. Conceptul knowledge, then is the only genuine knowledge that was the teaching of Socrates which Plato adopted as the starting point for his inquiries. - -F. Thilly, A History of Philosophy, p. 77 23. Moreover, this lower use of reason is directed towards action, whereas wisdom is contemplative, not practical. -F. Capleston. A History of philosophy. Vol. II, p. 70 24. To inquire in to the original, certaintry and extent of human knowledge, together with the grounds and degrees of belief, opinion and assent. -- Locke, An Essay understanding Book, p. 63 25. According to Descartes some ideas are innate according to Leibnitz all. -R. Falckenberg History of modern philosophy. p. 283 26. The two methods which he described as best in discovering new खंड २१, अंक १ २३ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ principles, are intuition by which meant an immediate intellectual awareness and deduction Which is a correct injerence from facts that are known with certainly. - F. Mayer, A history of philosophy, p. 109 27. They are justified in what they affim but wrong in what they --A history of philosophy deny. 28. Six systems of Indian philosophy, p. 370 २९. मुण्डको १|१|४५ ३०. कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति । ३१. सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म । ३२. श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः । श्रेयहि धीरोऽभिप्रेयसोवृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते ॥ ३३. जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ - कठो, १।२।२५ ३४. अविधायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पंडितं मन्यमानाः । दन्द्रम्यमाणाः परियन्तिमूढा अंधेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥ ३५. अर्थाकारेण परिणताया बुद्धिवृत्तेश्चेतने प्रतिबिम्बनात् विषयप्रकाशरूपं ज्ञानम् । - सा. प्र. सू. (भाष्ययोः) --सर्वदर्शनसंग्रह, पृ. १०६ त्वम् । ३९. चैतन्य मौपाधिकमात्मनोऽन्यत् । ४०. न चा विषया काचिदुपलब्धिः । ४१. अर्थप्रकाश बुद्धिः । ४२. चैतन्यलक्षणो जीवो" ४३. तद्वति तत्प्रकारकोऽनुभवो यथार्थः । तद्भाववति तत्प्रकारकश्चायथार्थः । ३६. प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वतः सांख्याः समाश्रिताः । ३७. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १७८ ३८. उत्पन्नं द्रव्यं क्षणमगुणं निष्क्रियं च तिष्ठतीति समयात गुणानां गुणिनो व्यतिरिक्त - स्याद्वादमञ्जरीका, ७ -अन्ययोगव्यवच्छेदिका, ८ ४४. ज्ञानमपि ज्ञानान्तरवेद्यं प्रमेयत्वात् पटादिवत् । ४५. प्रत्यक्षमनुमानं चोपमानं शाब्दिकं तथा । ४६. शास्त्रदीपिका, पृ. ५६-५७ ४७. स्वार्थावबोधक्षम एव बोधः प्रकाशनेनार्थकथान्यथातु | २४ --मुण्डको., १/३ - तैतेरियो, ३।१।१ --कठोप., ११२/२ -आचा, ३।७४ - षड्दर्शनसमुच्चय, ४९ - तर्कसंग्रह, पृ. ५८ - तर्कसंग्रह, पृ. ६१ - ष. द. सं., १७ - अन्ययोग व्यच्छेदिका. १२ तुलसी प्रज्ञा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. नास्ति बाह्योऽर्थः कश्चितकिन्तु ज्ञानमेवेदं सर्व नीलाधाकरेण प्रतिभाति । -स्याद्वादमञ्जरी, पृ. १५८ ४९. तदुत्पति तदाकारताभ्यां हि सोपपद्यते । ---- स्याद्वादम., पृ. १५४ ५०. प्रमाणं सम्यग्ज्ञानमपूर्वगोचरम् । तर्कभाषा, पृ. १ ५१. अविसंवादकं ज्ञानं सम्यग्ज्ञानम् । -न्यायबिन्दु, पृ. ४ ५२. तत्र कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् । -~-न्यायबिन्दु, पृ. ८ ५३. या च सम्बन्धिनो धर्माद्भतिर्धमिणि जायते । सानुमानं परोक्षाणामेकान्तेनैव साधनम् ।। -प्रमाणवातिक, ३।६२ ५४. तदेव च प्रत्यक्षं ज्ञानं प्रमाणफलमर्थप्रतीति रूपत्वात् । -न्यायबिन्दु, पृ. १८ ५५. षदर्शन समुच्चय, टीका, पृ. ७४ ५६. सव्वजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंततमो भागो णिच्चुग्घाडिओ चिट्ठइ। सो विम जइ आवरिज्जा, तेणं जीवा अजीवतणं पाविज्जा। -नंदीसूत्र, ७१ ५७. आत्मैव विशिष्टक्षयोपशमयुक्तः जानातीति वा ज्ञानं तदेव, स्वविषय संवेदन रूपत्वात् तस्य । ५८. एवंभूतनयवक्तव्यवशात् ज्ञान दर्शन पर्याय परिणतात्मैव ज्ञानं दर्शनं च, तत्स्वभाव्यात् । --रानवार्तिक, १११॥५॥१ ५९. जानातिज्ञायतेऽनेन ज्ञप्तिमात्र वा ज्ञानं । -सर्वार्थसिद्धि, १।१।६।१ ६०. भूतार्थप्रकाशनं ज्ञानम् अथवा सद्भाव विनिश्चयोपलम्भकं ज्ञानम् । -ध., १११ ६१. विनिर्मलः साधिगमः स्वभावः । __-परमात्म द्वात्रिंशिका, २४ ६२. केवलनाणमणंतं जीवसरूवं तत्र निरावरणम् । -ज्ञानबिन्दु, पृ. ३ ६३. ज्ञानदर्शनात्मिका चेतना । -जैन सि. दीपिका, २।३ ६४. द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु । -प्रमाणमी., ११३० ६५. जं सामण्णग्गहणं दंसणमेयं विसेसियं णाणं । दोण्ह विणयाण एसो पडिक्कं अत्थपज्जाओ ।। -स.त., २।१ ६६. दव्वट्ठिो वि होऊण दंसणे पज्जवट्ठिओ होइ । उवसमियाई भावं पडुच्च णाणे उ विवरीय ।। -सम्म. २।२ ६७. सागारे से नाणे हवइ अणागारे से दंसणे । -प्रज्ञापना, ३०।३१४ ६८. सहआकारै ग्राह्यभेदैवत्तते यद् ग्राहकं तत् साकारं ज्ञानमित्युच्यते । अविद्यमान आकारः भेदोग्राह्यस्य अस्येत्यनाकारं दर्शन मुच्यते। -सम्म. टी., पृ. ४५८ ६९. तत्र ज्ञानं तावदात्मनः स्वपरावभासकः असाधारणो गुणः । -ज्ञानबिन्दु प्रकरण, पृ. ३ ७०. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। -तत्त्वार्थ सूत्र, १११ खंड २१, अंक १ २५ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१. सम्यगवैपरीत्येन विद्यतेऽवगम्यते वस्तु स्वरूपमनयेति सेवित् । ७२. मति श्रुत - विभंगा मिथ्यात्व साहचर्यादज्ञानम् । ७३. अविसेसिया मई- मइनाणं च मइ अन्नाणं च । विसेसिया सम्मद्दिट्टिस्स मई मइनाणं । मिच्छादिट्ठि मई मइअन्नाणं ।। ७४. कर्मविशुद्धे मार्गणापेक्षाणि चतुर्दश जीवस्थानानि । ७५. इन्द्रियवादी री चौपई, ७-९ ७६. भाजन लारे जाण रे ज्ञान अज्ञान कही जिए । समदृष्टि र ज्ञान रे, अज्ञान अज्ञानी तणो ॥ ७७. भ्रष्टेनापि च चारित्राद दर्शनमिह दृढतरं ग्रहीतव्यम् । सिध्यन्ति चरणरहिता, दर्शनरहिता न सिध्यन्ति ॥ २६ स्याद्वादमञ्जरी, १६ । २२१।२८ जं. सि. दी., २/३३ - नंदी, ३६ - जैन सि. दीपिका, ७ १ -भगवती जोड़, ८।२।५५ -त. भाष्यानु. टी. पृ. १२ तुलसो प्रज्ञा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तथा सांख्य दर्शनों में संज्ञान D निर्मल कुमार तिवारी भारतीय दर्शन में ज्ञान, संज्ञान, बुद्धि, उपलब्धि, प्रत्यय आदि विविध ज्ञानवाची शब्दों को ज्ञान मीमांसा के क्षेत्र में उचित स्थान तो निस्संदेह प्राप्त है। किन्तु इन शब्दों को संभवतः एक रूप में प्रयुक्त नहीं किया गया है जिसके कारण कभी-कभी शब्दभ्रम उत्पन्न हो जाता है । न्यायसूत्र ने कहा है कि बुद्धि, उपलब्धि तथा ज्ञान इन शब्दों में कोई अन्तर नहीं है । ये एकार्थक हैं । इस प्रकार संज्ञान कोई अलग तथा बिल्कुल विशिष्ट अर्थ प्रदान करनेवाला नया ज्ञानवाची पद तो नहीं है, पर इसके मूलार्थ में “सम्यक् ज्ञान'' का भाव अवश्य निहित है। संज्ञान एक सरल प्रत्यय है। इसकी भी परिभाषा कर पाना कठिन है। प्रायः सभी मनुष्य यह दावा जरूर करेंगे कि उन्हें किसी-न-किसी प्रकार का संज्ञान है। फिर भी, हमें यह तो मानना ही पड़ेगा कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड संज्ञान का विषय है। सृष्टि-प्रक्रिया में संज्ञान की उपादेयता सर्वोपरि है क्योंकि स्थूल तथा सूक्ष्म विषयों में यह भिन्नता का बोध कराता है । प्रकारान्तर से इसी संज्ञान के उदय से विवेक उत्पन्न होता है और विवेक से नित्यानित्य वस्तु का अन्तर-ऐहिक तथा पारलौकिक विषयों का भेद समझ में आता है, उनके प्रति दृष्टि स्पष्ट होती है और अन्ततः निःश्रेयस की उपलब्धि का मार्ग सुगम बनता है। सामान्यत: किसी भी प्रकार की सूचना जो अध्ययन, श्रवण, दर्शन या भावों के द्वारा सम्यक् रूप में मिलती है, उसे बिना किसी भेद-भाव तथा पक्षपात के हम अपने संज्ञान का विषय बनाते है । जब हमारी चिन्तन-शक्ति को अपेक्षित पौढ़ता प्राप्त होती है तब हम अपने संज्ञान के विषय में सोचने लगते हैं क्योंकि संज्ञान के विचार-विमर्श हेतु विकसित मस्तिष्क, तर्कबुद्धि तथा ऊर्जा की जरूरत है। व्युत्पति के अनुसार सम्यक् ज्ञायते अनेन इति संज्ञानम् अर्थात जिसके द्वारा लौकिक तथा अलौकिक पदार्थों को सम्यक् रूप में जाना जाय, वह संज्ञान है । वाचस्पति मिश्र ने भामती में ज्ञान का लक्षण बतलाते हुए कहा है कि जिससे अर्थ या विषय प्रकाशित हो वह ज्ञान है। आधुनिक पाश्चात्य मनोविज्ञान भी संज्ञान अर्थात् स्वसंवेदन के पूर्व ज्ञान किंवा संवेदन का औचित्य स्वीकार करता है । उसकी मान्यता है कि सभी प्रकार का स्वसंवेदन अतीत अनुभव पर आधारित है, तथाकथित आदतजन्य कारकों पर निर्भर है।' मन्न के शब्दों में "जिसे हम किसी विषय का अर्थ कहते हैं, वह विषय, स्थिति या घटना अनेक उदाहरणों में अतीत में उत्तेजित करने वाली बातों पर निर्भर करती खण्ड २१, अक १ २७ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। आधुनिक मनोविज्ञान का गेस्टाल्ट सम्प्रदाय भी स्वीकार करता है कि ज्ञानात्मक प्रक्रिया में अनेक तत्त्वों का हाथ है जिसे वे (Ground, Figure) आदि कहते हैं। अतः मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ज्ञान को (Ground) कहा जा सकता है जबकि संज्ञान को (Figure)। जैन-दर्शन में संज्ञान का स्वरूप जन साहित्य के दार्शनिक ग्रन्थों में उमास्वाती का तत्वार्याधिगमसूत्र, सिद्धसेन दिवाकर का न्यायावतार, समन्तभद्र की आप्तमीमांसा, हेमचन्द्रसूरी की प्रमाणमीमांसा, देवासूरी का प्रमाणतत्वालोकालंकार, मानिक्य नन्दी का परीक्षामुखपत्र, प्रभाचन्द्र का प्रमेयकमलमार्तण्ड, आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार, पंचास्तिकाय एवं प्रवचनसार, यशोविजय का न्यायप्रदीप आदि महत्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ हैं जिसमें ज्ञान, संज्ञान, प्रमा, प्रमाण आदि विषयों को उचित स्थान मिला है। जैन-दर्शन संज्ञान को गुण मानता है, पर उसे वह न तो भौतिक तत्वों का आगंतुक गुण मानता है और न ही आत्मा का आगन्तुक गुण । फलतः जैन-दर्शन का संज्ञान मूलक विचार चार्वाक, न्याय-वैशेषिक तथा मीमांसा के मतों से भिन्न हो जाता है। चेतना अथवा ज्ञान जीव का अनिवार्य गुण है। किन्तु जैन दृष्टि में गुण का वही अर्थ नहीं है जो न्यायवैशेषिक दर्शन में माना गया है । न्यायवैशेषिक दर्शन में द्रव्य तथा गुण की भिन्न-भिन्न सत्ताएं हैं जो समवाय पदार्थ से सम्बन्धित हैं । जैन दार्शनिक प्रायः न तो द्रव्य और गुण का भेद स्वीकार करते हैं और न उन दोनों में समवाय सम्बन्ध ही मानते हैं । वे द्रव्य के दो प्रकार के विशेषण स्वीकार करते हैं जिसे वे गुण तथा पर्याय कहते हैं । गुण तथा पर्याय के भेद तथा उनके परस्पर सम्बन्ध को लेकर जैन दार्शनिकों में आपस में मतभेद हैं । सिद्धसेन दिवाकर, हरिभद्र, हेम चन्द्र, यशोविजय आदि इस सम्बन्ध में अभेदवाद को मान्यता देते हैं ।' उनका मत है कि गुण तथा पर्याय वास्तव में एक ही प्रकार के विशेषण हैं तथा इनमें नाम मात्र का भेद है। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वाति, पूज्यपाद, विद्यानन्द आदि गुण तथा पर्याय में भेद स्वीकार करते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि हमारे ज्ञान के विषय द्रव्य होते हैं जो गुणों से विशिष्ट तथा पुनः पर्याय से सम्बन्धित हैं । गुण सहभावी होते हैं तथा पर्याय क्रमभावी । गुण अपरिवर्तित रहते हैं जबकि पर्याय परिवर्तित होते रहते हैं। गुण द्रव्य के आन्तरिक विशेषण है जबकि पर्याय उसके बाह्य विशेषण माने जा सकते हैं। अकलंक तथा वादिदेव का मत भेदाभेद का है इनके अनुसार गुण द्रव्य में कालाभेदाप्रेक्षया स्थित होते हैं जबकि पर्याय कालविभेदाप्रेक्षया स्थित होते हैं। किन्तु दोनों ही धर्म्यपेक्षया दोनों से अभेदता भी रखते हैं। सांख्य दर्शन में संज्ञान का स्वरूप सांख्य-दर्शन के साहित्य में आचार्य कपिल का सांख्य सूत्र, ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका, वाचस्पति मिश्र की सांख्यतत्वकौमुदी, विज्ञान भिक्षु का सांख्यप्रवचनभाष्य, सांख्यसार आदि कृतियों का महत्वपूर्ण स्थान है जिनमें ज्ञान, संज्ञान, प्रमा, २८ तुलसी प्रज्ञा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण आदि विषयों का स्पष्ट उल्लेख है। ___ सांख्य शब्द के दो अर्थ अधिक प्रसिद्ध हैं -- संख्या और ज्ञान । इसका दूसरा अर्थ ही अधिक संगत प्रतीत होता है- प्रकृति और पुरुष, जड़-चेतन, आनात्मा--आत्मा के पार्थक्य का सम्यक् ज्ञान । यही सांख्य-दर्शन का उद्देश्य है।' सांख्य दर्शन में सम्यक ज्ञान अर्थात् संज्ञान को पुरुष का गुण या कर्म नहीं माना गया है उसे चैतन्य अवश्य कहा जाता है और चैतन्य स्वयं में तत्व है, किसी का गुण कर्म नहीं। उसे किसी अधिष्ठान की आवश्यकता नहीं है । सांख्य दर्शन में संज्ञान का यह प्रथम अर्थ है। इसके अतिरिक्त, सांख्य दर्शन में संज्ञान शब्द का प्रयोग व्यावहारिक संज्ञान के रूप में भी हुआ है । यहां ज्ञान को बुद्धि की वृत्ति की रूप में स्वीकार किया जाता है।" सांख्य दार्शनिकों का मत है कि पहले विषय का इन्द्रियों से संयोग होता है, इन्द्रिय मन को विषय समर्पित करती है, मन उस विषय को अहंकार तक पहुंचाता है और अहंकार उसे बुद्धि को समर्पित करता है । बुद्धि सत्व गुण के आधिक्य के कारण दर्पण की भांति है जो विषयाकार को ग्रहण कर लेती है । बुद्धि के विषयाकार को ही वृत्ति कहा जाता है । एक ओर बुद्धि, विषयाकार होती है तथा दूसरी ओर पुरुष द्वारा प्रकाशित होती है। अतः बुद्धि की वृत्ति के रूप में व्यावहारिक संज्ञान उत्पन्न हुआ माना जाता है। पूनः सांख्य दर्शन संज्ञान के स्वप्रकाश सिद्धांत को स्वीकार करता है जिसका अर्थ होता है कि संज्ञान अपने आपको स्वयं ही सम्यक् रूप में प्रकाशित करता है।" इस सिद्धांत के अनुसार संज्ञान की उत्पति तथा उसका प्रकाश साथ-साथ होता है। सत्व गुण संज्ञान को उत्पन्न करता है तथा तमस् तथा रजस् गुण उसकी उत्पत्ति में बाधक होते हैं। साथ ही, सत्व गुण संज्ञान के प्रामाण्य को भी प्रकाशित करता हैं तथा तमस् एवं रजस् उसके प्रामाण्य को धूमिल करते हैं। इस बात को ध्यान में रखने से यह सरलता से स्पष्ट हो जाता है कि संज्ञान का प्रामाण्य उत्पति तथा ज्ञप्ति दोनों ही दृष्टि से स्वतः है तथा उसी प्रकार संज्ञान का अप्रामाण्य भी दोनों ही दृष्टियों से स्वतः है। सांख्य-दर्शन पर योग-दर्शन का काफी प्रभाव है । इससे प्रभावित होकर उसकी मान्यता है कि हमारा चित जितना ही अधिक निर्मल तथा शांत होता है, सत्व के प्रभाव से उसका संज्ञान उतना ही स्पष्ट तथा प्रामाणिक होता है। उसमें तमस् तथा रजस् की मात्रा जितनी अधिक होती जाती है संज्ञान में अस्पष्टता तथा धूमिलत होने के कारण वह उतना ही अप्रामाण्य हो जाता है। इस प्रकार, प्रत्येक ज्ञान में प्रामाण्य तथा अप्रामाण्य एक साथ स्वतः विद्यमान होते हैं तथा व्यावहारिक स्तर का वृति रूप कोई भी संज्ञान पूर्णरूपेण प्रामाण्य अथवा अप्रामाण्य की कोटि में नहीं आता। इस प्रकार जैन और सांख्य दर्शनों में संज्ञान का स्वरूप निम्न प्रकार प्राप्त होता है-(i) जैन-दर्शन में संज्ञान जीव अर्थात् आत्मा में स्वीकार किया गया है जबकि सांख्य-दर्शन में संज्ञान प्रकृति के महत् अर्थात् बुद्धि तत्व में स्वीकार किया गया है। (ii) जैन-दर्शन संशान को ही प्रमाण तथा प्रमा दोनों मानते हैं जबकि सांख्य चितवृत्ति को प्रमाण और संज्ञान को प्रमा मानते हैं । (iii) जैन-दर्शन के अनुसार संज्ञान आत्मा का धर्म है जो इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना सीधे आत्मा से होनेवाला साक्षात् ज्ञान है । किन्तु सांख्य दर्शन में ऐसी कोई कल्पना नहीं है। (iv) जैन दर्शन का खंड २१, अंक १ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण-विभाजन विशिष्ट प्रकार का है जिसमें प्रत्यक्ष, स्मृति, तर्क, प्रत्यभिज्ञा, अनुमान और शब्द ये छः प्रमाण स्वीकृत हैं । इसके विपरीत, सांख्य का प्रमाण-विभाजन सामान्य है जिसमें प्रत्यक्ष, अनुमान तथा शब्द ये तीन प्रमाणों की ही चर्चा होती है। (v) जैन मत में प्रामाण्य तथा अप्रामाण्य उत्पति में परत: और ज्ञप्ति में स्वतः और परतः ग्राह्य हैं । अभ्यासदशा में ज्ञान को प्रमाणित करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की अपेक्षा नहीं होती जबकि अनभ्यास दशा में ज्ञान की सत्यता प्रमाणित करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की अपेक्षा होती है । इसके विपरीत, सांख्य दर्शन संज्ञान के प्रामाण्य तथा अप्रामाण्य को स्वतः मानता है। इस प्रकार जैन तथा सांख्य दर्शनों में साम्य नहीं दीखता किन्त वास्तव में दोनों में बहुत अधिक साम्य हैं । दोनों ही दर्शन वास्तववादी है और उनमें वास्तविकता की दृष्टि से ही विषयों तथा वस्तुओं का सम्यज्ञान अर्थात् संज्ञान प्राप्त करने का आग्रह किया जाता है। अन्त में कहा जा सकता है कि जैन तथा सांख्य दर्शनों के संज्ञान-विषयक विचार का भारतीय दर्शन में महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि दोनों ही दर्शन सम्यक् ज्ञान को मानव के नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास का आधार मानते हैं। जैन दर्शन के अनुसार जो व्यक्ति विषय को सम्यक् प्रकार से जानता है, जो विवेकशील है, वह संज्ञी है और केवली संज्ञी व्यक्ति अर्थात् विवेकशील व्यक्ति ही मोक्ष का अधिकारी है। पंचसंग्रह संज्ञी के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा है कि किसी कार्य को करने के पूर्व कर्तव्यअकर्तव्य की मीमांसा करने वाले, तत्त्व-अतत्त्व का विचार करने वाले और संयत भाषा व्यवहार करने वाले व्यक्ति समनस्क (मानसिक शक्ति से युक्त अर्थात् संज्ञान से युक्त) है । अतः जैन दर्शन में संज्ञी" तथा संज्ञान से युक्त व्यक्ति को ऊंचा दर्जा प्राप्त सांख्य दर्शन में बुद्धि तत्व जड़ होते हुए भी चेतनवत् है और इसलिए उसमें ही संज्ञान उत्पन्न होता है । वस्तुत: सांख्य की ज्ञान मीमांसा में हमें संज्ञान को प्रकृति में नव्योक्रान्त गुण (emergent quality) के रूप में ही समझना चाहिए। नव्योत्क्रान्ति को मानने वाले दार्शनिकों का कहना है कि भौतिक विकास की एक विशेष अवस्था प्राणतत्व की अवस्था विशेष में चेतना का उद्गम होता है । -द्वारा श्री सत्यदेव तिवारी ग्राम--चावक (पक्कापर) पो० चावक जिला--भोजपुर-८०२३१२ (बिहार) लसी प्रज्ञा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ १, बुद्धिरूपलब्धिर्ज्ञाननित्यनान्तरतम् --न्यायसूत्र १.१.१५ २. योऽयमर्थप्रकाशः फलम् --भामती ३. "All perceiving is dependent upon past experience the so--- called habit factors" -Psychology : The fundamental of Human Adjustment p-325 8. "What we call the meaning of an object, situation or event is in most instances dependent upor how it has stimulated us in the past" -Ibid-p. 325 ५. चेतना लक्षणो जीव : -षड्दर्शनसमुच्चय ४७ पर गुणरत्न की टीका देखिए । ६. भारतीय दार्शनिक समस्याएं -न० कि० शर्मा, पृ. ९ ७. प्रवचनसार -अध्याय २ ८. संख्यान्ते-गणयन्ते च तत् सांख्यम् । संख्याते प्रकृति-पुरुषान्ययाख्यातिरूपोऽबबोधो सम्यग्ज्ञायते येनतत् सांख्यम् ९. व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञात्। --- सांख्यकारिका २ १०. भारतीय दार्शनिक समस्याएं -न० कि० शर्मा पृ०७१ ११. उपखित् पृ.७१ १२. पंचसंग्रह --१.१७४ १३. संज्ञिनः समनस्का -तत्वार्थ सूत्र, २।२४ खण्ड २१, अंक १ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भगवती' में सृष्टि तत्त्व - पंचास्तिकाय भगवती सूत्र में विश्व के लिए "लोक" शब्द का प्रयोग किया गया है । लोक शब्द का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है "जो लोक्कए से लोए "" अर्थात् जो देखा जाता है, वह लोक है । यह लोक की अत्यन्त स्थूल परिभाषा है । इस परिभाषा से केवल इन्द्रिगम्य दृश्यजगत् का ही ग्रहण होता है । लोक की वास्तविक या तात्त्विक परिभाषा करते हुए भगवान् महावीर ने कहा - "लोक पंचास्तिकाय रूप है। पांच अस्तिकाय हैंधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय व पुद्गलास्तिकाय | अधिक स्पष्टता के लिए मननीय है कि अखंड आकाश का वह भाग जिसमें पंचास्तिकाय विद्यमान हैं, लोक कहा जाता है। भगवती सूत्र में समुपलब्ध इस परिभाषा के आधार पर विशेष ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि निस्सीम आकाश दो भागों में विभक्त है-लोकाकाश व अलोकाकाश । जिस आकाशीय भाग में पंच निरपेक्ष मौलिक तत्त्वों की सहावस्थिति है - वह लोकाकाश की संज्ञा से अभिहित है । शेष द्रव्य शून्य एकमात्र असीम आकाश तत्त्व की ही सत्ता जहां प्रसारित है वह अलोक (रिक्त आकाश Anti Universe) कहलाता है । * [ समणी चैतन्यप्रज्ञा आगम-युग के अनन्तर दर्शन युग में अस्तिकाय की विचारधारा ने द्रव्य का स्थान लिया । परिणामतः भिन्न-भिन्न दार्शनिक प्रस्थानों ने विश्व के मूल में भिन्नभिन्न द्रव्यों की कल्पना की । न्याय-वैशेषिक मत में क्रमश: १६ व ७ पदार्थों' सांख्य व योग में पुरुष और ईश्वर सहित २५ व २६ तत्वों, ' मीमांसा व वेदान्त में, चार्वाक मत में पंचभूत', बौद्ध मत में पंचस्कन्ध, की कल्पना स्थिर हुई। जैन दर्शन में षड्द्रव्य की कल्पना ने मान्यता प्राप्त की । इस संदर्भ में लोक की परिभाषा में आगमिक विचार धारा का विकसित रूप सामने आया । आचार्यों ने " षड्द्रव्यात्मको लोकः ' अर्थात् छः द्रव्यों की सहसमन्विति का नाम लोक या विश्व रखा । षड्द्रव्य की कल्पना में काल - द्रव्य की स्वीकृति वैश्विक मूलतत्त्व के रूप में हुई । काल द्रव्य की सत्ता आगम-युग से स्वीकृत व मान्य" होते हुए भी आगमकालीन विश्व - परिभाषा के साथ इसे न जोड़ने का एक मात्र कारण इसका "अस्तिकाय" न होना ही प्रतीत होता है । इस तरह पंचास्तिकाय का विकसित रूप ही षड् द्रव्य है । 1120 छः द्रव्यों के अभिधावन इस प्रकार है १. धर्मास्तिकाय : गतिसहायक द्रव्य ( Medium of Motion ) खण्ड २१, अंक १ ३३ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. अधर्मास्तिकाय : स्थिति सहायक द्रव्य ( Medium of Rest ) ३. आकाशास्तिकाय आश्रय देने वाला द्रव्य (Space) ४. काल : समय ( Time ) ५. जीवास्तिकाय : ज्ञातृस्वभाव वाला द्रव्य ( Soul of Conciousness) ६. पुद्गलास्तिकाय: ग्रहणधर्म वाला द्रव्य ( Matter) अस्तिकाय की स्वीकृति जैन दर्शन की नूतन व मौलिक खोज है । भगवान् महाबीर से पूर्व ऐसी किसी विचारधारा का दर्शन नहीं होता है । सर्वप्रथम पंचास्तिकाय के अस्तित्व की स्वीकृति भगवान् महावीर के दर्शन में ही देखी जाती है । इसके साक्ष्य हैं भगवती का ७ वां व १८ वां अध्याय ( शतक ) । भगवान् महावीर ने जब पंचास्तिकाय का प्रतिपादन किया व स्वरूप बतलाया तब तत्कालीन दार्शनिक विचारधाराओं से संबंधित चिन्तकों में इस नवीन प्रस्थान के विषय में शंका, इनके अस्तित्व के प्रति संदेह और तद्विषयक ऊहापोह हुआ । भगवती सूत्र में यत्र तत्र इसके साक्ष्य देखे जाते हैं । भगवान् महावीर, उनके शिष्य इन्द्रभूति गौतम और भक्त श्रमणोपासक मद्रक के साथ अन्य मतावलम्बियों की सुदीर्ध चर्चाएं इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं कि पंचास्तिकाय के प्रथम प्रवर्तक भगवान् महावीर हैं । प्राचीन समय से लेकर आज तक जबकि विज्ञान की प्रगति काफी हो चुकी है । पुद्गल को छोड़कर शेष द्रव्यों के अस्तित्व के विषय में संदेह बना हुआ है । यद्यपि आधुनिक विज्ञान ने धर्मास्तिकाय को ईथर के रूप में स्वीकार किया है तथापि उसका स्वरूप उतना स्थिर व असंदिग्ध नहीं रह पाया जैसा धर्मास्तिकाय का है । आत्मतत्त्व की ओर विज्ञान का झुकाव हुआ है । फिर भी अतीन्द्रिय ज्ञान - गोचर विषयों को इन्द्रिय और उपकरण के माध्यम से जान पाना असंभव ही प्रतीत होता है । यही कारण है कि इन अदृश्य, अभौतिक, अनिन्द्रीय तत्त्वों की स्पष्ट स्वीकृति व निश्चित व्याख्या अन्वेषणों का विषय नहीं बन पाई है । अध्यात्मविदो ने आत्मप्रत्यक्ष के आधार पर अवश्य स्पष्ट स्वीकृति व सुनिश्चित व्याख्या प्रस्तुत की है । इन तत्त्वों के अस्तित्व संबंधी प्रश्न भगवान् महावीर के सामने भी उपस्थित हुए। एक बार भगवान् महावीर का राजगृह नगर के गुणशीलक चैत्य में शुभागमन हुआ । उसके कुछ ही दूर पर अन्य मतावलम्बी कालोदायी शैलोदायी, शैवालादायी, उदय, नर्मोदय, अन्य पालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ती गृहपति रहते थे । एकदा वे चर्चा करते हैं कि "निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र ( महाबीर ) पंचास्तिकाय का प्रतिपादन करते हैं । पुद्गल को छोड़कर शेष को अमूर्त व अभौतिक तथा जीवास्तिकाय के अलावा चार द्रव्यों को अजीव (चेतनाशून्य) बतलाते हैं । अमूर्त अजीव द्रव्यों का अस्तिकाय कैसे स्वीकार किया जाय ?१८ चर्चा के दौरान इन्द्रभूति गौतम का वहां से गुजरना हुआ । अन्य तीर्थिकों ने अपनी शंका उनके सामने प्रस्तुत की । गौतम ने कहा – “हम श्रमण अस्तिभाव ३४ तुलसी प्रज्ञा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ ( विद्यमान ) को नास्ति ( अविद्यमान ) नहीं कहते और न नास्ति को अस्ति कहते कहने का तात्पर्य है कि धर्मास्तिकाय की सत्ता है, इसलिए महावीर ने इनका प्रतिपादन किया है । कालोदायी तदनन्तर महावीर के समीप जाकर प्रश्न करता है । महावीर ने कहा - " कालोदायी ! मैं पंचास्तिकाय का प्रतिपादन करता हूं। उनमें चार को अमूर्त व पुद्गल को मूर्त बतलाता हूं ।' १२० कालोदायी ने एक जिज्ञासा और प्रस्तुत की। पूछा - " भगवान् ! क्या धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय इन अरूपी अजीवकायों पर कोई बैठनेउठने, सोने, खड़े रहने में समर्थ है ?२१ 7 महावीर ने प्रत्युत्तर में कहा कि ऐसा कहना ठीक नहीं है। एक पुद्गलास्तिकाय मूर्त अजीव द्रव्य है, जिस पर कोई भी बैठने, सोने आदि की क्रियाओं को सम्पादित कर सकता है । भगवान् महावीर के अनन्य उपासक मद्रुक द्वारा दिए गए पंचास्तिकाय विषयक तार्किक समाधान इस प्रसंग में अधिक मननीय है । मद्रुक किसी समय भगवत्दर्शनार्थ जाते हैं । अन्यतीर्थिकों से मध्य में मिलन होता है । परमतवादियों ने शंका प्रस्तुत करते हुए कहा कि ज्ञातपुत्र प्ररूपित पंचास्तिकाय को सचेतन-अचेतन या मूर्त-अमूर्त कैसे माना जाए, जबकि वे अदृश्यमान् होने के कारण अस्तित्वहीन हैं। मद्रुक संशय का निराकरण करते हुए कहता है कि- :-" धर्मास्तिकायादि कार्य करते हैं । कार्य के आधार पर ही हम उन्हें जानते व देखते हैं । यदि वे कार्य न करते तो हम उन्हें नहीं जानते-देखते ।' २४ अन्य मतवादियों का मद्रुक के प्रति यह आक्षेप था कि जो चीज प्रत्यक्षगम्य नहीं है उसकी सत्ता को कैसे स्वीकार करते हो ? २५ इस संदर्भ में मद्रुक ने जिन युक्तियों का सहारा लिया वे अकाट्य हैं और पंचास्तिकाय के अस्तित्व को सिद्ध करने में कारगर सिद्ध होती हैं। प्रश्नों की एक लम्बी श्रृंखला प्रस्तुत करते हुए मद्रुक व अन्यमतवादियों के बीच जो रोचक वार्तालाप चलता है वह न केवल तत्कालीन मतवादियों को ही समाधान देता है अपितु वर्तमान विज्ञान वादी और तार्किक व बौद्धिक आधार पर समाधान की आशा रखने वाले व्यक्ति को भी सोचने के लिए बाध्य करता है । वार्तालाप इस प्रकार है मद्रुक - आयुष्मान् ! यह ठीक है कि हवा बहती है ? अन्य हां, यह ठीक है । मद्रुक हे आयुष्मान् ! क्या तुम बहती ( चलती हुई हवा का रूप देखते हो ? अन्य --- यह संभव नहीं । मद्रुक - आयुष्मान् ! नासिका में प्रविष्ट होने वाली गंध है ? अन्य - हां, है । मद्रुक -- आयुष्मान् ! क्या तुमने उन घ्राणसहगत गन्ध के पुद्गलों का रूप देखा है ? खंड २१, अंक १ ३५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य-यह असंभव है। मद्रुक-आयुष्मान् ! क्या अरणी की लकड़ी में रही हुई अग्नि का रूप देखते हो? अन्य -- यह शक्य नहीं है। मद्रुक–आयुष्मान् ! समुद्र के उस ओर मूर्त पदार्थ है ? अन्य हां, है। मद्रुक-आयुष्मान् ! क्या तुम उनके रूप को देखते हो? अन्य-देखना संभव नहीं है । मद्रुक --- क्या स्वर्ग (देवलोक) में मूर्त (रूपी) पदार्थ है ? अन्य-हां, है। मद्रुक-आयुष्मन् ! क्या तुम देवलोकगत पदार्थों के रूपों को देखते हो ? अन्य-देखना संभव नहीं है । ६ मद्रुक ने इन प्रश्नों के अनन्तर प्राप्त उत्तरों के आधार पर कहा कि जिस प्रकार हवा, गन्धगत पुद्गल, अरणि में स्थित ज्वाला, समुद्र के दूसरे छोर पर रही हुई वस्तुएं, देवलोक के पदार्थ आदि प्रत्यक्षगम्य नहीं होने पर अन्य मतवादी उनके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं । तब पंचास्तिकाय का अस्तित्व अदृश्यमान् होने मात्र से अमान्य कैसे हो सकता है। यदि इन्द्रियगोचर नहीं होने मात्र से अस्तित्व शून्यता सिद्ध होती है तब तो संसार से बहुत पदार्थों का अभाव हो जाएगा। अतः अतीन्द्रिय और प्रज्ञा के विषय भूत धर्मास्तिकायादि का अस्तित्व उनके कार्यों के आधार पर (अनुमान प्रमाण से) मानना व जानना चाहिए ।?" भगवती सूत्र में प्राप्त इन प्रमाणों के अनुसार पंचास्तिकाय का अस्तित्व दो दृष्टिकोणों से सिद्ध होता है । निरपेक्ष सत्ता (Absolule Being) के आधार पर जिसका साक्षात्कार सर्वज्ञ महावीर ने किया। दूसरा मद्रक के वैज्ञानिक हेतुवाद "व्यवहार" (Behaviour) के आधार पर । आधुनिक विज्ञान ने भी परमाणु के अस्तित्व की सिद्धि विविध व्यवहारों के आधार पर की है । परमाणु जैसे सूक्ष्म और अविभाज्य अंश' को नेत्र अथवा उपकरणों के माध्यम से देख पाना असंभव है। यंत्रों को कितना ही संवेदनशील बना लिया जाय सूक्ष्म जगत् को जानना वस्तुतः दुःसाध्य कार्य है । अलबर्ट आइंस्टीन के शब्दों में "यह आशा करना भी घातक साबित होगा कि और अधिक सूक्ष्म यंत्रों के निर्माण से मनुण्य सूक्ष्म जगत् में अधिक गहराई से प्रवेश पा सकेगा।" धर्मादि पांच द्रव्यों को "अस्तिकाय" कहने का तात्पर्य है ये सावयवी हैं।" तर्क की भूमिका पर “यत्-यत् सावयवं तत्वदनित्यम्"-यह न्याय प्रचलित है । किन्तु भगवती में आये हुए तत्त्व वर्णन को देखने से पता चलता है कि यह तर्क कृतक सावयवी पदार्थों के संदर्भ में ही अपनी अर्थवत्ता सिद्ध करता है । अकृतक सावयवी में ऐसा नियम नहीं है । दूसरे शब्दों में कहें तो यह कहा जा सकता है कि ये सारे नियम तुलसी प्रज्ञा Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूल-जगत् पर लागू होते है सूक्ष्म-जगत् में इनकी पैठ नहीं है। यही कारण संभाव्य है कि “धर्मास्तिकायादि पंचतत्त्व सावयव (सप्रदेशी) होते हुए भी शाश्वत (नित्य) हैं। सर्वदा अपने अस्तित्व को बनाये रखते हैं।" ___इस प्रकार वैज्ञानिक अनुसंधानों के अनुशीलन व विविध दार्शनिक प्रस्थानों के अध्ययन से इन षड्-द्रव्यों से अतिरिक्त किसी तत्त्व की सत्ता प्रतीति का विषय नहीं बनती है । विश्व के प्रपंच को सांख्य की प्रकृति-लय की प्रक्रिया के सदृश्य मूल तत्त्वों में अर्थात् कारण तत्त्वों में लीन किया जाय तो निरपेक्ष, शाश्वत व स्वयंम्भू सत्ता के रूप में इन छः द्रव्यों का अस्तित्व ही अनुभूति का विषय रह जाता है। दृश्यमान् विश्व माया के विस्तार में छः में से दो तत्त्वों का विशिष्ट योगदान है; वे हैं -पुद्गलास्तिकाय व जीवास्तिकाय । दूसरे शब्दों में जड़ व चेतन इनके विविध रूपों में संयोग और वियोग से दृश्य-जगत् की सर्जना होती है ।२ शेष द्रव्य इनकी गति, स्थिति, आश्रय व परिवर्तन आदि" में हेतुभूत् बनते हैं । सांख्यमत भी जैनमत की तरह दो तत्त्वों के संयोग से सृष्टि-विकास की प्रक्रिया को स्वीकार करता है; वे हैं -प्रकृति व पुरुष । संदर्भ-सूची १. (क) भगवती सूत्र; ५/९/२२५ (ख) यो लोक्यते विलोक्यते प्रमाणेन सः लोको-लोक शब्द वाच्यो भवतीति । (भगवती वृत्ति)-विश्व प्रहेलिका; पृ० ७२ २. किसियं भंते ! लोएत्ति पवुच्चह ! गोयमा ! पंचत्थिकाया, एस णं एवतिए लोएत्ति पवुच्चइ, तं जहा-धम्मत्थिकाए, अहम्मत्थिकाए जाव पोगगल त्थिकाए । भ० सूत्र०, १३/४/४८ । ३. (क) गोयमा ! दुविहं आगासे वण्णत्ते तं जहा लोयागासे य अलोगागासे य । भ० सूत्र ! २/१०/१२० (ख) लोकोऽलोकश्च । -श्री जैन सिद्धांत दीपिका; २/७ ४. (क) भवेदभ्रास्ति कायस्तु लोकालोकभिदा द्विधा । लोकाकाशस्तिकायः स्यात्तत्रासंख्यप्रदेशकः ।। -लोकप्रकाश २/२५ (ख) शेष द्रव्यशून्यमाकाशमलोकः (Illminator of Jaina Tenets,)2/13 ५. षड्दर्शन समुच्चय; १४, ६० ६. सांख्यकारिका, का० २२ ७. षड्दर्शन समुच्चय; ७८ ८. षड्दर्शन समुच्चय; ८३ ९. षड्दर्शन समुच्चय; श्लोक ५ १०. (क) श्री जैन सिद्धांत दीपिका, १/८-षड्द्रव्यात्मको लोकः । (ख) धम्मो अधम्मो आगासं, कालो पुग्गल-जन्तवो एक लोगोत्ति पन्नत्तो, जिणेहि वरदंसिहि ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र; २८/७ पण २१, अंक १ . Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. भ० सूत्र, २/१२५-१२९ १२. वही, २/१२५ - "गुणओ गुमणगुणे।" १३. वही, २/१२६ ---- गुणओ ठाणगुणे । १४. वही २/१२७ गुणओ अवगाहणा गुणे । १५. श्री जैन सिद्धांत दीपिका, १/२२-कालः समयादिः । १६. भगवती सूत्र--२/१२८ गुणओ उवओगुणे । १७. वही, गुणओ गहणगुणे । १८. भ० सूत्र, ७/२१२,२१३ १९. बही, ७/२१७ --नोखलु वयं देवाणुप्पिया ; अत्थिभाव नत्थि त्ति बदामो, नति भावं अत्थित्ति बदामो । २०. वही, ७/२१८ २१. वही, ७/२१९ २२. वही, ७/२१९ २३. वही, १८/१३९ २४. वही, १८/१४० ---जति कज्ज कज्जति जाणामो-पासामो, अहे कज्जं न कज्जति न जाणामो न पासामो। २५. १८/१४१ २६. वही, १८/१४२ २७. वही, १८/१४२ २८, Illuminator of Jaina Tenets; १/१६ अविभाज्य; परमाणुः २९. डॉ० आइन्सटीन और बह्माण्ड, अ. प. पृ. ३३ ३०, भगवती सूत्र, २/१३४-१३५ “गोयमा ! असंखेज्जा धम्मत्थिकायपदेसा, ते सव्वे कसिणा, पडिपुण्णा, निरवसेसा, एकग्गहणगहिया ....।" "एवं अधम्मात्थिकाए वि......।" ३१. (क) भगवती सूत्र, २/१२५-१२९ -धुवे, णियए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवद्धिए, णिच्चे । (ख) तत्त्वार्थ सूत्र ५/३ -नित्यावस्थितान्यरूपाणि ३२. जीवपुद्गलयोविधिसंयोगैः स विविधरूपः । ३३. १/२३ वर्तना-परिणाम-क्रिया-परत्वापरत्वादिभिर्लक्ष्यः । ३४. सांख्यकारिका, का० २१--षड्ग्वन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृत सर्गः । तुलसी प्रज्ञा Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवैकालिक और धम्मपद में भिक्षु साध्वी संचितयशा स्वयं भू धर्म में निरत और भूमा के सुख में आसक्त प्राणी भिक्षु शब्द वाच्य है । सर्वस्व त्याग जन्य आकिंचन्य से त्रैलोक्याधिपत्य विभूषित सम्राट किंवा स्वराट् पद्वी पर अधिभूषित होने वाला भिक्षु होता है । देखने में अकिंचन होता है लेकिन करने में त्रिलोकनाथ । बाह्य रूप से उसके पास तो कहने को कुछ नहीं होता लेकिन सम्पूर्ण विश्व की विभूषिता शक्ति को अधिकृत करने की कला को वह सहज ही हस्तगत कर लेता है। उसकी चरण यात्रा तो सोमा से प्रारम्भ होती है लेकिन वह उस असीम में अधिष्ठत हो जाता है, जहां पर 'सव्वे सरा णियदन्ति तत्थ', 'न तत्र चक्षुर्गच्छति' 'नैषा तर्केण मतिरापनेया', 'नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यः', 'यमेवैषवणुते तेन लभ्यः'रूप शाब्दिक-मूक्तियां सम्पूर्णतया संगठित हो जाती है । भिक्षु-वर्ग विश्व का एक प्रभावशाली संगठन है । धर्म के उत्कर्ष के साथ-साथ धार्मिकों का भी उत्कर्ष होता है । धार्मिकों का नेतृत्व भिक्षु वर्ग के हाथ में रहता है। इस भिक्षु-वर्ग का उदय किम काल में हुआ ? यह अनुसंधेय प्रश्न है। वेद संहिताओं में 'भिक्षु' शब्द नहीं मिलता। ब्रह्मचारिन् का भिक्षाटन मिलता है वह भिक्षु-जीवन के कर्तव्यों से सर्वथा भिन्न है फिर भी ब्रह्मचारी के गुण और भिक्षु के आन्तरिक गुण समकक्ष प्रतीत होते हैं । पुराणों में मुनि, महषि, सन्यासी, ऋषि, परमर्षि इत्यादि शब्द मिलते हैं । उपनिषदों, स्मृति ग्रंथों में 'भिक्षु' शब्द मिलता है । जैन आगम और बौद्ध त्रिपिटकों में भी 'भिक्षु' शब्द का उल्लेख है । भिक्षु कौन होता है ? क्यों वह समाज के संबंधों को विच्छिन्न कर इस मार्ग को अपनाता है ? उसके क्या कर्त्तव्य हैं ? क्या नियम हैं ? -... इन सबका उल्लेख उपर्युक्त ग्रंथों में मिलता है । यहां हम ‘दसवैकालिक' एवं 'धम्मपद' के परिप्रेक्ष्य में 'भिक्षु कौन होता है' ? इस पर विचार करेंगे। १. अहिंसक भिक्षु वह होता है जो किसी भी प्राणी को मन, वचन, काया से पीड़ित नहीं करता । प्राणियों को पीड़ित नहीं करना ही अहिंसा है । 'अहिंसा' मुनि का परम धर्म है। महाभारत (शान्ति पर्व) में कहा है-'अहिंसा सकलो धर्म:-अहिंसा ही संपूर्ण धर्म है । दसवै कालिक और धम्मपद में भी कहा है---भिक्षु को अहिंसक होना चाहिए। धम्मपद में उल्लिखित है खण्ड २१, अंक १ ३९ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसका ये मुनयो निच्चं कायेन संवुता । ते यन्ति अच्चुतं ठानं यत्थ गन्त्वा न सोचरे ॥' अर्थात् जो मुनि अहिंसक हैं, शरीर से जो सदा संयत रहते हैं, वे अव्युत पद को प्राप्त होते हैं, जहां शोक नहीं रहता। न तेन आरियो होति येन पाणानि हिंसति । अहिंसा सब्बपाणानं आरियो ति पच्चति ॥' प्राणियों की हिंसा करने से कोई आर्य नहीं होता । आर्य तो प्राणीमात्र के प्रति अहिंसक भाव बर्तने वाला ही कहा जाता है । दसवैकालिक में भिक्षु की निम्न परिभाषा दी है-- पुढवीं न खणे न खणावए, सीओदगं न पिए न पियावए । अगणिसत्थं जहा सुनिसियं, तं न जले न जलावए जे स भिक्खू ।।' जो पृथ्वी का खनन न करता है और न कराता है जो शीतोदक न पीता है और न पिलाता है, शस्त्र के समान सुतीक्ष्ण अग्नि को न जलाता है और न जलवाता हैवह भिक्षु है इस प्रकार भिक्षु अथवा मुनि को किसी भी प्राणी के प्रति अहित-चिन्तन नहीं करना चाहिए। २. मैत्री विहारी मैत्री मनुष्य-मनुष्य के बीच में पारस्परिक सहयोग व संगठन को मजबूत करती है । और व्यक्ति को परम शान्ति प्राप्त कराती है । धम्मपद में कहा है-- मेत्ताविहारी यो भिक्खु पसन्नो बुद्धसासने । . अधिगच्छे पदं सन्तं संखारूपसमं सुखं ॥ ___ अर्थात् जो भिक्षु मैत्री भावना से विहार करता हुआ बुद्ध के उपदेश में प्रसन्न रहता है. वह सभी संस्कारों का शमन करने बाले और सुख रूप (निर्वाण) शान्ति-पद को प्राप्त होता है । मैत्री में रमण करने वाला भिक्षु सबको 'अत्तसमे मन्नेज्ज व छप्पिकाए" अर्थात् षड्काय के जीवों को अपनी आत्मा के समान समझता है । धम्मपद में भी यह उल्लेख मिलता है रावे तसन्ति दण्डस्स सव्वे भायन्ति मच्चुनो। अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये ॥' अर्थात् दण्ड से सभी डरते हैं । मृत्यु से सभी भय खाते हैं। अतः अपने समान ही सबका सुख-दुःख जानकर न तो स्वयं ही किसी को मारें और न अन्य किसी को मारने के लिए प्रेरित करें। इस प्रकार भिक्षु मैत्री भावना से विचरण करता रहे। ३. अपरिग्रही भिक्षु अपरिग्रही होते हैं । वे अपने पास कुछ भी नहीं रखते । संग्रह नहीं करते । दसर्वकालिक और धम्मपद में भिक्षु को अपरिग्रही रहने के लिए कहा है। तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइमं लभित्ता । होही अट्ठो सुए परे वा तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू ॥ अर्थात् मुनि अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को प्राप्तकर-यह कल या परसों तुलसी प्रज्ञा Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम आएगा-इस विचार से जो न सन्निधि (संचय) करता है और न कराता है - वह भिक्षु है। उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे, अन्नायउछपुल निप्पुलाए । कयविक्कय सन्निहिओ विरए, सव्व संगावगए य जे स भिक्खू ॥ जो मुनि वस्त्रादि उपधि में मूच्छित नहीं है, जो अगृद्ध है, जो अज्ञात कुलों से भिक्षा की एषणा करने वाला है, जो संयम को असार करने वाले दोषों से रहित है, जो क्रय-विक्रय और सन्निधि से विरत है, जो सब प्रकार के संगों से रहित है-वह भिक्षु है। धम्मपद में अकिंचन को भिक्षु कहा है-'अकिंचनं अनादानं अर्थात् जो पूर्व संग्रह रहित और नव संग्रह का अकर्ता है, वही वास्तव में भिक्षु है ।। ४. अनासक्त आसक्ति दुःखों का मूल कारण है । इसलिए भिक्षु को किसी भी पदार्थ में आसक्त नहीं होना चाहिए । शरीर के प्रति भी ममत्व नहीं करना चाहिए । धम्मपद में कहा है --- आसा यस्स न विज्जन्ति अरिमं लोके परम्हि च । निरासयं विसंयुलं तमहं ब्रूमि.......।" अर्थात् इह लोक और परलोक की आशा किये बिना अर्थात् विरक्त और अनासक्त रहता है वही भिक्षु । दसवैकालिक के सभिक्खू पाठ में उल्लेख है चत्तारि वमे सया कसाए, धुवयोगी य हवेज्ज बुद्धवयणे । अहणे निज्जायरुवरगए, गिहिजोगं परिवज्जए जे य भिक्खू ।" जो व्यक्ति चार कषायों का परित्याग कर निर्ग्रन्थ प्रवचन में सदैव रमण करता है और जो अघन, स्वर्ण चांदी से रहित है । गृही-योग का वर्जन करता है, वह भिक्षु सय ५. संयती संयत होने का मतलब है-अशुभ प्रवृत्ति से शुभ प्रवृत्ति में रहना । भिक्षु वह होता है जो इन्द्रिय, मन, वचन, काया को वश में रखता है। दसवैकालिक और धम्मपद दोनों में भिक्षु को संयमित रहने का निर्देश दिया है । दसवैकालिक में कहा है हत्थ संजए पाय संजए, वाय संजए संजइंदिए । अज्झप्परए सुसमाहियप्पा, सुत्तत्थं च वियाणई जे स भिक्खू ॥" धम्मपद में भी निम्न गाथा मिलती है हत्थसंयतो पादसंयतो, वाचायसंयतो संयतुत्तमो। अज्झत्तरतो समाहितो एको संतुसितो तमाहु भिक्खं ।।१२ ७. अप्रमादी प्रमाद से तात्पर्य हैं-धर्म के प्रति अनुत्साह । अप्रमादी इसके विपरीत होता खण्ड २१, अंक १ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । वह हर क्षण हर पल धर्म में उत्साह रखता है । भिक्षु को हर समय अपने चित्त को धर्म में स्थिर रखने के लिए अप्रमत्त होना चाहिए । इसीलिए तो महावीर ने गौतम को वार-बार कहा - समयं गोयम मा पमायए । धम्मपद में भी भिक्षु को अप्रमत्त रहने के लिए कहा हैअप्पमादरतो भिक्खु पमादे भयदस्सिवा | अभव्वो परिहानाय निब्बानस्सेव सन्तिके ॥ अप्पमादरता होथ सचित्तमनुरक्खथ । दुग्गा उद्धरथत्तानं पङ्क सन्नो व कुञ्जरी । ' १४ भिक्षु को अप्रमाद में रत होकर अपने चित्त की रक्षा करनी चाहिए। दलदल में फंसा हाथी जिस तरह अपने को स्वयं ही छुड़ाता है उसी तरह संकट में से अपने को स्वयं ही उबार लेना चाहिए जिससे चित्त अपने आप ही सुसमाहित हो जायेगा । ८. समभावी चरणं हवइ धम्मो धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो । सो गरोसरहिओ जीवस्स अणणपरिणामो ॥५ चरित्र ही स्वधर्म है । आत्म समभाव सर्व जीवों के प्रति आत्मवत् भाव ही धर्म है । राग-द्वेष रहित जीव का अनन्य परिणाम समभाव है । भिक्षु वही कहलाता है जो अनन्य परिणाम भाव में रमण करता है । अनन्य परिणाम भावों वाला भिक्षु सब कुछ सहन कर समत्व में रमण करता है। दसवैकालिक में समता से जीने वाले को भिक्षु की संज्ञा दी है । जो सहइ हु गामकंगए, अक्चजेरा पहारवज्जणाओ य । भयभेरवसद्दसंहासे, समसुहदुक्खसहे य जे स भिक्खु ॥" अर्थात् जो व्यक्ति कांटे के समान चुभने वाले इन्द्रिय-विषयों, आक्रोश-वचनों, प्रहारों, तर्जनाओं और बेताल आदि के अत्यन्त भयानक शब्दयुक्त अट्टहासों को सहन करता है, सुख और दुःख को समभाव से सहन करता है-वह भिक्षु है । इसी प्रकार धम्मपद में भी भिक्षु को समत्व में रहने का निर्देश दिया है ४२ सुसुखं वत जीवाम वेरिनेसु अवेरिनो । वेरनेसु मनुस्से विहराम अवेरिनो ॥ १७ ८. सहिष्णु इस संसार में जन्म-मरण की परम्परा निरन्तर चल रही है । इस जन्म मरण की परम्परा में मनुष्य को सुख-दुःख, इन्द्रियों के स्पर्श, सर्दी गर्मी इत्यादि परीसह आते है । उन परीसहों को समभावपूर्ण सहन करनेवाला भिक्षु कहलाता है । दसवैका - लिक में कहा है- ' पुढवि समे मुणी हवेज्जा"" – मुनि को पृथ्वी के समान सहनशील होना चाहिए । धम्मपद में भी सहन करने वाले व्यक्ति को ही श्रेष्ठ बतलाया गया है - दन्तो सेट्ठो मनुस्सेसु योऽतिवाक्यं तितिक्खति ॥ " तुलसी प्रशा 4 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. स्वाध्याय प्रेमी __ स्वाध्याय का अर्थ है-सद्ग्रंथों का अध्ययन करना । भिक्षु को आत्म-दर्शन के लिए स्वाध्याय-प्रेमी होना आवश्यक है । दसर्वकालिक में भिक्षु को सदैव सज्झायम्मि रओ सया' अर्थात् स्वाध्याय में रत रहने को कहा है । धम्मपद में कहा है ___ असज्झायमलामन्ता...'स्वाध्याय न करना मंत्रों का मल है। इसलिए भिक्षु को स्वाध्याय में तल्लीन होना चाहिए । जो स्वाध्याय करता है उसके पाप कर्म क्षीण होते हैं, आत्मा निर्मल होती है। १०. ध्यानी चित्त को स्थिर, शान्त करने के लिए भिक्षु को ध्यानस्थ और आत्मस्थ होना चाहिए, जो आत्मस्थ होता है, वह दिव्यता को प्राप्त करता है और सम्यक् धर्म का अनुपालन करता है । दसवैकालिक और धम्मपद-दोनों में अनेक स्थलों पर भिक्षु को ध्यानस्थ होने का निर्देश दिया गया है ....... 'धम्मज्झाणरए जे स भिक्खू ।१२ २. झाय भिक्खू......................... । ३. अप्पमत्तो हि झायन्तो............ २४ ११. तपस्वी तवे रए सामणिए जे स भिक्खू --भिक्षु वह है जो श्रमण संबंधी तप में रत रहता है । तप में तल्लीन रहने वाला आत्मानन्द को प्राप्त होता है। दसवैकालिक में भी कहा है-'तवसा धुणइ पुराण पावगं२५–अर्थात् तपस्या से पुराने पाप कर्म क्षीण होते है। इसलिए भिक्षु को निरन्तर तप करने चाहिए । धम्मपद में भी तप की महिमा बतलाई है। ....... 'खीणासवा जुतीमन्तो ते लोके परिनिब्बुता ।२६ अर्थात् संसार में परिनिर्वाण को वही व्यक्ति प्राप्त होता है जो ज्ञान और तप में रत रहकर आश्रव को क्षीण करता है। और वही भिक्षु कहलाता है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ऊर्ध्वगामी चेतनाएं समत्व में स्थित होती हैं और जो कुछ उनकी शाब्दिक अभिव्यक्तियां होती हैं, वे भी समता की ध्वनि से ही युक्त होती हैं । दो विभिन्न धाराओं के प्रतिनिधि ग्रंथ-दशवकालिक और धम्मपद भिक्षु स्वरूप में पूर्णतया एक ही शब्दावली का प्रयोग करते हैं । और दोनों मैं भिक्षु के जो आन्तरिक गुण निर्दिष्ट किए गये हैं, उनसे यह विदित होता है कि दोनों परम्पराओं का एक ही लक्ष्य था –निर्वाण प्राप्त करना । वह निर्वाणावस्था वेशभूषा में नहीं बल्कि अनासक्त, दान्त, तपस्या, ध्यान व अप्रमत्तता से प्राप्त होती है। - खण्ड २१, अंक १ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ सूची: १. धम्मपद १११८ २, वही १११९ ३. दसवैकालिक १०२ ४. धम्मपद १६८ ५. दसवैकालिक १०५ ६. धम्मपद १०२० ७. दसर्वकालिक १०१८ ८. वही १०।१६ ९. धम्मपद १० १०. वही १८।२१ ११. दसवैकालिक १०१६ १२. वही १०।१५ १३. धम्मपद १६।४ १४. वही ९।५,१३ १५. मोक्ष पाहुड ५० १६. दसवैकालिक १०।११ १७. धम्मपद १७ १८. दसवैकालिक १.१३ १९. धम्मपद ६।११ २०. दसवैकालिक ८।४१ २१. धम्मपद १०६४ २२. दसवैकालिक १०।१९ २३. धम्मपद १६।१३ २४. वही ९।१२ २५. दसवैकालिक १०७ २६. धम्मपद १०।१९ ४४ तुलसी प्रज्ञा Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांख्यकारिका 'तस्मान्न बध्यते'-एक विवेचन श्रीमती विजयरानी भारतीय दर्शन परम्परा में सांख्य दर्शन सम्भवतः सबसे अधिक प्राचीन है। इसके उद्भावक महर्षि कपिल को भगवान् श्रीकृष्ण ने सिद्ध मुनि की संज्ञा से अभिहित किया है।' इस दर्शन में जीवन की प्रमुख समस्याओं पर गहराई से विचार किया गया है । बन्ध और मोक्ष (कैवल्य) एक ऐसी ही ज्वलन्त समस्या है जो प्राचीन समय से मानव मस्तिष्क को आंदोलित करती रही है। हमारे प्राचीन शास्त्रों में 'धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष' ये चतुर्विध पुरुषार्थ स्वीकार किए गए हैं, इनमें से प्रथम तीन का सम्बन्ध इहलोक या संसारी अवस्था से है और चतुर्थ पुरुषार्थ "मोक्ष' को नित्य, निरतिशय, एवं परम पुरुषार्थ कहा गया है जिसमें किसी प्रकार का दुःख अथवा आवागमन आदि का सांसारिक बन्धन नहीं रह जाता। 'मोक्ष' का शाब्दिक अर्थ है ---त्याग या छुटकारा तथा पारिभाषिक अर्थ है ------'जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होना' । लोक व्यवहार में भी हम ऐसा ही पाते हैं कि किसी प्राणी के बन्धन खोल दिए जाने पर कहा जाता है-"उसे छुटकारा मिल गया या वह मुक्त हुआ।" सभी कोशकारों ने भी 'मोक्ष' शब्द के अर्थ-छुटकारा, स्वतंत्रता, वचाव, मुक्ति, अपवर्ग, सांसारिक बन्धन से मुक्ति आदि ही माने हैं।' मुक्त या स्वतंत्र वस्तुतः वही होता है जो पूर्वतः किसी बन्धन में बंधा हो। मनुष्य का आत्मा भी सांसारिक दुःख और आवागमन रूपी रज्जु से बंधा होता है और वह उस बन्धन से मुक्ति चाहता है। सांख्य दर्शन के अनुसार बन्धन और मोक्ष (कैवल्य) से क्या तात्पर्य है ? और ये किसके होते हैं-प्रकृति के अथवा पुरुष के ? सांख्य दर्शन में पुरुष (आत्मा) को स्वभावतः असङ्ग, उदासीन, अविकारी अर्थात् अपरिणामी कहा गया है क्योंकि यदि वह स्वभावतः बद्ध होता तो उसकी मुक्ति की इच्छा ही न होती और न ही उसके लिए मोक्ष साधनों के उपदेश की आवश्यकता होती। ईश्वरगीता में भी कहा गया है कि यदि आत्मा स्वभावतः मलिन, अस्वच्छ और विकारी होता तो सैकड़ों जन्मों में भी उसकी मुक्ति नहीं हो सकती थी। निर्बन्ध और स्वभावतः निर्मुक्त पुरुष का दुःख से योग होना ही बन्ध कहा गया है । वस्तुतः त्रिविध दुःख, गुणत्रय (सत्व, रजस्, तमस्) खण्ड २१, अंक १ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के परिणाम है, जो प्रकृति के स्वरूपाधायक धर्म है, अतः यह कहा जा सकता है कि जब प्रकृति अपने त्रिगुणों के माध्यम से पुरुष से सम्बन्ध जोड़ती है और स्वभावतः चेतन, स्वच्छ और अविकारी पुरुष अविवेक वश प्रकृति के उन सुख-सुखादि धर्मों को अपना समझ बैठता हैं तो यही उसका बन्ध कहलाता है। ईश्वरकृष्ण के अनुसार यद्यपि चेतन पुरुष अकर्ता होता है, तथापि की प्रकृति के साथ संयोग होने पर अर्थात् सामीप्य होने पर बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव के कारण अचेतन बुद्धि (प्रकृति) चेतनयुक्त तथा उदासीन (तटस्थ) पुरुष कर्ता प्रतीत होने लगता है। तात्पर्य यह है कि वास्तव में पुरुष चेतना युक्त और उदासीन भाव वाला होता है किन्तु अविवेक या अज्ञान के कारण प्रकृति के सामीप्य से बुद्धिगत धर्मों को (कर्तृत्व सुख-दुःख आदि को) अपने ही धर्म मान बैठता है। इसके विपरीत निरन्तर अभ्यास-वैराग्य और विशुद्ध ज्ञानादि के बल पर त्रिविध दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति ही उस पुरुष का कैवल्य या अत्यन्त पुरुषार्थ है। सांख्य दर्शन में मोक्ष को 'कैवल्य' नाम से अभिहित किया गया है। इसका कारण यह है कि पुरुष को 'प्रकृति पुरुषान्यताख्याति' के बाद कैवल्यभाव की अनुभूति होती है, त्रिविध दुःखों की ऐकांतिक और आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है और प्रकृति से उसका सम्बन्ध छुट जाता है तब वह केवलीभाव को प्राप्त हो जाता है । सांख्य दर्शन से यद्यपि यह स्पष्ट समझ में आता है कि बन्ध और कैवल्य वस्तुतः पुरुष तत्त्व का ही होता है, तथापि कुछ सांख्य ग्रन्थों में ऐसे विचार भी दृष्टिगत होते हैं जिनके कारण इस विषय में कुछ शङ्काएं उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है । बन्ध किसका होता है और फिर कैवल्य (मोक्ष) किसका होता है-इस विषय में प्राचीन और अर्वाचीन भाष्यकारों तथा आलोचकों में दो मत मिलते हैं। प्रथम मत के अनुसार बन्ध व कैवल्य पुरुष तत्त्व का ही होता है, द्वितीय मत के अनुसार प्रकृति का । इस प्रकार के द्विविध विचारों का कारण सांख्य ग्रन्थों के अपने ही मूल वचन हैं-(i) एक ओर तो पुरुष को असङ्ग और उदासीन, अकर्ता, अविषय और अपरिणामी माना गया है", दूसरी ओर कहा गया है कि उदासीन होने पर भी वह जगत् का कर्ता जैसा हो जाता है।" (ii) पुरुष द्वारा प्रकृति के भोग और प्रकृति द्वारा पुरुष के कैवल्य रूपी प्रयोजनों की सिद्धि के लिए प्रकृति और पुरुष पङ गु और अन्ध के समान परस्पर सहयोग करते हुए सृष्टि-क्रम को आगे बढ़ाते हैं।"२ (iii) कारिका ६४-६५ से भी ज्ञात होता है कि वह स्वच्छ विमल पुरुष अन्त में तत्त्वाभ्यास से कैवल्य ज्ञान भी प्राप्त करता है । " प्रश्न यह उठता है कि यदि पुरुष स्वच्छ, विमल, उदासीन और अकर्ता रूप है तो वह सष्टि का कर्ता, भोक्ता कैसे हो सकता है तथा साथ ही उसका कैवल्य भी कैसे संभव है ? (iv) इसके अतिरिक्त सांख्यकारिका में यह भी कहा गया है कि पुरुष न तो बद्ध होता है, न ही मुक्त और न ही संसरण करता है । नानाश्रयों से युक्त प्रकृति की वस्तुतः संसरण करती है, बंधन में बंधती है और मुक्त होती है। वही धर्मादि सात रूपों से अपने को बांधती हैं और एक रूप (विवेक ज्ञान) से अपने को विमुक्त करती है।१५ ४६ तुलसी प्रज्ञा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांख्यसूत्रकार तथा प्रवचनभाष्यकार विज्ञानभिक्षु भी इसी द्वितीय मत के समर्थक प्रतीत होते हैं। उनका कथन है-बन्ध और मोक्ष प्रकृति के ही हैं जैसे कोई पशु रज्जु से बद्ध होता है । उसी प्रकार दु:ख के साधनभूत धर्माधर्मादि से लिप्त होने के कारण प्रकृति बद्ध होती है । ६ तत्त्वकौमुदीकार वाचस्पति मिश्र भी बन्ध, मोक्ष और संसरण को प्रकृतिगत मानते हुए गौण रूप से पुरुष में उन्हें केवल आरोपित ही मानते हैं। जैसे जयपराजय भृत्यों की होने पर भी उसका आरोप स्वामी में किया जाता है उसी प्रकार प्रकृति से अपना भेद न समझने के कारण उसमें स्थित-भोग और मोक्ष से पुरुष का भी सम्बन्ध जोड़ दिया जाता है, ऐसा वाचस्पति मिश्र का मत है। इस विषय में आचार्य माठर और गौड़पाद का विचार है कि पुरुष स्वभावतः सर्वगत, अविकारी, निष्क्रिय और अकर्ता होता है अतः उसका बन्धन नहीं हो सकता। जब बन्ध नहीं तो कैवल्य कैसा ? फिर कौन किसको बांधता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि प्रकृति ही स्वयं को बांधती है, संसरण करती है और मुक्त करती है । वस्तुतः सर्ग के आदि में जो पञ्चतन्मात्राओं से निर्मित त्रयोदश विध करणों से युक्त सूक्ष्म शरीर होता है वही प्रकृतादि तीन प्रकार के बन्धों से बन्धता है और वही विवेक शान के उत्पन्न होने पर बन्धन से मुक्त भी होता है, इस प्रकार सूक्ष्म शरीर के माध्यम से प्रकृति ही बन्धती, संसरण करती और मुक्त होती है। ऐसा माठर का मत है।" आधुनिक विद्वान् पं० उदयवीर शास्त्री का कथन है कि मध्यकाल के विरोधी दार्शनिकों ने आत्मा (आत्मा) की स्थिति को अपने पैने दीखने वाले तों से झकझोर डाला।" विरोधियों का तर्क यह है कि आत्मा यदि साक्षात् रूप से सुख-दुःख का भोक्ता है तो उसे सुखात्मक और दुःखात्मक होने से परिवर्तनशील मानना पड़ेगा, इस प्रकार वह परिणामी हो जाएगा, जो शास्त्र का अभीष्ट नहीं है ।" सम्भवतः विरोधियों की इस शंका का समाधान करने के लिए ही कारिका ६२ में कहा गया है कि बन्ध-मोक्षादि पुरुष के नहीं होते, वे तो प्रकृति के होते हैं । इस विषय में प० उदयवीर शास्त्री का विचार है कि "विरोधियों के ये तर्क केवल शब्द-जाल हैं। आत्मा चिन्मात्र है उसका स्वरूप चैतन्य है, अनुभूति है । चाहे वह सुख का अनुभव करता है, चाहे दुःख का, किसी भी अवस्था में वह अपने अनुभूति स्वरूप का परित्याग नहीं करता।"२२ कारिका ६२ के कारण उत्पन्न भ्रम का निवारण करते हुए वे कहते हैं कि "आत्मा स्वतः न बद्ध होता है, न मुक्त और न संसरण किया करता है, प्रत्युत प्रकृति के संपर्क में आने से वह बद्ध कहा जाता है तथा संपर्क न रहने पर मुक्त "सूक्ष्म शरीर के द्वारा आवेष्टित हुआ वह विविध योनियों में संचरण करता है क्योंकि आत्मा के समस्त भोग व अपवर्गलाभ प्रकृति एवं उसके साधनों के बिना सम्पन्न नहीं हो सकते, इसी विचार से उपर्युक्त तस्मान्न बध्यते (का० ६२) का वर्णन किया गया है । इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं कि भोग व अपवर्ग आत्मा को छोड़कर केवल प्रकृति में अथवा वस्तुस्थिति से प्रकृति में हुआ करते हैं।" सांख्यबण २१, अंक १ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारिका की अन्य कई कारिकाओं से तथा सांख्य सूत्रों से२५ भी यही समझ में आता है कि बन्ध व मोक्ष प्रकृति के माध्यम से पुरुष का ही होता है, प्रकृति का नहीं। डॉ० आद्याप्रसाद मिश्र का मत -सृष्टि प्रयोजन के विषय में चर्चा करते हुए वे कहते हैं ---"परमार्थतः तो पुरुष का कोई प्रयोजन नहीं हो सकता क्योंकि वह स्वभावतः निर्बन्ध व नित्य-मुक्त है, यह कथन तो ठीक है, परन्तु सांख्यकारिका पुरुष की पारमार्थिक अवस्था के लिए प्रयोजन का कथन कहां करती है । सष्टि का प्रयोजनकथन करने का तात्पर्य ही यह है कि पुरुष की जीवनगत अर्थात् बद्धावस्था के लिए ही प्रयोजन की बात कही गई है।"२६ अन्यत्र डॉ. मिश्र ने स्पष्ट किया है.---"पुरुष में परमार्थतः दुःख अवश्य नहीं है किन्तु प्रकृति के कार्य 'बुद्धि' के सान्निध्य से उसमें स्थित दुःख का अज्ञान या भ्रम के कारण अपने में आरोप या अध्यास कर लेने से पुरुस में दुःख की प्रतीति होती है, इस प्रकार पुरुष में दुःख के अस्तित्व तथा उससे उसके मोक्ष की बात असंगत नहीं है ।"२७ इसके अतिरिक्त डॉ. आद्याप्रसाद मिश्र का यह भी विचार है कि शास्त्रीय दृष्टि से दुःख भले ही प्रकृति का धर्म हो लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से वह उसी का होगा जिसे उसकी अनुभूति होगी। अनुभूति किसी चेतन का ही धर्म हो सकता है और इसीलिए उससे छुटकारा या मोक्ष भी चेतन का ही धर्म होगा। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि डा० मिश्र के अनुसार बन्ध व मोक्ष व्यावहारिक दृष्टि से पुरुष का ही मानना चाहिए । डॉ० एस. एन. दासगुप्त ने यद्यपि बन्ध व कैवल्य के विषय में अपना कोई स्पष्ट मत नहीं दिया है, तथापि एक स्थान पर वे कहते हैं- "गुणों के बन्धन की सीमा से पार पहुंच जाने पर, पुरुष अपने पूर्ण चैतन्य के साथ प्रकाशित होता है ।२९ उनके इस कथन से यह समझ में आता है कि उनके मत में भी पुरुष ही त्रिगुण के बन्धन में बंधता है और बाद में वही विवेक ख्याति के द्वारा मुक्त होता है । इसके विपरीत पाश्चात्य विद्वान प्रो. ए. बी. कीथ इस मत के पक्षधर हैं कि बन्ध व मोक्ष प्रकृति के ही होते हैं । उनका विचार है कि अपरिणामी होने से पुरुष के बन्ध व मोक्ष मानना उचित नहीं ।' पण्डित बलदेव उपाध्याय का भी ऐसा मत है कि प्रकृति ही बन्ध, मोक्ष और संसार का अनुभव करती है पुरुष का अपवर्ग तो "प्रतिबिम्बरूप मिथ्या दुःख का वियोग मात्र है ।''३१ इस विषय में डॉ० अणिमासेन गुप्त ने कहा है ..."आत्मा सदैव मुक्त है लेकिन भ्रांति के कारण बन्ध और मोक्ष का पुरुष पर आरोप कर दिया जाता है......." जब विवेक ज्ञान प्राप्त हो जाता है, प्रकृति सृष्टि क्रम को बन्द कर देती है, प्रतीयमान एकता नष्ट हो जाती है और आत्मा (पुरुष) मोक्ष को पा लेती है और यही प्रकृति द्वारा सृष्टि-क्रम का मुख्य प्रयोजन है।"१२ वस्तुत: डॉ० अणिमासेन का विचार यह है कि प्रकृति और पुरुष कैवल्य की स्थिति में अस्तित्व में तो बने रहते हैं लेकिन अविवेक के कारण पुरुष जो प्रकृति के धर्मों और कार्यों को अपना सा समझ बैठा था, वह अभेदभाव, अब दूर हो जाता है और वह पुनः अपनी विशुद्ध स्थिति का अनुभव करने लगता है। ४८ तुलसी प्रज्ञा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्कर्ष उपर्युक्त विवेचन के आधार पर संक्षेप में निम्नलिखित तथ्य सामने आते (i) बन्ध और कैवल्य की समस्या मूलत: सांख्यकारिका ६२-'तस्मान्न बध्यते'-आदि के कारण उत्पन्न हुई है क्योंकि यहीं पर स्पष्टतः यह कहा गया है कि बन्ध, संसरण और कैवल्य पुरुष का नहीं होता, अपितु—'नानाश्रया प्रकृति' का होता (ii) सांख्यकारिका के टीकाकारों ने इस समस्या का समाधान दो भिन्न रूपों में किया है-आचार्य माठर, गौड़पाद तथा विज्ञानभिक्ष बन्ध, संस्सरण और कैवल्य को प्रकृतिगत ही मानते हैं तथा तत्त्वकौमुदीकार वाचस्पति मिश्र इन्हें पुरुष में आरोपित हुआ स्वीकार करते हैं । (iii) आधुनिक समालोचकों में पं० उदयवीर शास्त्री अपने मत में बहुत स्पष्ट हैं कि बन्ध और कैवल्य प्रकृति के माध्यम से पुरुष का ही होता है, प्रकृति का नहीं। डॉ० आद्याप्रसाद मिश्र के अनुसार भी व्यावहारिक दृष्टि से बंध व मोक्ष को पुरुष का ही मानना चाहिए। डॉ० दासगुप्त का मत है कि पुरुष ही अविवेकवश त्रिगुण के बन्धन में आता है तथा विवेक ख्याति द्वारा वह पुनः अपने मूल रूप में प्रकाशित होता है । डा० अणिमासेन गुप्त का विचार भी लगभग यही है, लेकिन डॉ० कीथ व पंडित बलदेव उपाध्याय बन्धन एवं कैवल्य को प्रकृतिगत ही मानते हैं पुरुषगत नहीं। इस प्रकार बन्ध और कैवल्य के विषय में विद्वानों में दो भिन्न विचार उपलब्ध होते हैं लेकिन अधिकांश टीकाकार और समालोचक इस मत के ही पक्षधर प्रतीत होते हैं कि बन्ध और कैवल्य पुरुष का ही होता है और यही मत अधिक समीचीन भी है। -रीडर, संस्कृत विभाग कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र-१३२१२९ सन्दर्भ १. द्र० श्रीमद्भगवद्गीता १०/२६ २. द्र० हलायुधकोशः पृ० ४४५, आप्टे सं० हि० को० पृ० ८१९, मोनियर विलियम्स, ___ सं० ई० डि० पृ० ८३४-३५ ३. सांख्यसूत्र १/१५ ४. न स्वभावतो बद्धस्य मोक्षसाधनोपदेशविधि । सांख्यसूत्र १/७ ५. कूर्म पुराण २/२/१२-१३ ६. बन्धोऽत्र दुःखयोग एव । सांख्यप्रवचन भाष्य १/७ ७. सांख्यकारिका-२० ८. (क) त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तः पुरुषार्थः सांख्यसूत्र १/१ खण्ड २१, अंक १ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) कैवल्यमात्यन्तिक दुःखत्रयप्रशमलक्षणम् ....................सांख्य तत्त्वकीमुदी पृष्ठ १२१ ९. प्राप्ते शरीरभेदे चरितार्थत्वात् प्रधानविनिवृत्ती। ऐकान्तिकात्यन्तिकमुभयं कैवल्यमाप्नोति ॥ सा० का० ६८ १०. द्र० सां० का० १९ तथा सांख्यसूत्र १/१५ ११. द्र० सां० का २० १२. द्र० सांख्यकारिका २१ १३. द्र० सांख्यकारिका ६४-६५ १४. तस्मान्न बध्यतेऽद्धा न मुच्यते नाऽपि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रद्धा प्रकृतिः । सां० का० ६२ १५. रूपः सप्तभिरेव तु बध्नात्यात्मानमात्मना प्रकृतिः । ___सैव च पुरुषार्थं प्रति विमोचयत्येकरूपेण ।। सां० का० ६३ १६. द्र० सांख्यसूत्र ३/७२ तथा उस पर सांख्य प्रवचनभाष्य । १७. बन्धमोक्षसंसाराः पुरुषेषपचर्यन्ते । ............ .""का० ६२ पर सां० त० को० पृष्ठ २११ १८. वही, पृ० २११, पक्ति ३-८ १९. (क) सां० का० ६२ पर माठर वृत्ति---पृ० १९५ (ख) गोड़पादभाष्य पृ० १३२ २०. द्र० पं० उदयवीर शास्त्री, सांख्य सिद्धांत, पृ० १८५ २१. सांख्य-सिद्धांत, पृष्ठ १८५ २२. वही पृ० १८५-८६ २३. वही पृ० १८७ २४. द्र० सांख्यकारिका सं० ६३, ६४, ६५, ६७, ६८ इत्यादय २५. द्र० सांख्यसूत्र १.१, १.१९, १. १०६ इत्यादय २६. डॉ. आद्याप्रसाद मिश्र, सांख्य दर्शन की ऐतिहासिक परम्परा, पृ. २३१ २७. वही, पृ० २२७ २८. वही, पृ० २२७ 29. “The Puruşa having passed beyond the bondage of the gūņas, shines forth in its pure intelligences -History of Indian Philosophy Pt. I, p. 273 ३०. ए. बी० कीथ, सांख्य दर्शन का इतिहास, पृ० ९१-९२ ३१. पण्डित बलदेव उपाध्याय, भारतीय दर्शन, पृ० २८१ 32. The spirit is everfree, but through misconception bondage and liberation are attributed to the self.........when discriminative koowledge is attained, Nature ceases to evolve, the seewing unity is desroyed and self attains release, which is the real object of Nature's evolution. - The Evolution of the Samkhya School of thought p. 49 तुलसी प्रज्ञा Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांति-शिक्षा का स्वरूप और विकास डॉ० बच्छराज दूगड़ एक समस्या पर किया जाने वाला अध्ययन उस तत्त्व की ओर इंगित करता है जो अशांति के लिए जिम्मेदार है तथा जो व्यक्त और अव्यक्त हिंसा से लड़ने के लिए कदम निर्धारित करने में सहयोग करे और सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विकास को आगे बढ़ाये, ऐसे कार्य को शांति-शिक्षा कहा जा सकता है। पाश्चात्य विचारक गुनार माइडल के अनुसार 'शांति-शिक्षा समाज विज्ञानों के . विभिन्न क्षेत्रों में एक व्यवस्थित अध्ययन है जो संघर्ष, तनाव और युद्धों के बारे में हमारी समझ और सोच में सुधार लाता है।" इस अर्थ में शांति के लिए शिक्षण संबंधी विचार ही सन्निहित हैं । __ वर्तमान में शांति-शिक्षा की अभिरूचि केवल शांति और युद्ध की समस्या तथा राजनैतिक संघर्षों तक ही सीमित है। शांति की नवीन परिभाषा के अनुसार युद्ध या हिंसा राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों में सतत विद्यमान है । क्योंकि कुविकास (Mal development) गरीबी, आंतरिक हिंसा और युद्ध में एक निकट सम्बन्ध देखा जा सकता है । इसलिए युद्ध विरोधी साधनों का विकास व खोज आवश्यक है। इन युद्ध विरोधी साधनों का उद्देश्य केवल युद्ध और हिंसा को समाप्त करना नहीं है अपितु सभी प्रकार की हिंसा और समाज में सभी स्तरों में व्याप्त सभी प्रकार के शोषण को समाप्त करना है । इसलिए शांति शिक्षा का आंदोलन वस्तुतः सम्पूर्ण व मूलभूत परिवर्तन का है । अहिंसा हिंसा का विरोध मात्र नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन की संपूर्ण शक्ति है । इस प्रकार शांति शिक्षा का विचार नये समाज के निर्माण के लिए है। शांति शिक्षा में शांति के इस नवीन संप्रत्यय को सम्मिलित करना होगा। जिससे समाज परिवर्तन के साथ अन्तर्राष्ट्रीय परिवर्तन व कलह-शमन भी सम्भव हो सके। गाल्लुंग ने अपने एक निबन्ध ---"ए क्रिटिकल डेफिनेशन ऑफ पीस" में कहा है-शांति शिक्षा उन स्थितियों को समझने का प्रयास है जो हमें अन्तर्राष्ट्रीय सामूहिक हिंसा को रोकने में योगदान करती है तथा राष्ट्रों और जनता के बीच सांमजस्य-पूर्ण तथा रचनात्मक सम्बन्धों के विकास में सहायक होती है । शांति शिक्षा के विचार का विकास पाश्चात्य जगत् में शांति शिक्षा का विचार सर्वप्रथम कोमेनियस ने १९६७ में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'एंजेल ऑफ पीस' में रखा था। बाद में रूसो शांति शिक्षा खण्ड २१, अंक १ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' के विकास में मील के पत्थर बने । उनके शांति शिक्षा सम्बन्धी विचार का आधार था--"मनुष्य स्वभाव से शांति प्रिय है, जब उसे अपने जीवन पर कोई खतरा नजर आता है, तभी वह हिंसक बनता है।" रूसो के पश्चात् पेस्टलॉजी व फ्रोबल ने शांति शिक्षा को एक नई दिशा दी। फ्रोबल का मानना था -- बच्चे की प्रारम्भिक शिक्षा का महत्वपूर्ण तत्त्व शांति शिक्षा है। वयस्कों के लिए जीने का शांतिपूर्ण तरीका हो, जिससे भाषा, विचार और क्रिया के बीच सामंजस्य स्थापित हो सके । १९वीं शताब्दी में शांतिशिक्षा समाजवाद से प्रभावित हुई। मार्क्स, लेनिन आदि समाजवादियों ने कहा--शिक्षा सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास के लिए होनी चाहिए। २० वीं सदी में शांतिशिक्षा को अमेरिका में विकासशील शिक्षा (Progressive Education) तथा सोवियत संघ में स्वतंत्र शिक्षा (Free Education) की संज्ञा दी गई। प्रथम विश्व युद्ध के पहले शांति, शिक्षा का विषय नहीं थी। १८९० में केवल नीदरलैण्ड में इसे पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया था, जहां मोल्केनबोवर ने इसे अध्यापकों को पढ़ाने के लिए कहा । बाद में बूमन, मॉण्टेसरी, बैकमेन, डेसबर्ग आदि कई शिक्षा शास्त्री शांति शिक्षा से जुड़े। ये सभी शिक्षा शास्त्री नीदरलैण्ड की शांति शिक्षा से प्रभावित थे । इसी समय शांति शिक्षा के साथ-साथ शांति के लिए शिक्षा का विचार भी सामने आया। शांति शिक्षा का अर्थ है -शांति स्थापित करने के लिए लोगों को शिक्षित-प्रशिक्षित करना । शांति के लिए शिक्षण का उद्देश्य हैयुद्ध व शस्त्रीकरण का समाज पर क्या दुष्परिणाम होगा, इससे सम्बन्धित जानकारी लोगों को बताना तथा उन दुष्परिणामों को दूर करने के उपायों को सुझाना। शांति के लिए शिक्षण के तीन मुख्य प्रतिनिधि हुए हैं- फोयरस्टीर, मॉण्टसरी व ओएस्टरिच, जिन्होंने शांति शिक्षण का विकास किया । ___ फोयरस्टीर का मानना था - "मनुष्य अपने प्राकृतिक स्वभाव का दमन कर आध्यात्मिक उत्थान का प्रयत्न करता है। आध्यात्मिक उत्थान तभी सम्भव हो सकता है जब वह विश्वात्मा से मिल जाय, इसके लिए शांति शिक्षा प्रभावी है क्योंकि शांति का अर्थ ही है-"विश्वात्मा के समकक्षता।" मॉण्टसरी का मानना था- "बच्चे का निर्माण तो स्वयं होता है । शिक्षा का कर्तव्य बस इतना ही है कि वह उस निर्माण में जो बाधाएं आये, उसे दूर कर दे।" अर्थात् एक ऐसा पर्यावरण तैयार कर देना, जिसमें बच्चा स्वयं के सिद्धांतों के आधार पर अपना निर्माण व विकास कर सके । ओएस्टरिच का मानना था-"शांति केवल संस्कृति के पुनर्निर्माण से ही सम्भव हो सकती है । प्रत्येक व्यक्ति इस संस्कृति का एक घटक है। व्यक्तिगत स्तर पर वह एक अंश दिखाई देगा जबकि समूह में भाईचारे व मानवीयता की भावना विकसित होगी जो उत्पादक और सम्पूर्ण शिक्षा से ही आएगी तथा ऐसी शिक्षा शांतिपूर्ण होगी।" उन्होंने यह भी कहा..-"शांतिशिक्षा, यह एक पुनरुक्ति है । सही शिक्षा, सभी के लिए, सभी लोगों में---यही तो शांति का आदर्श है।" शांतिशिक्षा के विकास में ड्यूवी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। ड्यूवी ने कहा - "वह वातावरण जिसमें शिक्षा ली जाती है, शिक्षा की गुणवत्ता पर महत्त्वपूर्ण ५२ तुलसी प्रज्ञा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभाव डालती है। शांति शिक्षा तो हमारे जीवन जीने का रास्ता होना चाहिए"। समाजवादी विचारकों में केवल टॉलस्टाय ने ही शांति शिक्षा के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण प्रभाव छोड़ा। उन्होंने कहा-----“एक व्यक्ति स्वयं में आस्था, नैतिकता, भाईचारे व शांति के लिए ही शिक्षित होना चाहिए।" शांति शिक्षा का जो स्वरूप वर्तमान में है, उसका विकास द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हुआ है । १९४५ के पश्चात् शांति शिक्षा में तीन मुख्य बातें जुड़ी १. अन्तर्राष्ट्रीय समझ विकसित करने के लिए शिक्षा २. राजनैतिक शिक्षा एवं ३. विश्वव्यापी शिक्षा (Global Education) अन्तर्राष्ट्रीय समझ को शांतिशिक्षा में सम्मिलित करने का विचार यूनेस्को के प्रयत्नों से सम्भव हुआ। राजनैतिक शिक्षा का विचार १९६० में कोरिया और वियतनाम के युद्धों के परिणामस्वरूप सामने आया। वैश्विक शिक्षा का विचार प्रो० गाल्टंग एवं फैरी के इस सिद्धांत से विकसित हुआ --- "शांति शक्ति के समान बंटवारे व संसाधनों के समान बंटवारे के बिना कभी भी प्राप्त नहीं की जा सकती।" शांति शिक्षा सम्बन्धी विचार को भारतीय वाङमय के आधार पर इस रूप में रखा जा सकता है-विश्वशांति तभी सम्भव है, जब प्रत्येक व्यक्ति अपने मनमस्तिष्क को इस हेतु तैयार करे और ऐसा तभी सम्भव हो सकता है जब व्यक्ति के शरीर, मन, भाव और भाषा के बीच सही समन्वय हो अर्थात् सम्पूर्ण मानव का निर्माण हो । अन्तर्राष्ट्रीय समझ के लिए शिक्षा यद्यपि इस विचार का उद्गम १९४० से पूर्व ऐसे संगठनों में हो चुका था जो अन्तर्राष्ट्रीय विनिमय के क्षेत्र में कार्यरत थे । द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् शांति के प्रति आदर्शों को व्यवहार में लाने हेतु नये संगठनों (Friendship among Children and youth एवं American Friends School Affiliation Service) का उदय हुआ। पुराने प्रतिद्वन्द्वी फ्रांस और फैडरल जर्मनी के बीच शांति की शुरूआत के लिए पेस क्रिस्टी (Pase chiristi) ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन संगठनों का मुख्य उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय समझ को विकसित करना था, जिससे विश्व और अधिक शांतिपूर्ण हो सके। १९७४ में यूनेस्को ने अन्तर्राष्ट्रीय समझ, सहयोग और शांति के लिए शिक्षा तथा मानवाधिकार एवं मूलभूत स्वतंत्रता से सम्बन्धी शिक्षा को अनुशंसित किया, जो शांति शिक्षा के प्रति एक बड़ा महत्त्वपूर्ण कदम था। राजनैतिक शिक्षा शांति शिक्षा के विकास का दूसरा कदम शीतयुद्ध, कोरिया संकट एवं विएतनाम खण्ड २१, अंक १ ५२ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकट के प्रतिक्रिया स्वरूप उठाया गया, जिसका पूर्ण विकास १९७० में हुआ तथा राजनैतिक शिक्षा की स्वीकृति हुई। यद्यपि शिक्षा शास्त्रियों द्वारा शांति शिक्षा के विचार को गम्भीरतापूर्वक नहीं लिया गया। अधिकांश लोगों की मान्यता थीशांति राज्य का मामला है, इसलिए सरकार से सम्बन्धित है। अन्तर्राष्ट्रीय समझ के प्रति घटती आशा के बावजूद परमाणु शस्त्रों के खतरे एवं शांति आंदोलनों के अनुभव-इन दो तत्त्वों ने शांति शिक्षा के इस नये स्वरूप को उजागर किया। नये स्वरूप के विचार में यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण अनुभव था कि शांति की दिशा में संरचनात्मक परिवर्तन राजनैतिक परिवर्तनों का परिणाम है। शांति शिक्षा के इस संप्रत्यय का प्रबल पक्षधर गियासेकी (Giesecke) था, जिसने १९६० में अपना सिद्धांत विकसित कर समाज के सभी स्तरों के मूलभूत प्रजातंत्रीय ढांचे पर बल दिया। गियासेकी ने अपने सिद्धांत के व्यावहारिक रूप को व्याख्यायित करते हुए शांति शिक्षा के निम्न उद्देश्यों की चर्चा की १. संघर्षों को विश्लेषित करना सीखना । २. सामाजिक संदर्भो में संघर्षों का परीक्षण करना। ३ ऐतिहासिक चेतना को उभारना । ४. राजनंतिक सहभागिता के अनुभव का चातुर्य प्राप्त करना । वैश्विक शिक्षा १९७० के पश्चात् यह विचार सामने आया कि सत्ता के समान खण्ड एवं संसाधनों के समान बंटवारे के बिना शांति कभी भी प्राप्त नहीं की जा सकती। यह विचार जो न्याय व संरचनात्मक हिंसा के विश्लेषण पर आधारित था- शांति शिक्षा के क्षेत्र में एक नया विकास था, इसे ही वैश्विक शिक्षा का नाम दिया गया। गाल्टंग के विचार में वैश्विक शिक्षा राष्ट्रों के बीच रचनात्मक सहयोग पर बल देती है तथा अत्याचारियों द्वारा आरोपित प्रतिस्पर्धा एवं विरोधों को समाप्त करतो है। इसी संदर्भ में फेयरी (Freire) का कहना है-मनुष्य विश्व को आलोचनात्मक दष्टि तथा स्वयं की चेतना के आधार पर स्वयं अपने विश्व की रचना कर सकता गाल्लुंग व फेयरी के इन्हीं विचारों पर आधारित अन्तर्राष्ट्रीय शांति-शोध एसोसियशन के शांति शिक्षा कमीशन से ऐसे लोगों ने संचार की एक कार्य-योजना तैयार की है जो इस अत्याचार की प्रक्रिया के अंग है। नेपल्स, बैंग्लोर, न्यूयार्क, अमस्टरडम, मेलबोर्न की गन्दी बस्तियों में रह रहे लोग अत्याचार के इस तंत्र के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं तथा अपनी स्थितियों को सुधारने हेतु संगठन एवं संचार का प्रयत्न कर रहे हैं । इसके कार्यों में नेपल्स व बैंगलोर के संगठन सहायता व मार्गनिर्देशन कर रहे हैं। तुलसी प्रज्ञा Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्ति-शिक्षा-सैद्धांतिक प्रस्ताव शांति शिक्षा के मुख्यतः तीन सैद्धांतिक प्रस्ताव हैं१. शांति-शिक्षा की वैधता २. शांति-शिक्षा एवं निःशस्त्रीकरण ३. शांति-शिक्षा की दुविधाएं १. शांति-शिक्षा की वैधता यह शांति शिक्षा की औचित्यता का दृष्टिकोण है जो शांति शिक्षा की विषय-वस्तु व व्यवहार के अन्तर पर निर्भर है। इसमें निम्नांकित सिद्धांत सम्मिलित (अ) इस प्रकार की शांति शिक्षा हिंसा का विरोधकर सैनिक विरोधी अभि वृत्ति का निर्माण करती है तथा युद्ध सम्बन्धी खेल, खिलौनों तथा हिंसक प्रचार का निषेध करती है। (ब) यह आक्रामकता को कम करने हेतु इसके कारणों का पता लगाकर, इन पर कैसे काबू पाया जाए ताकि समाज को कम से कम क्षति हो, इसकी प्रक्रिया सिखाती है। (स) यह संघर्ष को शांति शिक्षा का अंग मानती है तथा इसका लक्ष्य लोगों को यह बताना है--संघर्ष मानव-समूहों और समाज का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। संघर्ष का भय व्यक्ति को निषेधात्मक परिणामों की तरफ ले जातः है। शान्ति शिक्षा लोगों को यह बतलाए कि संघर्ष से कैसे निपटा जाए ? (द) पूर्वाग्रहों तथा शत्रु के प्रति विरोधात्मक रवैये को समाप्त कर व्यक्तियों व संस्कृतियों के प्रति स्वस्थ-समझ को विकसित करना। (य) प्रत्येक राष्ट्र द्वारा स्वयं अपने ही हितों की पूर्ति युद्ध का एक प्रमुख कारण है। इस समस्या के निराकरण हेतु विश्व नागरिकता को प्रोत्साहन तथा विश्व सरकार को राज्यों द्वारा अपनी-अपनी संप्रभुता सौंप देना आवश्यक है। (र) इस दृष्टिकोण के अन्तर्गत व्यक्ति स्वयं युद्ध और शांति के लिए कार्य कर सकते हैं । वे सत्ता व प्रभाव के उन क्षेत्रों को उखाड़ फेंके जो अशांति पैदा करते हैं तथा वे अपनी रचनात्मक सहभागिता, सहयोग, आत्मविश्वास एवं ज्ञान से समाज में परिवर्तन करें। २. शांति शिक्षा और निःशस्त्रीकरण (अ) आदर्शवादी संकल्पना-इस विचार का विकास यूनेस्को के उस घोषणा पत्र से हुआ, जिसमें यह कहा गया है- "युद्ध मानव-मस्तिष्क में जन्म बंड २१, अंक १ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेते हैं।" वर्तमान अशांतिपूर्ण स्थितियों, जिनमें राष्ट्र सुरक्षा हेतु बड़े पैमाने पर शस्त्रीकरण करते हैं, का समाधान वर्तमान पीढ़ी के विचारों में शांतिपूर्ण भविष्य हेतु क्रमशः रूपांतरण है। यह एक आदर्शवादी सिद्धांत है जिसका विश्वास है--सहिष्णुता तथा परस्पर स्वीकृति के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों से पैदा होने वाली मशांति की जगह शांतिपूर्ण भविष्य का निर्माण किया जा सकता है। (ब) वैज्ञानिक संकल्पना- इस सिद्धांत के अनुसार युद्ध के कारणों तथा शस्त्री करण के समूचे तंत्र से सम्बन्धी वैज्ञानिक शोध के निष्कर्षों को स्कूल के पाठ्यक्रम में सम्मिलित करना चाहिए तथा यदि सम्भव हो तो पूर्व और पश्चिम दोनों में एक समान पाठ्यक्रम, पाठ्य-पुस्तकें तथा अध्यापन सामग्री हो। (स) वैचारिक संकल्पना- इस सिद्धांत के अनुसार शिक्षा समाज परिवर्तन के प्रारम्भ का ही रास्ता नहीं है अपितु यह सामाजिक प्रक्रिया तथा तंत्र के पुनः प्रस्तुति का एक यंत्र भी है। इस सिद्धांत के अनुसार प्रभावशाली नियंत्रण में पूर्ण सामान्य निशस्त्रीकरण शांति शिक्षा का लक्ष्य नहीं है, अपितु यह शस्त्र नियंत्रण के प्रभावशाली ढंग के बारे में शिक्षा है जो शस्त्रों की ऊपरी सीमा के लिए स्वीकृति प्रदान करता है । (द) राजनीतिक संकल्पना यह सिद्धांत शासक व शासित के सम्बन्धों पर निर्भर है जो यह बताता है कि शासितों को अपनी स्थितियों के प्रति सचेत हो जाना चाहिए तथा शोध कार्य तथा शिक्षा की समन्विति के आधार पर शांतिपूर्ण विश्व का निर्माण करना चाहिए। अर्थात् इस अर्थ में शांति शिक्षा युद्ध के कारणों व अविकास से सम्बन्धी ज्ञान का स्रोत ही नहीं अपितु यह उन स्थितियों जिनमें शिक्षा का निर्णय हुआ है तथा शिक्षा की विषयवस्तु के बीच सम्बन्धों की भी आलोचनात्मक समझ है। ३. शांति-शिक्षा की दुविधाएं यह दृष्टिकोण दो मूलभूत प्रश्नों से सम्बन्धित है - १. क्या हिंसा के द्वारा शांतिपूर्ण समाज रचना सम्भव है या यह केवल अहिंसक कार्यों एवं साधनों से ही संभव है ? २. क्या शांतिपूर्ण समाज संरचनात्मक परिवर्तन से सम्भव है या मानवीय विकास से ? उपर्युक्त प्रश्नों पर विचार करें तो यह स्पष्ट होगा कि सैनिक शिक्षा या युद्ध एवं हिंसा से शांति स्थापना सम्भव नहीं है। पूंजीवादी व समाजवादी ढांचों के ढह जाने से यह और भी अधिक स्पष्ट हो चुका है । शांति केवल अहिंसक प्रशिक्षण और तुलसी प्रशा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसक कार्यों से ही सम्भव है । कई शांति आंदोलनों, गांधी, मार्टिन लूथर किंग आदि ने अहिंसा की शक्ति का पूर्ण परिचय प्रस्तुत किया है । संरचनात्मक परिवर्तन से समाज में शांति के पक्षधर गाल्टुंग रहे हैं । उनका मानना है - " शासक उच्च वर्ग, शिक्षा के लक्ष्यों का निर्धारण वर्तमान ढांचे की सुरक्षा के लिए करता है, जो हिंसा की स्वीकृति है । हमें इस संस्कृति को संरचनात्मक परिवर्तन से तोड़ना होगा क्योंकि संरचनात्मक हिंसा असमान सम्बन्धों की प्रतीक है । हमें इस ढांचे के निषेध के लिए प्रयत्न करना चाहिए तथा अन्याय पर आधारित ढांचे को न्याय पर आधारित ढांचे में रूपांतरित करना चाहिए । मानवीय सुधार द्वारा शांति स्थापित करने के दृष्टिकोण में व्यक्ति को महत्त्व दिया गया है। कांट के अनुसार • युद्ध कोई ईश्वरीय कार्य या दैविक निर्णय नहीं है । • शांति का अनुभव वर्तमान की आवश्यकता है। जिसे भविष्य के लिए टाला नहीं जा सकता 1 • शांति शिक्षा भी सम्भव है यदि राजनीतिज्ञ, शांति कार्यकत्ताओं तथा शिक्षा - शास्त्रियों को अवकाश दें । शांति आत्मविश्लेषण का और विशेषकर नैतिक परिप्रेक्ष्य में आत्मविश्लेषण का अवसर देती है । इसका प्रारम्भ समान्य चीजों जेसे सहयोग के लिए तत्पर रहना, दैनिक अनुभवों से सीखना आदि को व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बना लेना चाहिए । शांति शिक्षा की सीमाएं इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि पिछले लगभग दो दशकों से शांति शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य हुए हैं । पवित्र उद्देश्यों तथा विशाल प्रयत्नों के बावजूद शांति शिक्षा का कार्यक्रम कई कारणों से बाधित हो रहा है. विशेषकर तीसरी दुनियां के परिप्रेक्ष्य में । शांति शिक्षा के कार्यक्रम केवल कुछ उच्च वर्ग तक तक सीमित रहा है तथा यह मानव समूहों तक पहुंचने असफल रहा है । सम्पूर्ण शांति आन्दोलन बौद्धिक व संगठनात्मक दोनों ही स्तरों पर यूरोप केन्द्रित रहा है । तीसरी दुनियां के व्यक्ति, संस्थाएं तथा संगठन परिधि में ही रहे हैं । परमाणु अस्त्र-शस्त्रों का खतरा तथा तीसरी दुनियां में भूख, कुपोषण, अविकास, सामाजिक अन्याय, आतंकवाद आदि अधिक महत्वपूर्ण रहे हैं । तथा राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इन समस्याओं से जूझने के प्रयत्न ही प्रमुख रहे हैं, शांति शिक्षा की तरफ लोगों व राष्ट्रों का ध्यान ही कम गया है । व्यक्तिगत स्तर पर भी शांति शिक्षा की कुछ समस्याएं हैं । चूंकि शांति शिक्षा अभी तक उच्च वर्ग तक पहुंच पाई है जबकि ऐसे आधुनिकता वाले उच्चवर्गीय व्यक्ति अपने जीवन को भौतिकता की चकाचौंध के कारण खाली एवं अर्थहीन पाते हैं । खण्ड २१, अंक १ ५७ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर्युक्त सीमाओं के बावजूद शांति शिक्षा को नकारा नहीं जा सकता है। इसकी आवश्यकता पूरे विश्य को है तथा अभी है, भविष्य के लिए निर्णय पर इसकी आवश्यकता को नहीं छोड़ा जा सकता। सन्दर्भ पुस्तक सूची 1. Wulfc (ed.) Hand book on Peace Education, IPRA, Frauk furt, 2. Haavelrrud M (ed.) Education for Peace : Reflection and Action, ___1976, Guildford 3. Devi Prasad-Peace Education & Education for Peace, GPF, Delhi 4. Road H.-Education for Peace, 1950 kogan paul, London 5. Encyclopedia of world Peace, Vol II, New York, Pergaman Press 1986 6. J. Lorson & M. Micheels (corp.)-Seeds of Peace, Santacrur CA __1987 7. Reardon B--Militariration, security & Peace Education 1982, United Ministaries in Education, Volley Forge 8. UNESCO-Reflections on the future development of Education 9. R. C. Pradhan- Gandhian experiment in peace action and Education (Peace proposals 1984) 10. R. C. Pradhan-Education for Peace & Human Right (Gandhi Marg, July-1984 --अहिंसा एवं शांति शोध विभाग जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं तुलसी प्रज्ञा Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामराज्य के संदर्भ में 'उत्तररामचरित' का सामाजिक चिन्तन दिनेश चन्द्र चौबीसा 'उत्तररामचरित' की विश्व-प्रसिद्धि ने भवभूति को पंक्तिपावन, कवि-शिरोमणि कालिदास के समकक्ष बैठा दिया है। इस नाटक में राम का उत्तर चरित वणित है। भवभूति ने मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से ख्यात इतिहास वस्तु और तत्सम्बन्धी प्रचलित जीवन-वृत्त को नाट्य में गुंफित कर एक ओर अपनी प्रौढ़ प्रतिभा का परिचय दिया है, वहीं सामाजिक चिन्तन को रचना धर्मिता के साथ जोड़कर अनेक प्रश्नों को प्रखरता से उठाया है। उत्तररामचरित के राम नवाभिषिक्त राजा हैं। इस नवीन राजा के सामने प्रमुख रूप से दो वस्तुएं हैं :-- राज्य और जनता राज्य का कुशल संचालन एवं प्रजा का अनुरंजन हर नवीन राजा के लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है। राम के लिए भी राज्य नया है। वे राज्य की स्थिरता एवं राज-पद की अक्षुण्णता के लिए कृत निश्चयी होते हैं और जनता की भावना का आदर करते हैं। प्रजा-पालन के कर्त्तव्य में अवरोधक बनने पर पत्नी तक को दांव पर लगा देने की बात करते है स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि । आराधनाय लोकस्य मुञ्चतो नास्ति में व्यथा ॥' राम ने राज्य में प्रजा के सुख-दुःख और नवीन राजा के प्रति उनके दृष्टिकोण को जानने के लिए दूतों को नियुक्त किया। नाटक के पहले अंक में राम ने दुर्मुख नामक अन्तःपुरचारी को नगर में गुप्तचर के रूप में भेजा है।' दुर्मुख सीता के विषय में अचिन्तनीय लोकापवाद को राम के सम्मुख प्रकट करता है। वे इस बात से परिचित हैं कि सीता निर्दोष है और वे यह भी जानते हैं कि स्त्री-चरित्र पर लाञ्छन लगाना लोगों की प्रवृत्ति है। फिर भी राम प्रजा की भावना का आदर करते हुए आसन्नसत्त्वा सीता के त्याग का मन ही मन निश्चय कर लेते हैं। सीता के चरित्र व निष्कलंकता से पूर्णत: परिचित राम, पतिव्रता स्त्री के सम्मान, उसके स्वाभिमान व सामाजिक प्रतिष्ठा की रक्षा नहीं कर सके हैं। वे सब कुछ जानते हुए भी अपराधी की तरह सीता को दंड देते हैं--- खंड २१, अंक १ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वया जगन्ति पुण्यानि त्वय्यपुण्या जनोक्तयः । नाथवन्तस्त्वया लोकास्त्वमनाथा विपत्स्यते । सीता विषयक लोकापवाद को सुनकर राम किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए हैं। उन्होंने पौरजनपदों में सीता के विषय में ऐसे कुत्सित विचार क्यों आये ? इसके मूल में क्या कारण है ? इसके पीछे कौनसी शक्ति काम कर रही है ? आदि की खोज नहीं की। विचारणीय प्रश्न यह है कि समाज में समान रूप से लाग होने वाला न्याय, क्या समाज की सदस्या सीता को प्राप्त हुआ? राजा का न्याय तो मिथ्या-अपवाद फैलाने वाले लोगों को दंड देने में था, जिससे भविष्य में फिर कभी पतिव्रता स्त्री के पातिव्रत्य पर अपवाद की भ्रान्त धारणा, कुत्सित मनोवृत्ति को दुहराया नहीं जाता। किन्तु राम राज-पद की लिप्सा के भंवर में फंस गये और राजत्व का मद उन पर हावी हो गया है । धर्मशास्त्र के विधि-विधानों को भी वे विस्मृत कर गये, जबकि शास्त्र तो राजा को पतिव्रता स्त्रियों के सम्मान एवं रक्षा का आदेश देता है। राम ने लोक-भावना का आदर करते हुए स्वयं अपनी पत्नी को त्याग कर समाज में स्वच्छ छवि बनायी है परंतु इसके मूल में जाकर वस्तुस्थिति का मनन किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि राम का आदर्श कोरा राजनीतिक आदर्श है। राज्य के लोभ व पद-लिप्सा में परितः शुद्ध एवं निष्पाप पत्नी को अनुचित दंड देकर स्त्री के स्वाभिमान व पवित्रता का गला घोंट दिया गया। राम के निर्णय पर दुर्मुख जैसे सामान्य अनुचर को भी आश्चर्य होता है :--- 'हां, कहं अग्नि परिसुद्धाए गर्भट्ठिद पवित संताणाए देवीए दुज्जणं वअणादो एवं ववसिदं देव्वेण ?" . 'हां, अग्नि (परीक्षा) से परितः शुद्ध, जिसके गर्भ में पवित्र संतान है (ऐसी) महारानी सीता के विषय में दुर्जन के कथन से महाराज ने यह कैसे निश्चय किया ?' उत्तररामचरित्र के कथा के विकास के साथ-साथ उसके सामाजिक एवं राजनैतिक घटनाक्रम का अनुशीलन करने पर अनेक प्रश्न उठ खड़े होते हैं १. राम ने सीता का परित्याग कर किस कर्तव्य का निर्वाह किया है(अ) राजा का, (ब) पति का, (स) गर्भस्थ शिशु के पिता का । २. राम ने किसका परित्याग किया है. . (अ) सम्राज्ञी का (ब) पत्नी का (स) प्रजा के रूप में प्रतिव्रता स्त्री का । ..... ३. राम ने लोकापवाद का दंड किसे दिया है-- .. (अ) सीता को (ब) सीता के गर्भस्थ शिशु को (स) सीता और गर्भस्थ शिशु दोनों को। दुर्मुख के मुख से लोकापवाद को सुनकर राम तिलमिला जाते हैं। दुर्मुख ग़म को लोकापवाद की सूचना देता है तब सीता चित्र-दर्शन से थकी-मांदी पति के हाथ को तकिया बनाकर विश्वासपूर्वक सो रही है। समाज-धर्म की रक्षा में बाधक व्यक्ति ६० ... तुलसी प्रज्ञा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क दंड देना राजा का कर्तव्य है, परंतु दंड अपराधी को दिया जाता है और वह भी उचित समय व स्थल को दृष्टि में रखकर । राम जब सीता के निर्वासन का निश्चय करते हैं तब सीता आसन्न प्रसवा है । राम ने यहां दंड अनुचित समय पर एवं निरपराधी को दिया है । यह अनुचित दंड सीता के साथ उसके गर्भस्थ शिशु को भी मिला है। इससे स्त्री-त्याग के विषय में पुरुष की निरंकुश सत्ता सूचित होती है । राम ने निरपराधी स्त्री पात्र को दंड देकर उसकी आवाज (स्वतंत्रता) को दबा दिया है । लोकमत को विश्वास में रखकर राम ने सीता का परित्याग किया है। सीता को दंड देना ठीक है, यह मान भी लें तो गर्भस्थ शिशु को दंड का भागीदार बनाना कहां ठीक है ? सीता के अपराध का दंड उसकी संतान को तो नहीं मिलना चाहिए। इस प्रकार सीता के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु को दंड देकर राजा ने सामाजिक न्याय व धर्मशास्त्र की अवहेलना की है। धर्मशास्त्र तो राजा को गर्भवती स्त्री की सहायता का आदेश देता है । ' राजा ने जिस दंड का निर्धारण सीता के लिए किया है, वह बिना सोचे-समझे एवं अतिशीघ्र निर्णय के आधार पर किया है । दण्डित सीता आसन्नसत्त्वा है, अत: दंड ही देना था तो प्रसव भार के टल जाने पर दिया होता तो उचित था । परंतु लोकानुरंजन के मोह में प्रजा का पक्ष लेकर नारी की अन्तर्वेदना एवं प्रसवकालीन पीड़ा को विस्मृत कर, उतावलेपन में निरपराधिनी आसन्नप्रसवा पत्नी के साथ अन्याय किया है । और दूसरी तरफ दंड और अपराध के अनुपात को भुला दिया है । इसे निम्न प्रकार देखा जा सकता है- १. सीता का अपराध - मात्र लोकापवाद (लोगों के लाञ्छन लगाने की जन्मजात प्रवृत्ति) २. इस अपराध का दंड = परित्याग ३. अपराध ४. दंड नगण्य = अक्षम्य । इससे स्पष्ट होता है नवोदित राजा को दोषी निर्दोषी, अपराधी - निरपराधी की पहचान नहीं है और अपराध के अनुपात में दंड का ज्ञान नहीं है । राजा चाहता तो अपराधी को अपराधी और दोषी को दोषी सिद्ध कर सकता था। वह असली अपराधी को जनमंच पर लाकर सीता पर लगाये गये मिथ्यापवाद को धो सकता था, क्योंकि सीता के सतीत्व का साक्षी वह स्वयं था । परंतु कोरे राजनैतिक स्वार्थ के लिए राम मे सीता को ही बली का बकरा बना दिया । सीता निर्दोष है यह जानते हुए भी वह चुप रहा और एकान्त में आकर सीता विषयक अपने निर्णय पर पश्चाताप किया ।" सीता की अन्तरंग सखी वासन्ती राम को सीता का परित्याग क्यों किया ? ऐसा पूछती है तब राम का उत्तर इतना ही होता है कि लोग सीता का मेरे राजप्रासाद में रहना पसन्द नहीं करते हैं । वासन्ती पूछती है- 'ऐसा क्यों ?' राम कहते हैं'इसका क्या कारण है इस बात को वे लोग ही जानते हैं ।' इसका अर्थ है कि राम ११ खंड २१, अंक १ ६१ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को यह भी पता नहीं है कि उसने सीता का परित्याग क्यों किया ? बस लोगों ने कहा और उसने कर दिया । १२ भवभूति ने उत्तररामचरित में पत्नी - परित्याग की इस समस्या को दृढ़तर शब्दों में उठाया है । स्त्री के त्याग से और भी अनेक नये प्रश्न उठ खड़े होते हैं, उनका तात्त्विक वर्णन कर कवि ने इस समस्या पर चिन्ता जतायी है । जैसे, सीता - निर्वासन के दुःख से आहत एवं असह्य प्रसववेदना की पीड़ा से व्याकुल होकर गंगा के प्रवाह में कूदकर जीवन - लीला का अन्त करने की चाह, ' दो कुलों के सम्बन्धों में तनाव, एवं वैमनस्य का जन्म । कौशल्या को समधी जनक से मिलने तक का साहस नहीं है । वह अत्यन्त लज्जित है । जनक को कौशल्या के दर्शन से असह्य पीड़ा होती है और वे कहते हैं कि "क्षते क्षारमिवासह्य जातं तस्यैव दर्शनम् । पुत्री के चरित्र पर कलंक और पति राम द्वारा उसके निर्मम परित्याग से सीता विषयक शोक उनके मर्मस्थल को आरे की भांति चीर डालता है । १५ वे इतने दुःखी हैं कि पुत्री के असह्य शोक से मुक्ति के लिए आत्महत्या तक का विचार करते हैं । सम्बन्धी जन सुशील एवं निर्दोष पत्नी का प्रत्याख्यान करने वाले पुरुष की निन्दा भी करते हैं । TO इस तरह पत्नी - परित्याग से कुटुम्ब में पति-पत्नी के प्रेम-सम्बन्ध में टूटन, उभयपक्षीय स्वजनों में वैमनस्य, कन्या के पितृ पक्ष की सामाजिक प्रतिष्ठा को क्षति आदि प्रश्न ज्वलंत समस्या का रूप ले लेते हैं । उत्तररामचरित में राम के सीता-त्याग के निर्णय की तरह ही शम्बूक - वध का निर्णय भी उतना ही चिन्ताजनक है । उत्तररामचरित के शम्बूक-वध प्रसंग में अन्यायपूर्ण वर्ण-व्यवस्था, जटिल जातीय बन्धन तथा वर्ग-विशेष के प्रति तुच्छ दृष्टिकोण; जातीय द्वेष के दर्शन होते | यह प्रसंग शक्ति एवं ऐश्वर्य सम्पन्न, प्रतिष्ठा प्राप्त लोगों की अपराधी मनोवृत्ति और अत्याचार के सत्य को उजागर करता है । उत्तररामचरित में ब्राह्मण अपने मरे हुए पुत्र को राजद्वार पर लाकर रखता है और छाती पीट-पीटकर रोता है - 'ब्राह्मणों पर महान् अनर्थ है ।' तब राम के प्रति तप कर रहे शम्बूक का वधकर मृत ब्राह्मणपुत्र को जीवित करने के लिए आकाशवाणी गुंजित होती है" और दण्डकारण्य में प्रवेश के समय राम जनस्थान में पैर ऊपर और सिर नीचे करके केवल धुंए का पान समाज में प्रत्येक व्यक्ति नैतिक पुनीत कर्म को कर सकता था । कोई भी करे; तप तो आत्म । करते हुए तप कर रहे शम्बूक का वध कर देते हैं। शक्ति एवं आचरण की पवित्रता के लिए तप त्याग के तप का किसी वर्ण - विशेष से कोई सम्बन्ध नहीं है । तप शुद्धि का कर्म है, शक्ति है, निर्मल प्रकाश है, ज्ञान है, शुद्धाचार है वेदाध्ययन से वंचित वर्ग का तप कर्म शास्त्र सम्मत है ।" राम जैसे शासक ने तप और तप के प्रभाव के विषय में, कारण और कार्य के विषय में सोचा तक नहीं । तप का किसी वर्ण से और तापस की साधना का किसी की मृत्यु से कोई सम्बन्ध नहीं है । शम्बूक का तप कर्म सुविधाभोगी उच्च वर्ग के समझ एक चुनौती थी; नहीं तो तप ब्राह्मण करे या शूद्र तप करने से कभी कोई मरा है ? और तप करने वाले का वध करने से क्या कोई मृत व्यक्ति कभी जीवित हुआ है ? शम्बूक के वध में निश्चय ही उच्चवर्ग ६२ तुलसी प्रज्ञा Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का स्वार्थ है। उच्च वर्ग ऐसे किसी संकट को मोल नहीं लेना चाहता था जिससे उनका सम्मान, प्रभुत्व व जीविका छिन जाय । अत: शम्बूक का वध कर उस जड़ को ही नष्ट कर दिया गया जो सिर उठा रही थी और इसका दोष अपने पर न आये इसके लिए अप्राकृत आकाशवाणी को आधार बनाया गया। निष्कर्षतः 'उत्तररामचरित' में पत्नी के परित्याग के सम्बन्ध में पुरूष की निरंकुश सत्ता और निम्न वर्ण की दयनीय दशा आदि प्रश्न मुख्य हैं। नाट्य की कथावस्तु लोक से सम्बद्ध होती है और समाज के प्रति जागरूक नाटककार वस्तु में समकालीन समाज की स्थितियों किंवा समस्याओं को अत्यन्त बारीकी से गुंफित करता है। भवभूति ने पुराख्यान के फलक पर नई चुनौतियों को उकेर कर जनमानस को आन्दोलित किया है। -व्याख्याता, संस्कृत-विभाग, आर्टस् & कॉमर्स कॉलेज, भिलोड़ा, जिला-साबरकांठा, गुजरात-३८३१४५ संदर्भ: १. उ० रा० च० १, १२, पृ० ३९ २. वही, प्र० अं०, पृ० ९६ ३. दुर्मुख :-हा कहं दाणि अन्तरेण ईरिसं अचिंतणिज्जं जणाववादं देवस्स कह __ इस्स । वही, प्र० अं०, पृ० ९६ । ४. वही, १.४०, पृ० १०२। ५. वही, १.४३, पृ० १०५ । ६. धर्मशास्त्र का इतिहास, द्वि० भाग, पृ० ६०३ । ७. उ० रा० च०, प्र० अं०, पृ० १०९ । ८. रामः-तत्किमस्पृश्य: पातकी देवीं दूषयामि । (इति सीतायाः शिरः समुन्नय्य बाहुमाकृष्य) -वही, प्र० अं०, पृ० ११३ ९. धर्मशास्त्र का इतिहास, द्वि० भाग, पृ० ६०२। १०. उ० रा. च०, ३.३२, पृ० ७३ । ११. वासन्ती-(समाश्वस्य) तत्किमिदमकार्यमनुतिष्ठितं देवेन ? राम :--लोको न मृष्यतीति वासन्ती-कस्य हेतोः खण्ड २१, अक १ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामः स एव जानाति किमपि । वही, तृ० अं०, पृ० ६३ । १२. वही, तृ० अं०, पृ० १८३ । १३. कथं नु खलु वत्साया मे वध्वा वनगतायास्तस्याः पितु राजर्षेमुखं दर्शयाम: : वही, च० अं० २८९ । १४. वही, ४.६, पृ० १५. वही, ४.३, पृ० १६. वही, च० अं०, पृ० २९३ । १७. वही, ३.२६, पृ० २३३, ३.२७, पृ० २३५ । १८. वही, २.८, पृ० १४९ । २९९ । २९२ । १९. शूद्रकमलाकर ( पृ० ३८ ), मनुस्मृति (१०.१२७ ), मिताक्षरा ( याज्ञ० ३.६२), धर्मशास्त्र का इतिहास, प्र० भाग, पृ० १६२ - १६४ से उद्धृत । ૬૪ तुलसी प्रज्ञा Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोधी आन्दोलन [] अनिल धर १० मई १९९४ को दक्षिण अफ्रीका का रंगभेद नीतिगत शासन प्रथम बार गैर जातीय आधार पर हुए चुनाव में विजय प्राप्त अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष डॉ. नेलसन मंडेला के राष्ट्रपति के रूप में शपथ ग्रहण के साथ प्रतीकात्मक रूप से समाप्त हो गया। इसका आधार १९१२ में पड़ चुका था जब ए. एन. सी. के संस्थापक पिक्सले सेम' ने प्रथम अधिवेशन में न्याय, स्वतंत्रता और समानता को अपना मौलिक अधिकार मानते हुए सब अफ्रीकी राष्ट्रवादियों को एक होने का आह्वान किया था। इसके साथ ही दक्षिण अफ्रीका की स्वतंत्रता के आन्दोलन का इतिहास शुरू हुआ । प्रस्तुत पत्र का विषय यही इतिहास है। इससे पूर्व रंगभेद की समस्या के लिए उपनिवेशवाद व दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोध में गांधी के योगदान को उल्लिखित करना घटनाक्रम को ठीक तरह से समझने में सहायता देगा। संक्षिप्त इतिहास चौदहवीं और पंद्रहवी शताब्दी में पुर्तगाली व्यापारियों के अफ्रीका आने से उपनिवेशवाद की नींव पड़ी जो कि १९३५ तक मुसोलनी के इटली द्वारा इथोपिया पर आक्रमण तक चलता रहा । उपनिवेशवाद के संस्थापक पुर्तगालियों ने १४८२ व १५०५ में अंगोला व मोजम्बीक में अपने आप को स्थापित कर अपनी स्थिति सुदृढ़ की । इसके उपरांत अफ्रीका में योरपीय समुदाय के उपनिवेश का जाल फैलता गया। इसी क्रम में फ्रांस ने १६३७ में, सिनेगल १६४३ में, रियूनियन १७१५ में, मारिशस १८३० में, अल्जीरया १८४० में, इक्यूटोरियल अफ्रीका १८८१ में, टयूनिस १८८२ में, आश्वरी कोस्ट १८९४ में अपने उपनिवेश स्थापित किये। ब्रिटेन ने १७८७ में अपने पूर्व दासों को पुर्नस्थापित करने के लिए अफ्रीका का सियरा लोन चुना तथा बाद में इसे अपने उपनिवेश की संज्ञा दी। १८४३ में नाटाल, १८६८ में वासुटोलेंड (बोस्टवाना) , १८७३ में घाना तथा १८७७ में ट्रांसवाल में उपनिवेश स्थापित किये जिनका विस्तार १८८९ में सूडान, १८९० में दक्षिण रोडेशिया (जिबाववे), १८९१ में उत्तरी रोडे शिया (जांबिया) तथा न्यास लैंड, १८९५ में कीन्या तथा १९०० में नाइजीरिया में उपनिवेश स्थापित करने से हुआ ।' अफ्रीका के उपनिवेश के इतिहास में जर्मनी की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण है। खण्ड २१, अंक १ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसकी शुरूआत १८८३ में हुई जब ऐडाल्फ लुडीरट्ज एक जर्मन व्यापारी के प्रतिनिधि का जहाज हेमबर्ग से प्रस्थान कर अफ्रीका के दक्षिण-पश्चिम तट पर ठहरा । स्थानीय आदिवासी कबीलों के सरदार वस्तुओं के आकर्षण में वहां तट समेत भूमि बेचने पर राजी हो गये । १८८५ तंजानिया, जर्मन उपनिवेश की स्थापना के पश्चात् नामीबिया, केमरून तथा टोकोलैंड पर अपने अधिकार की घोषणा की जिसका विस्तार १८९० में जंजीबार १९०५ में सोमालिया, १९११ में लीबिया तथा १९१२ मोरोक्को में उपनिवेश स्थापित करने से हुआ । " उपनिवेशवाद के क्रम में ही १८८५ में बेल्जियम के राजा लियापाल्ड ने कांगो (जिसका वर्तमान में नाम जेरे है), रंवाडा तथा बरूंड़ी पर अपने व्यक्तिगत स्वामित्व की घोषणा की ।' उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि अफ्रीका प्रारंभ से उपनिवेशवाद व साम्राज्यवाद का शिकार होता रहा । उपनिवेशवाद की श्रृंखला का अन्त १९३५ में मुसोलिनी द्वारा इथोपिया पर कब्जा करने से हुआ । कोई भी देश सदा सर्वदा एक स्थिति में बना नहीं रहता क्योंकि राष्ट्र की चेतना सदैव समान नहीं होती । यह स्वाभाविक था कि अफ्रीका वासियों में शोषण के विरुद्ध स्वतंत्रता की चेतना जगी और इस उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष का दौर आरंभ हुआ, जिसमें महात्मा गांधी की प्रतीकात्मक रूप से ही सही, एक अहम् भूमिका रही । गांधी दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी ने १८९३ से १९९४ तक लगभग २० साल दक्षिण अफ्रीका में बिताये । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम व भविष्य में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को नेतृत्व देने को दृष्टि में रखते हुए वह उनका अभ्यास काल माना जा सकता है । १८६० में गन्ना खेतों में कार्य करने के लिए भारतीयों को नाटाल लाया गया था । १८९१ तक दक्षिण अफ्रीका में लगभग एक लाख भारतीय थे जो कि ज्यादातर नाटाल और ट्रांसवाल में बसे थे । गांधी नाटाल में एक युवा वकील की भूमिका में गये थे । वहां भारतीयों के साथ भेदात्मक व्यवहार को देखते हुए उन्होंने वहां सत्याग्रह का प्रयोग किया । १८९५ में नाल की सरकार ने उन भारतीय मजदूरों पर कर लगा दिया जो अपने कार्य की अवधि समाप्त कर चुके थे । इसका उद्देश्य भारतीयों को वापस अपने देश भेजना था । इसके अतिरिक्त ट्रांसवाल में परिचय पत्र की आवश्यकता जो कि अब तक केवल अफ्रीकियों पर ही लागू होती थी भारतीयों समेत सब एशियाई व्यक्तियों के लिए अनिवार्य कर दिया गया । तद् उपरांत इसके क्रम में कोप सुप्रिम कोर्ट का आदेश आया जिसमें केवल ईसाई पद्धति से हुए विवाह को मान्य किया गया । इस प्रकार अफ्रीका सरकार की भेदमूलक नीति से अफ्रीकावासी संत्रस्त थे । गांधी स्वयं इस भेद-भाव का शिकार हो चुके थे, जिसकी कटु अनुभूति ने उन्हें इस भेदमूलक व्यवस्था के उन्मूलन के लिए प्रेरित किया और इसी क्रम में उन्होंने १८९५ ६६ तुलसी प्रज्ञा Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में नाटाल भारतीय कांग्रेस की स्थापना की । १९०६ में प्रथम सामूहिक निष्क्रिय प्रतिरोध की शुरूआत हुई। एक विशाल जनसमूह ने जोहंसवर्ग थियेटर में सत्याग्रह की शपथ लेते हुए कानून के साथ अवज्ञा व अहिंसक प्रतिरोध करने का निर्णय लिया, प्रतिक्रिया स्वरूप भारी पैमाने पर गिरफ्तारयां हुई । सत्याग्रह के क्रम में १९०८ में अवज्ञा के रूप में परिचय पत्रों को जलाया गया। इसके अतिरिक्त नाटाल कूच आदि सत्याग्रह से गांधी ने प्रतीक के रूप में दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद का विरोध शुरू कर इतिहास को नई दिशा दी। गांधी अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त करने के बाद तथा कई प्रयोग के उपरांत भारत वापस लौट आये और दक्षिण अफ्रीका के स्वतंत्रता आन्दोलन को अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस ने आगे बढ़ाया। दक्षिण अफ्रीका में स्वतंत्रता हेतु वहां के प्रायः सभी जाति के लोगों ने भाग लिया, जिसमें आश्चर्यजनक रूप से गोरों की संख्या काफी रही । स्वतंत्रता के संघर्ष के केन्द्र में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस का नाम आता है । १९१२ में पिक्सले सेम के नेतृत्व में संस्थापित अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस का एक लंबा इतिहास है। लगभग ५० वर्षों तक अहिंसक तरीका अपनाते हुए शोषण व अन्याय का शांतिपूर्ण प्रतिकार किया, परन्तु १९६० में आंदोलन का दूसरा रूप सामने आया । अब क्रांतिकारी पूर्ण अहिंसा का रास्ता छोड़कर नियंत्रित हिंसा के कार्यक्रम को भी मान्य करने को बाध्य हो गये। यह और भी स्पष्ट हो गया था जैसा कि रंगभेद विरोध के मान्य नेता अलबर्ट लुजलू ने कहा था कि "अफ्रीकन तब तक दास ही रहेंगे जब तक कि इस क्रूर सरकार से केवल प्रार्थना व भिक्षा की जायेगी।" हिंसा को मान्यता देने के बावजूद ए. एन. सी. फ्रीडम चार्टर में आदर्शात्मक भविष्य के निर्माण की कल्पना की गई थी। जिसको २५ जून १९५५ को अंगीकार किया गया था। इसके मुख्य अंश इस प्रकार हैं : "हम दक्षिण अफ्रीका के नागरिक अपने राष्ट्र व विश्व के लिए घोषणा करते हैं कि दक्षिण अफ्रीका उन सबका है जो यहां रहते हैं।" १. यहां राज्यों को समान अधिकार मिलेंगे। २. न्यायालयों में तथा शिक्षण संस्थाओं में बिना किसी भेद के सबको समान ___ अधिकार मिलेगा। ३. हर व्यक्ति को अपनी संस्कृति व रिवाज को मानने व अपनी भाषा प्रयोग करने का अधिकार होगा। ४. हर राष्ट्रीय समूह को उसकी जाति के व राष्ट्र के सम्मान के लिए न्याय की सुरक्षा मिलेगी। . रंगभेद, जातिभेद, नीति का प्रचार प्रयोग आदि दण्डनीय अपराध माने जायेंगे तथा इस प्रकार के हर कानून को अमान्य किया जायेगा। ६. हर पुरुष व स्त्री को मत का प्रयोग व चुनाव लड़ने का अधिकार दिया जाएगा। ७. हर व्यक्ति को सत्ता में भागीदारी के योग्य माना जायेगा। खण्ड २१, अंक १ ६७ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. अल्पमत द्वारा संचालित संस्थाओं को भंग करके लोकतंत्र के आधार पर संचालन होंगे । ९. व्यक्ति राष्ट्र की सम्पत्ति के समान अधिकारी होंगे । १०. खनिज सम्पदा, भूमि, बैंक व आवश्यक उद्योग राष्ट्र को समर्पित किये जायेंगे । ११. हर व्यक्ति को कार्य चुनने व करने की स्वतंत्रता दी जायेगी । १२. भूमि का वितरण उनमें किया जायेगा जो इस पर कार्य करेंगे तथा राष्ट्र किसानों को बांध, ऊर्जा, बीज उपकरण आदि के रूप में सहयोग देगी । १३. जबरन मजदूरी (बेगारी) समाप्ति, पशुओं की सुरक्षा आदि का ध्यान रखा जायेगा । १४. कानून सब के लिए समान होगा और बगैर किसी अभियोग व न्यायिक प्रक्रिया के किसी को सजा नहीं दी जाएगी न ही नजरबंद किया जाएगा । १५. कारावास की सजायें केवल गंभीर अपराधों पर होंगी व दण्ड नीति प्रतिरोधात्मक न होकर सुधारात्मक होगी । १६. पुलिस व सेना जनता के सहयोग के लिए कार्य करेगी व उसमें हर किसी को भागीदार बनने का अधिकार होगा । १७. जनता की वैयक्तिकता को सुरक्षा, भ्रमण की स्वतंत्रता, श्रम का समान मूल्य, न्यूनतम वेतन तथा न्यूनतम कार्य अवधि का निर्धारण, स्त्री श्रमिक समस्या आदि का समाधान किया जाएगा । १८. बाल श्रमिक अनुबंधित श्रम व्यवस्था आदि को भंग किया जायेगा । १९. शिक्षा का उद्देश्य युवा वर्ग को अपने देश से, व्यक्तियों से संस्कृति से प्रेम करना तथा बन्धुत्वभावना, स्वतंत्रता व शांति का सम्मान करना सिखाना होगा । २०. शिक्षा निःशुल्क, अनिवार्य व सब छात्रों के लिए समान होगी, तथा प्रौढ़ शिक्षा के कार्यक्रम को जन शिक्षण शिक्षा का रूप दिया जायेगा ।" इसके अतिरिक्त उन सभी बातों का इसमें समावेश किया गया जो मानवीय मूल्यों की गरिमा को बढ़ाते हों। फ्रीडम चार्टर का निर्माण करते हुए १७७६ की संयुक्त राष्ट्र की स्वतंत्रता की घोषणा, १७८९ में Declaration of the Rights of Man of the French Revolution व १९४८ का Universal Declaration of Human Right of the UN की सहायता ली गई । " इस अवसर पर नेलसन मंडेला ने कहा - "यह एक क्रांतिकारी घोषणापत्र है क्योंकि जिन सुधारों की यह चर्चा करता है वह दक्षिण अफ्रीका के वर्तमान आर्थिक व राजनैतिक तंत्र को भंग किये बिना नहीं पाया जा सकता ।"१ दक्षिण अफ्रीका में स्वतंत्रता संग्राम में कई महत्वपूर्ण घटनाएं मील की पत्थर साबित हुईं, जिन्होंने रंगभेद के विरुद्ध दक्षिण अफ्रीका में लोगों को एक मंच पर एकत्र तो किया ही विश्व जनमत का निर्माण करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । ट्रीजन का मुकदमा और शर्पेविले जनसंहार का महत्वपूर्ण स्थान है । ६५ तुलसी प्रज्ञा Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट्रीजन मुकदमा इस बात का प्रमाण है कि रंगभेद के विरूद्ध रंग, जाति आदि के भेद से ऊपर उठकर दक्षिण अफ्रीका के लोगों ने कार्य किया । दिसम्बर १९५६ में डॉ० नेलसन मंडेला समेत १५६ व्यक्तियों को फ्रीडम चार्टर को आधार बनाकर गिरफ्तार किया गया, व इस बात का अभियोग दायर किया कि ये लोग साम्यवादी व्यवस्था को स्थापित करना चाहते हैं, जो कि राष्ट्रदोह के समान माना गया । इस अवसर पर उदारवादी ईसाई व अन्य लोगों ने मिलकर जोहंसवर्ग के विशप की अध्यक्षता में एक सहायता कोष की स्थापना की। कई महीनों की सुनवाई के बाद ६१ व्यक्तियों को अभियोग मुक्त किया गया और अप्रेल १९५९ तक केवल ३० व्यक्तियों को दोषयुक्त मानकर मुकदमा चलाया गया जो कि लगभग साढ़े चार साल चला । मार्च १९६१ में लम्बी अवधि की सुनवाई के बाद उनको भी दोषमुक्त कर दिया गया । इस नैतिक विजय से ए. एन. सी. के कार्यक्रम में और गति आई । परन्तु इसके परिणाम स्वरूप रंगभेद समर्थक सरकार का दमनकारी चक्र और तेज हुआ मार्च २१, १९६० को पेन अफ्रिकनिस्ट कांग्रेस के नेता रोबर्ट सोबुक्वे ने परिचय पत्र की आवश्यकता के विरोध में एक प्रदर्शन का नेतृत्व किया । इनको अन्य लोगों के साथ ओरलांडो में गिरफ्तार किया गया। यहां से ३५ कि. मी. दूर शर्पावेले में हजारों व्यक्ति परिचय-पत्र को जलाने के अहिंसक प्रतिकार को प्रदर्शित करने हेतु पुलिस स्टेशन पर एकत्र हुए । पश्चिम देशों के पत्रकारों ने अपने संवादों में लिखा था आंदोलनकारी पूर्णरूप से अहिंसक तथा शान्त थे । इनके ऊपर गोलियों के ७०० राऊण्ड चलाये जिससे ६९ अफ्रीकी मारे गए व १८० घायल हो गये । इनमें स्त्रियां व बच्चे भी थे । ऐसी ही घटना वहां से लगभग एक हजार मील दूर लांघा में भी दोहराई गई । इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप पूरे देश में दंगें, प्रदर्शन, बंद आदि हुए । दक्षिण अफ्रीका में आपात स्थिति की घोषणा की गई। ए. एन. सी. व पेन अफ्रीकानिस्ट कांग्रेस ऑफ अजनया पर प्रतिबन्ध लगाया गया लगभग २०,००० व्यक्तियों को हिरासत में ले लिया गया । इस घटना के कारण पूरे विश्व में रंगभेद के विरुद्ध वातावरण का निर्माण हुआ । अहिंसक प्रतिरोध की इस सफलता को देखते हुए आगे भी ऐसे कार्यक्रमों को चलाने का निर्णय लिया गया । का नेता चुना गया, मार्च १९६१ में डॉ. नेलसन मंडेला को नेशनल एक्शन कौंसिल जिनका कार्य सरकार विरोधी कार्यक्रम को संचालित करना था । मई १९६१ में अफ्रीकियों के लिए नये राज्य की मांग के साथ नेलसन मंडेला हड़ताल का आह्वान किया, जिसमें भारतीयों समेत प्रायः पूरे देश ने भाग लिया । इस हड़ताल को नृशंसतापूर्वक दबाने का प्रयास किया गया । इसको देखते हुए जून १९६७ में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस की नीतियों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करने के निर्णय लिए गये, जिसमें ए. एन. सी. के अहिंसक कार्यक्रम को संचालित करने के लिए एक विशेष समूह की स्थापना की गई जिसमें वाटर सिसलू, रूथ फस्ट, "जो" स्लोवो, डेनिस गोल्डबर्ग, हेरोल्ड बारूप व अहमद कथराड़ा जैसे महत्त्वपूर्ण नेता शामिल थे । खण्ड २१, अंक १ ६९ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . इन्हीं दिनों अल्बर्ट लुटलु को नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जिन्होंने इसे अफ्रीका राष्ट्रवादियों व ए. एन. सी. के कार्यक्रमों के नाम स्वीकार किया। विश्व की सहानुभूति इन लोगों के साथ है जो रंगभेद का विरोध कर रहे थे इस पुरस्कार ने प्रमाणित किया।" १९६१ की हड़ताल को संचालित करने के पर मंडेला हिरासत में ले लिये गए व उन्हें पांच साल की सजा दी गई। इस अवसर पर प्रधानमंत्री को अपने भेजे पत्र में नेलसन मंडेला ने कहा कि "हम इस बात को स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हम अत्याचार व अन्याय का प्रतिकार करना कभी बन्द नहीं करेंगे। हम जानते हैं कि आपकी सरकार अफ्रीकावासियों पर और अत्याचार करेगी, किन्तु कोई शक्ति उन्हें स्वतंत्रता प्राप्त करने से रोक नहीं पायेगी। जुलाई १९६३ में पुलिस ने ए. एन. सी. के कई भूमिगत सदस्यों वाल्टर सिसलू, गोवन मबेकी, अहमद आदि को गिरफ्तार किया व सामूहिक स्तर पर हिरासत का अभियान चलाया गया । इसके अतिरिक्त प्रतिबंध लगाने के साथ-साथ क्रांतिकारियों को नये नियमों के अनुसार विरोधी प्रचार करने पर ३ साल की सजा, ५०० का आर्थिक दण्ड, १० कोड़े तथा विरोध के लिये प्रेरक होने पर ५ साल की सजा व ५०० डालर का आर्थिक दण्ड दिया गया। जिसके कारण वहां से हजारों-लाखों की संख्या में युवा वर्ग के लोगों ने पलायन किया। इस दौरान वे ए. एन. सी. की गतिविधियों से विभिन्न प्रकार से जुड़े रहे । अप्रेल २५, १९६९ को ए. एन. सी. के कार्यक्रम को व्यापकता देते हुए तनजानिया गणराज्य के मोरागोरो प्रान्त में इसकी सदस्यता हर जाति के लिए खोलने की घोषणा की गई।१६ इस घटनाक्रम से दक्षिण अफ्रीका पर अन्तर्राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित हुआ । पुर्तगाली उपनिवेश के विरुद्ध अंगोला, मोजाम्बीक, गुयानी, विसाऊ का सशस्त्र संघर्ष सफल हुआ और ये राष्ट्र स्वतंत्र हुए । अप्रेल १९०० में जिंबाववे तथा नामीबिया के स्वतंत्रता संग्राम के निर्णायक दौर में पहुंचने के कारण दक्षिण अफ्रीका का संग्राम भी तीव्र होता गया । - इस अवधि में अहिंसक प्रदर्शनों, हड़तालों, बन्द आदि तकनीक का भी प्रयोग किया गया । १९७३ में नाटाल प्रदेश में ३६० तथा १९७४ में ५४ हड़तालों का प्रदर्शन कर अपने विरोध को व्यक्त किया गया । फरवरी १९७३ में डरबन में ५०,००० से अधिक व्यक्तियों ने प्रदर्शन किया। हड़ताल के कारण लगभग १०० प्रमुख व्यापारिक प्रतिष्ठान आदि का काम रुक गया । डरबन के वस्त्रमिल के ५०० श्रमिकों पर प्रदर्शन के समय गोली चलाई गई। रंगभेद नीति में कोई परिवर्तन न आया और पीटर बोथा के १९७८ में प्रधानमंत्री बनने के बाद इसमें और तीव्रता आ गई। जुलाई २८,१९८१ के दैनिक पत्र "रैण्ड डेली मेल' के अनुसार राजनीतिक हिंसा की १२७ घटनाएं मात्र २ साल की अवधि में हईं, जिसमें ७० व्यक्ति मारे गये । इस घटनाओं में हिंसा का पर्याप्त रूप से सहारा लिया गया। दमन को प्रभावी बनाने के लिये दक्षिण अफ्रीका के रक्षा बजट में ४०% की बढ़ोत्तरी की गई। तुलसी प्रज्ञा Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० हड़तालों, हिंसा आदि को देखते हुए जुलाई १९८५ में दक्षिण अफ्रीका में फिर आपातकाल स्थिति की घोषणा की ।" डॉ० नेलसन मंडेला जेल में लगभग २४ वर्षों से बंदी होने के कारण रंगभेद अत्याचार का प्रतीक बन गये, जिससे उनके प्रति अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय की सहानुभूति बढ़ती गई । लगभग १९६१ से जेल में रहने के कारण वे आन्दोलन में सक्रियता से भाग न ले सके । उनकी अनुपस्थिति में उनकी पत्नी विनी मंडेला प्रवक्ता के रूप में कार्य करती रही । रंगभेद समर्थक सरकार ने उन पर भी प्रतिबंध लगाया व उन्हें नजरबंद किया । पीटर बोथा के दृढ़पूर्ण रवैये के साथ-साथ डॉ० मंडेला को मुक्त कराने के प्रयत्न भी किये गए। विश्व के कई वरिष्ठ नेताओं ने मंडेला को मुक्त कराने लिए दक्षिण अफ्रीका पर दबाव डाले । डरबन के वकील आर्ची गुमेडे ने "फ्री मंडेला " " मंच की स्थापना की जिसमें अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के जुड़ने से व्यापकता मिली। पीटर बोथा ११ वर्ष तक दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति रहे । इस दौरान रंगभेद नीति के कारण इस आशा के साथ संयुक्त राष्ट्र संघ में उनकी सरकार व देश के विरुद्ध व्यापक प्रतिबन्ध लगाने की बात हुई थी कि दक्षिण अफ्रीका की सरकार अपने व्यवहार में सुधार करेगी । परन्तु बोथा ने विश्व को स्पष्ट कर दिया था कि उनकी नीतियों में परिवर्तन नहीं आयेगा । उन्होंने वामपंथी सरकारों की भर्त्सना की और अन्य देशों पर आरोप लगाया कि दक्षिण अफ्रीका ने जो सम्पन्नता अर्जित की है उसे वे लूटना चाहते हैं । कुछ समय से यह आशा की जा रही थी कि वे लंबे समय 'कारावास में बंदी डा. नेलशन मंडेला को, जो अब तक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुके थे, छोड़कर प्रतीक के रूप में समस्या के समाधान की शुरूआत करेंगे । किन्तु बोथा के रंगभेद नीति के कट्टर समर्थक होने के कारण ऐसा संभव नहीं हुआ । अतः उन्होंने १५ अगस्त १९८९ को अपने पद से त्याग-पत्र दिया । उनके शासनकाल में २० हजार से अधिक अश्वेतों को बगैर मुकदमा चलाये जेलों में रखा गया । १९८४ में उन्होंने तीन सदनीय संसद की स्थापना कर भारतीयों व मिश्रित जाति के लोगों को प्रतिनिधित्व दिया, परन्तु अश्वेतों को कोई स्थान नहीं दिया गया, इसके विरोध में हुए दंगों में २ हजार से अधिक अश्वेत मारे गए डब्लू. डी. क्लार्क के नये राष्ट्रपति के स्थान लेने के साथ ही नयी संभावनाओं ने जन्म लिया । शपथ ग्रहण करने के पश्चात् उन्होंने कहा कि वे दक्षिण अफ्रीका का नया निर्माण करेंगे । इस दिशा में आगे बढ़ते हुए उन्होंने फरवरी १९९० में ए. एन. सी. से प्रतिबंध उठाया तथा उसके प्रमुख नेता नेलसन मंडेला को २७ वर्ष पश्चात् कारागार से मुक्त किया । अन्तर्राष्ट्रीय दबाव व आन्तरिक परिस्थितियों ने राष्ट्रपति को दक्षिण अफ्रीका में लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करने तथा रंगभेद की नीति को त्यागने के लिए विवश किया। राष्ट्रपति व ए. एन. सी. के मध्य वार्ता का क्रम प्रारंभ हुआ और दोनों पक्षों में कुछ विषयों पर आम सहमति भी हुई । अन्तरिम राष्ट्रीय सरकार की स्थापना तथा श्वेत प्रशासन की सभा का गठन जो राष्ट्र के लिए लोकतंत्रीय व्यवस्था की स्थापना के लिए संविधान का निर्माण करे, अनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर संसद का निर्वाचन, राष्ट्रपति की शक्तियों में कमी, स्वतंत्र न्यायपालिका खण्ड २१, अंक १ ७१ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा प्रान्तीय एवं स्थानीय सरकारों के सत्ता के विकेन्द्रीकरण पर सहमति हो गई, किन्तु व्यावहारिक प्रयोग में अधिक प्रगति न हो पाई। अगस्त १९९२ में ए. एन. सी. ने प्रदर्शनों, रैलियों, धरनों तथा आन्दोलनों से ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी कि दक्षिण अफ्रीका में शासन चलाना कठिन हो गया था । २६ सितम्बर १९९२ को पुनः शिखर वार्ता हुई, जिसमें संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधि सायरस वान्स ने मध्यस्थता की । डब्लू. डी. क्लार्क को कांग्रेस की मांगों को स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा । इन स्वीकृत मांगों में शेष राजनीतिक जलूसों द्वारा ले जाने वाले तथाकथित सांस्कृतिक शस्त्रों पर रोक समीप जहां से बाइपाटोंग (जहां जून १९९२ में ए. एन. सी. के कार्यकर्ताओं की जुलू हत्यारों द्वारा हत्या की गई थी ।) हत्याकांड प्रारम्भ हुआ था, जुलू कर्मचारियों की घेराबंदी को राष्ट्रपति ने स्वीकार कर लिया तथा घोषणा की कि तक संक्रमणकालीन कार्यपालिका की स्थापना की जायेगी जो कि का कार्य करेगी तथा अप्रैल १९९४ तक दक्षिण अफ्रीका का प्रथम समस्त जातियों द्वारा लिखित निर्वाचन होगा जो कि १० मई १९९४ को डॉ० नेलशन मंडेला के शपथ लेने के साथ संपन्न हुई । ए. एन. सी. अपने संघर्ष में सफल हुई और दक्षिण अफ्रीका में एक नये युग का प्रारम्भ हो गया । १९९३ के मध्य चुनाव संपन्न कराने मूल्यांकन दक्षिण अफ्रीका में हुए परिवर्तन को केवल राजनैतिक परिवर्तन मानना भूल होगी । इसमें सामाजिक व मनोवैज्ञानिक आयाम जुड़े हैं। वहां नये युग के निर्माण IT आधार विश्वास व उत्साह रहा । "पैट्रियाट" ने दक्षिण अफ्रीका में लोकतांत्रिक ढंग से सत्ता परिवर्तन को राजनैतिक चमत्कार की संज्ञा दी है। अखबार लिखता है। कि शान्तिपूर्ण चुनावों ने तमाम तरह की आकांक्षाओं को निर्मूल साबित किया है । विस्मय होता है कि नव भारत टाइम्स का कहना है कि "यह देखकर सचमुच श्वेत अल्पमत द्वारा शासित एक विकसित औद्योगिक देश ने बिना अपने को गैर नस्लीय लोकतांत्रिक राष्ट्र में तब्दील कर लिया है । यह अन्तिम दशक एक नये राष्ट्र के उदय पर गर्व से भरा हुआ दिखाई देता है । किसी हाहाकार के बीसवीं शताब्दी का नेलसन मंडेला निश्चय ही इस देश का नायक है जिन्होंने अपने संघर्षमय जीवन के २५ से भी अधिक वर्ष जेलों में बिताये है । लोकतंत्र की गरिमा की स्थापना के लिए डी क्लार्क की प्रशंसा करते हुए दैनिक पत्र " पैट्रीयाट" ने लिखा है कि "डी. क्लार्क ने समय को पहचान लिया था । उन्हें मालूम हो गया था कि गोराशाही के दिन अब लद गये हैं । इसे जबरदस्ती खींचने के लिए बहुत बड़ी आर्थिक व सामाजिक कीमत चुकानी पड़ेगी । उन्होंने बदलाव की पहल की। देश के लगभग सभी दल के नेताओं ने समझ से काम लिया और दक्षिण अफ्रीका के इतिहास पहली बार सर्वदलीय सरकार के गठन का मार्ग प्रशस्त किया । "नव भारत टाइम्स ने अपने सम्पादकी में इस विषय पर कहा कि "नये राष्ट्र के निर्माण में वर्तमान राष्ट्रपति डब्लू. डी. तुलसी प्रज्ञा ७२ बंदियों की मुक्ति, तथा जोहान्सवर्ग के Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्लर्क की भी विनम्र भूमिका है जिन्होंने मिखायल गर्बाच्योव की तरह दक्षिण अफ्रीका को उनकी क्रूरताओं और क्षुद्रताओं से मुक्त करने में योगदान दिया और रंगभेद के उपादानों ग्रुप एरियाज एक्ट आदि को धीरे-धीरे हटाया । आगे उन्होंने लिखा है कि नेलसन मंडेला के राष्ट्रपति बनने की निश्चन्तता के साथ डी. क्लार्क के उपराष्ट्रपति बनने की संभावना पर विचार हुआ। पूरी चुनावी प्रक्रिया के दौरान डी. क्लर्क ने बड़े विनीत भाव से काम किया और यह जतलाया कि मंडेला के साथ काम करने में उनके पूर्वाग्रह आड़े नहीं आयेंगे तथा दूसरा उपराष्ट्रपति ए. एन. सी. के ही उम्मीदवार को बनाने की इच्छा प्रकट की। उनकी विनम्रता के प्रदर्शन पर उन्हें नये दक्षिण अफ्रीका का उपराष्ट्रपति घोषित किया । आपसी समझ व सहयोग के कार्य का मूल्यांकन करते हुए नोबेल पुरस्कार समिति ने दोनों को संयुक्त रूप से वर्ष १९९३ का शांति पुरस्कार प्रदान किया। ___ आन्दोलन के स्वरूप की समीक्षा करके इसे पूर्ण अहिंसक मानना असंगत ही होगा । क्योंकि नियंत्रित हिंसा का प्रावधान इसमें मान्य किया गया। नेलसन मंडेला ने १९६२ में न्यायालय में कहा था, "सरकारी हिंसा प्रतिक्रिया में केवल हिंसा को ही जन्म देगी। हम सरकार को सचेत करना चाहते हैं कि निरन्तर अत्याचार व हिंसा से अफ्रीका में हिंसा का ही सृजन होगा और सरकार और मेरे व्यक्तियों में समस्या समाधान के लिए हिंसा का भी प्रयोग किया जायेगा।"२५ ___ आन्दोलन में दक्षिण अफ्रीका के छात्र, कर्मचारी," स्त्रियां, चर्च" व अन्य राष्ट्रों के योगदान जैसे भारत व अन्य देशों के सहयोग के महत्त्व को कम करके नहीं आंका जा सकता। संयुक्त राष्ट्र" ने अपनी सीमाओं में रहते हुए रंगभेद के विरूद्ध विश्व जनमत के निर्माण करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया, दक्षिण अफ्रीका पर आर्थिक व अन्य प्रतिबंध लगाने में इसने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। . यह दौर सर्वसम्मति की सार्थकता का है, समानता और लोकतंत्र का है। नेलसन मंडेला और डी. क्लर्क ने ही नहीं जूलू नेता मेगोश्तू बुथेलेजी ने भी अन्ततः चुनावों के तर्कों को समझा और बहिष्कार के दुर्भाग्यपूर्ण नारे के बाद उनकी इनकाथा फ्रीडम पार्टी ने चुनावों में हिस्सा लिया। मतदान के लिए जैसा दुर्लभ उत्साह और आवेग दक्षिण अफ्रीका के मतदाताओं में फूटा, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि लोगों में अपने भविष्य को रचने की चाह थी । मतदान के लिए लम्बी-लम्बी कतारें देखी गई और मतदान एक दिन के लिए बढ़ाना पड़ा। इस पूरे प्रसंग में लोकतंत्र की गरिमा बनी रही। मतदान के लिए दक्षिण अफ्रीका से बाहर भी ८० मतदान केन्द्र संयुक्त राष्ट्र के कार्यालयों में बनाये गये, ताकि दक्षिण अफ्रीका के नागरिक अपने मताधिकार से वंचित न रहे। ___सच्चा लोकतंत्र वह होता है जहां अल्पमत को भी महत्त्व दिया जाता है । प्रतिशत के आधार पर सत्ता में सहभागिता लोकतंत्र के आदर्श को दर्शाता है। दुर्भाग्य से भारत में आंकड़ों व जोड़ तोड़ के आधार पर सत्ता पर काबिज हुआ जाता है और खण्ड २१, अंक १ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पमत को मान नहीं दिया जाता । यदि तुलनात्मक दृष्टि से समीक्षा की जाये तो भारत की अपेक्षा दक्षिण अफ्रीका की स्वतंत्रता अधिक गरिमामय है। क्योंकि भारत की तरह दक्षिण अफ्रीका में स्वतंत्रता के समय जन संहार नहीं हुआ । नेताओं ने विवेक का प्रयोग किया और देश को खण्डित होने से बचाया। धार्मिक स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए डॉ० नेलसन मंडेला ने दी संडे टाइम्स में साक्षात्कार देते हुए कहा कि वे ईसाई, मुस्लिम व यहूदी धर्मगुरुओं को प्रशासन में भागीदार बनाने के इच्छुक हैं, जो कि आपसी विश्वास को बढ़ाने का प्रतीकात्मक इतनी अधिक उपलब्धियों के साथ-साथ नये राष्ट्र को समस्याओं की भी विरासत मिली है जिसमें जुलू समस्या, कम्यूनिस्टों का आतंक, अतिवादी गोरो का विरोध, जातीय घृणा, खनिज का अंधाधुंध दोहन, सम्पत्ति का हस्तांतरण, गोरों की पूंजी दक्षिण अफ्रीका से बाहर ले जाना आदि प्रमुख हैं। अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस ने अनेक भारतीयों और श्वेतों में आतंक विमोचित किया है । गोरे लोग देश छोड़कर जाने लगे हैं और परिणाम स्वरूप श्वेत राष्ट्रवाद भी उभरा है । कांग्रेस ने अगले १० वर्षों में २५ लाख लोगों को रोजगार देने, अगले पांच वर्षों में १० लाख मकान बनाने और २५ लाख ग्रामीण तथा शहरी मकानों में बिजली लगाने का वादा किया है, जबकि आर्थिक प्रतिबंध, योरोपीय समुदाय द्वारा खनिज भंडारों जैसे (यूरोनियम, हीरा और सोना) का दोहन, पूर्व पूंजीवादी व्यवस्था आदि के कारण नेलसन मंडेला के सामने आर्थिक कठिनाइयां भी आ सकती हैं। किन्तु हर संक्रमण काल चूंकि संघर्षपूर्ण होता है और अन्त में सफलता मिलती है अतः यहां भी ऐसी आशा की जा सकती है । निष्कर्षः शान्तिपूर्ण सामाजिक संरचना की व्यवस्था करते हुए जोन गालगुंग ने कहा है कि एक सामाजिक तंत्र तब शान्ति पूर्ण कहा जा सकता है जब कि इसमें से प्रत्यक्ष या संरचनात्मक हिंसा का पूर्ण अभाव हो । प्रत्यक्ष हिंसा शारीरिक क्षय पहुंचाता है और संरचनात्मक हिंसा व्यक्ति को अपनी संपूर्ण विकास की उन सम्भावनाओं से वंचित करता है, जिसे वह अन्यथा प्राप्त कर सकता है।" नये दक्षिण अफ्रीका में नेलसन मंडेला के सामने चुनौतियां कम नहीं हैं। श्वेत, अश्वेत और मिश्रित वर्ण के लोगों को एक साथ लेकर चलना कोई आसान काम नहीं है। नेलसन मंडेला को श्वेतों और मिश्रित जातियों के लोगों तथा भारतीयों के मन से डर हटाना होगा और अपने अहंकारी और दुविनीत पार्टी सदस्यों को समझाना होगा । अगर रंगभेद की समाप्ति के बाद अश्वेतों की तानाशाही दक्षिण अफ्रीका में स्थापित होती है तो लोकतंत्र की भ्रूण हत्या हो जायेगी।३५ अश्वेतों के लिए इस आजादी का अर्थ है मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति । यह काम मुश्किल जरूर नजर आता है, लेकिन दक्षिण अफ्रीका की जनता ने इस बार नेलसन मंडेला में जो विश्वास ७४ तुलसी प्रज्ञा Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्त किया है और जिस धैर्य का परिचय दिया है, अगर वह कायम रहा तो लक्ष्य हासिल कर पाना कोई मुश्किल काम नहीं है । " यह विश्वास और भी सदढ़ यों होता है कि सत्ता इस समय उन हाथों में है जो मानवाधिकार के मूल्यों को समझते हैं और उन्हें व्यापकता देना चाहते हैं । -अहिंसा शांति विभाग जैन विश्व भारती संस्थान लाडनूं-३४१३०६ (राज.) संदर्भ 1. The International Impact of the South African Struggle for Liberation, George Houser, Quoted in The Liberation Struggle in South Africa, ed. E. S. Reddy, 1992, sterling Publishers Pvt. Ltd., New Delhi. 2. UNESCO Year book on Peace and Conflict Studies, p-126, ___ 1988, UNESCO 7, de Fontenoy, 75700 paris, France. 3. Ibid 4. Southern Africa, Mikhail Vyshinsky. p-66, progress publishers, moscow, 1987 5. UNESCO year book on peace and conflict studies, pp-126-127 6. Ibid 7. The International Impaet of The South African Struggle for Liberation, George Houser, Quoted in The Liberation struggle in South Africa, pp-31-32 8. Southern Africa, Mikhail Vyshinsky, p-51 9. Ibid, pp-51-52 10. Ibid 11. Ibid. p-52 12. South African Struggle has United All Races, Mary Benson quoted in The liberatian struggle in South Africa, pp-12-13 13. Ibid 14. The Liberation struggle in South Africa, p-67 15. Ibid, P-9 16. Ibid, pp-16-17 17. Ibid, p-52 खंड २१, अंक १ ७५ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. Ibid, P-54 19. Ibid, p-55 20. UNESCO Year book 1988, P-146 21. The Liberation Struggle in South Africa. P-25 22. प्रतियोगिता दर्पण, अक्तूबर १९८९, पृ०-२७३ 23. प्रतियोगिता दर्पण, नवम्बर १९९३, पृ०-५३२-५३३ 24. वही 25. The Liberation Struggle in South Africa, P-109 26. Ibid. p-130 27. Ibid, p-202 28. Ibid, P-68 29. Ibid, P-266 30. Ibid, P-307 31. Ibid, p-320 32. नवभारत टाइम्स, २ मई १९९४, जयपुर 33. Johan Galtung, Violence, peace and Peace Research', Journal of peace Research, vol. 6, No 3, 1969, pp-167-91 34. Patriot, 5 May 1994 35. नवभारत टाइम्स, २ मई १९९४ 36. Patriot, 5 May 1994 ७६ तुमसी प्रमा Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णकम् १. 'रत्नपालचरित' में अलंकार सौन्दर्य २. 'जयोदय महाकाव्य' में प्रतिबिम्बित अद्यतन इतिहास ३. ऋतं च सत्यं च ४. प्राकृत के बिना संस्कृत 'पंगु' है । ५. बंगदेश में जैनधर्म का प्रारम्भ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'रत्नपालचरित' में अलंकार सौन्दर्य डॉ० हरिशंकर पाण्डेय निसर्ग-चंगत्तण और सहज-लावण्य-पूर्ण युवति का अंग-सौष्ठव बाह्यालंकार से संपृक्त होकर अत्यधिक विलसित होता है वैसे ही कवि-हृदय से संभूत काव्य-बाला का सौन्दर्य अनुप्रासोपमादि बहुविध अलंकारों का सहयोग पाकर अधिक उत्कृष्ट हो जाता है। ये वाणी के शृंगार एवं सौन्दर्य सम्बर्द्धक माने जाते हैं। इसीलिए भारतीय आचार्यों ने 'सौन्दर्यमलंकारः' कहा है।' अलंकार : अर्थ एवं स्वरूप संधारण ___ अलंकार दो शब्दों के मेल से बना है --अलम् और कार । जिसका अर्थ होता है-शोभाकारक पदार्थ । 'अलंकरोति इति अलंकारः' अर्थात् शोभावर्द्धक तत्त्व को अलंकार कहते हैं । आचार्य वामन के अनुसार अलंकृत करने वाले तत्त्वों से अभिप्राय है उपमादि का--- अलंकृतिः अलंकारः । करण व्युत्पत्या पुनः । अलंकार शब्दोऽयंमुपमादिषु वर्तते ॥ राजशेखर ने अलंकारों के महत्त्व को अंकित करते हुए इन्हें वेद का सातवां अंग माना है । उनके अनुसार ये अर्थ के उपकारक होते हैं :--- उपकारकत्वात् अलंकारः सप्तममंगमिति यायावरीयः, ऋते च तत्स्वरूप परिज्ञानात् वेदार्थानवगतिः ।। आचार्य दण्डी ने काव्यशोभाकारक धर्म को अलंकार कहा है :-काव्यशोभाकरान् धर्मानलंकारान्प्रचक्षते । आनन्द वर्द्धन की दृष्टि में शब्दार्थभूत काव्य साहित्य का आभूषक धर्म अलंकार है-अंगाश्रितास्त्वलंकारः मंतव्या कटकादिवत् ।' आचार्य मम्मट ने बताया है कि अलंकार शब्दार्थ का शोभावर्द्धन करते हुए मुख्यतः रस का उपकारक होता है उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचित । हारादिवदलंकारास्तेऽनुप्रासोपमादयः ।। कविराज विश्वनाथ के अनुसार अलंकार शब्दार्थ का अस्थिर या अनित्य धर्म है, जो काव्य-शोभा का उत्कर्षक होता है :---- शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माः शोभातिशायिनः । रसादीनुपकुर्वतोऽलंकारास्तेंगदादिवत् ॥ पंडितराज जगन्नाथ की दृष्टि में काव्य की आत्मा भूत व्यंग्य का रमणीयत्व बंर २१, अंक १ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबर्द्धक तत्त्व अलंकार है काव्यात्मनो व्यंग्यस्य रमणीयता प्रयोजका अलंकाराः । उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से अलंकार विषयक निम्नलिखित तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है · -- १. यह काव्य का आन्तरिक या अनिवार्य धर्म नहीं है, केवल बाह्य शोभादायक है । २. यह अस्थिर धर्म है । इसकी अनुपस्थिति में भी कोई काव्यत्व की हानि नहीं होती है ८० · क्वचित्तु स्फुटालंकार विरहेऽपि न काव्यत्वहानि: । ३. काव्य की शोभा या सौन्दर्य अलंकार पर आश्रित नहीं रहता है । ४. सत्काव्य में अलंकार की स्वतंत्र सत्ता नहीं होती है । अलंकार और गुण : प्रस्तुत संदर्भ में यह विचार्य है कि गुण और अलंकार दोनों एक ही हैं या परस्पर भिन्न-भिन्न । इस विषय में भारतीय आचार्यों के दो मत हैं : १. भामह विवरणकार उद्भट का विचार है कि गुण और अलंकार में भेद मानना मिथ्या कल्पना है । लौकिक गुण और अलंकारों में तो भेद माना जा सकता है, लेकिन काव्य में ओज आदि गुण और अनुप्रास उपमादि अलंकार दोनों ही समवाय सम्बन्ध से उपस्थित होते हैं, इसलिए काव्य में उनका भेदनिरूपण नहीं हो सकता है । उद्भट ने इस तथ्य को 'गड्डलिका - प्रवाह' के द्वारा यह संकेत दिया है कि जो इसमें भेद मानते हैं वह केवल भेड़ चाल ( गड्डलिका प्रवाह ) है : ओजः प्रभृतीनामनुप्रासोपमादीनां चोभयेषामपि समवायवृत्त्या स्थितिरिति गडलिका प्रवाहेणैवेषां भेदः । " २. आचार्य वामनादि का मत भिन्न है । वे काव्यशोभावर्द्धक तथा उत्पादक धर्म को गुण एवं काव्य-शोभा को अतिशयित करने वाले या बढ़ाने वाले धर्म को अलंकार कहते हैं । गुण काव्य का नित्य धर्म है और अलंकार अनित्य । अलंकार के बिना काव्यत्व में कोई ह्रस्वता नहीं होगी लेकिन गुण रहित काव्य आह्लादक किंवा शोभासंवर्द्धक नहीं हो सकता है -- काव्यशोभायाः कर्त्तारोधर्माः गुणाः तदतिशय हेतवस्त्वलंकाराः । तस्या: काव्यशोभायाः अतिशयस्तदतिशयः तस्य हेतवः । पूर्वेनित्याः । " काव्य और अलंकार प्रस्तुत संदर्भ में काव्य में अलंकार - प्रयोग की उपयुज्यता विचार्य है । काव्य में इनका प्रयोग भावों की सहज सम्प्रेषणीयता एवं अभिव्यक्ति चारुता के लिए किया जाता है । सुन्दर एवं भव्य - विचार अलंकारों का सहयोग पाकर 'सोने में सुगंध' की तरह उत्कृष्ट एवं वल्गु सम्प्रेषणीय हो जाते हैं । ये सारस्वत महाकवि की वाणी में सहज - स्फूर्त होते हैं, बौद्धिक आयास के द्वारा उपस्थापित किये गये अलंकार नैसर्गिक तुलसी प्रशा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप से स्फूर्त की तरह सुन्दर नहीं होते हैं। विवेच्य महाकवि महाप्रज्ञ की वाणी में अलंकार स्वयं 'अहमहमिका' की भावना से टूट पड़े हैं। ध्वनिकार आनन्दवर्द्धन का विचार ध्यातव्य है : ___ अलंकारांतराणि हि निरूप्यमाण दुर्घटान्यपि रससमाहित चेतसः प्रतिभानवतः कवेः अहंपूर्विकया परापतंति ।२ वामन ने सुपात्र शरीर पर ही अलंकारों को शोभावर्द्धक माना है, अर्थात् श्रेष्ठ वाणी को ही अलंकार अलंकृत कर सकते हैं। सरस काव्य में प्रयुक्त अलंकार ही सौदर्याधान में सहायक होते हैं, नीरस काव्य में अनुस्यूत अलंकार केवल उक्ति वैचित्र्य मात्र होकर रह जाते हैं। आचार्य मम्मट के शब्दों में यत्र तु नास्ति रसः तत्र उक्तिवैचित्यमात्रपर्यवसायिनः।" ___ अलंकार तभी शोभासंवर्द्धक होते हैं जब उनका प्रयोग औचित्यपूर्ण हो। ध्वन्यालोककार ने अलंकार प्रयोग के औचित्य की ओर निर्देश किया है : ध्वन्यात्मभूतेशृंगारे समीक्ष्य विनिवेशितः । रूपकादिरलंकारवर्ग एतियथार्थताम् ।। विवक्षा तत्परत्वेन नांगित्वेन कदाचन । काले च ग्रहणत्यागौ नाति निर्वहणषिता ।। नियूंढापि चांगत्वे यत्नेन प्रत्यवेलक्षणम् । रूपकादिरलंकारवर्गस्यांगत्व साधनम् । उपर्युक्त विवेचन से अलंकारोचित्य के निम्नलिखित विन्दुओं पर प्रकाश पड़ता १. अलंकार प्रयोग 'रसपरत्वेन' अर्थात् रस को ही प्रधान मानकर होना चाहिए। २. अलंकारों की प्रधानता नहीं होनी चाहिए। ३. आवश्यकतानुसार इनका ग्रहण और त्याग भी अपेक्षित है। ४. प्रयत्न पूर्वक काव्य में इनका आद्यन्त निर्वाह न हो, निर्वाह हो भी जाए तो अंगीत्व का स्थान न ग्रहण करें। महत्त्व काव्य में अलंकार-प्रयोग से काव्य की चारुता संवद्धित होती है, जैसे निसर्गरमणीय युवती का शरीर आभूषणों का योग पाकर दमक उठता है । अलंकार के विना काव्य वैसे ही सुशोभित नहीं होता जैसे स्वाभाविक-सुन्दर होने पर भी वनिता का मुख विभूषण के बिना विभूषित नहीं होता है । भामह के अनुसार : न कान्तमपि निर्भूषं विभातिवनितामुखभ् । ६ इंदुराज ने अपने ग्रंथ में अलंकार को काव्य का जीवात्मा स्वीकार किया है। जयदेव ने अलंकार रहित काव्य को उष्णतारहित-अग्नि से उपमित किया है। अलंकार न केवल शोभासंवर्द्धक या रसोत्कर्षक तत्त्व हैं, बल्कि चित्रात्मकता और बिम्बात्मकता में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये कवि की मानसिक स्थिति को द्योतित खण्ड २१, अंक १ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने में समर्थ होते हैं। किस परिस्थिति में कवि किस मानसिक भाव की अभिव्यक्ति करता है - इस तथ्य का उद्घाटन अलंकारों से ही होता है । प्रस्तुत संदर्भ में महाकवि पंत के विचार अवधेय हैं- अलंकार केवल वाणी की सजावट के लिए नहीं, वे भावाभिव्यक्ति के विशेष-द्वार हैं। भाषा की पुष्टि और राग की परिपूर्णता के लिए उपादान हैं । वे वाणी के आचार, व्यवहार और रीति-नीति हैं, पृथक् स्थितियों पृथक् स्वरूप हैं, भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के भिन्न-भिन्न चित्र हैं । वे वाणी के हास अश्रु, स्वप्न, पुलक और हाव भाव हैं । " भावावेश की स्थिति में अलंकारों का स्वतः प्रस्फुटन हो जाता है, और कल्पना या भावावेश के कारण भाषा का अलंकृत होना सहज-संभाव्य है । वास्तव में अलंकार काव्य के मात्र बाह्य-धर्म न होकर आन्तरिक उक्ति के साथ मन में आए हुए भाषा के रत्न हैं, जिनमें कल्पना का नित्य विहार है ।" उपर्युक्त तथ्य महाकवि - महाप्रज्ञ की रचनाओं के आलोक में पूर्णतया सार्थक एवं सटीक प्रतीत होता है । आचार्य श्री महाप्रज्ञ के सम्पूर्ण वाङमय में अलंकार स्वतः उनकी वाणी के मित्र बनकर विराजमान है । उनके साहित्य पर दृष्टिपात करने से ध्वन्यालोक की उक्ति चरितार्थ सिद्ध होती है कि सारस्वत महाकवि की वाणी में अलंकार 'अहमहमिका' की भावना से पूर्ण होकर टूट पड़ते हैं । 'अश्रुवीणा' का श्रद्धाप्रवाह और आसूं की धारा अलंकारों के सहयोग से वेगवती हो गई है । 'संबोधि' में काव्यलिङ्ग एवं अर्थान्तरन्यास के चारू प्रयोग ने उसे दार्शनिकता की निरस भूमि से उठाकर काव्य की सरस भूमि में प्रतिष्ठित कर दिया है। विवेच्य 'रत्नपालचरित' काव्य में अलंकारों का सुन्दर लास्य वस्तु - वर्णनीयता एवं रस - चर्वणीयता को उत्कर्ष तक ले जाता है । आचार्य महाप्रज्ञ की महनीय कृति 'रत्नपालचरित' में लगभग बीस अलंकारों का प्रयोग हुआ है । साहित्याचार्यो द्वारा विन्यस्त अलंकार स्वरूप सम्बन्धी धारणा को स्वीकार कर, उसमें उपस्थित कतिपय अलंकारों का संक्षिप्त विवेचन यहां प्रस्तुत किया जा रहा है १. अर्थान्तरन्यास - 'अर्थान्तरन्यास' में दो शब्द हैं अर्थान्तर और न्यास अर्थात् अन्य अर्थ ( अर्थान्तर ) का न्यास या रखना अर्थान्तर न्यास अलंकार है । इसमें सामान्य का विशेष के साथ अथवा विशेष का सामान्य के साथ समर्थन किया जाता है । किसी कथन के समर्थन के लिए अन्य अर्थं का न्यास होता है । इसके मूल में सादृश्य होता है जो शाब्द होता है, आर्थ या व्यंग्य नहीं होता है । इसके पुरस्कर्ता आचार्य - भामह माने जाते हैं । इनके अनुसार पूर्व अर्थ सम्बद्ध afed अर्थ के अतिरिक्त अन्य अर्थ के वर्णन में अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है । 'हि' शब्द के प्रयोग से यह अधिक स्पष्ट हो जाता है ।" आचार्य मम्मट के अनुसार साधर्म्य तुलसी प्रज्ञा ८२ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा वैधयं के द्वारा सामान्य का विशेष के साथ एवं विशेष का सामान्य के साथ समर्थन में यह अलंकार होता है : सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते। यत्र सोऽर्थांतरन्यासः साधर्म्यणेतरेण वा ॥ महाप्रज्ञ काव्य-साहित्य में सबसे अधिक प्रयोग इस अलंकार का हुआ है। रत्नपालचरित में अनेक स्थलों पर इसका सुन्दर विनियोजन हुआ है । उदाहरण द्रष्टव्य हैंअथांशुमाली लसदंशुमाला समाकुलः पूर्वशिलोच्चयस्य । चूलां ललम्बे तमसः शमाय सन्तो निसर्गादुपकारिणो यत् ॥९ सूर्य अपनी कमनीय किरणों से समाकुल होकर अन्धकार का नाश करने के लिए पूर्वांचल पर उदित हुआ । यह सच है कि सन्त स्वभाव से ही उपकारी होते हैं । 'सन्त स्वभाव से उपकारी होते हैं' यह सामान्य है, इसके द्वारा विशेष सूर्य के तमस-विनाशक स्वरूप का समर्थन किया गया है । 'यत्' पद अर्थान्तरन्यास का बोधक चिह्न है। 'सन्तो निसर्गादुपकारिणो यत्' कमनीय सूक्ति है । एवं विकल्पप्रवणोऽवनीशोड नल्प प्रमोदेन पुरश्चचाल । सन्तः पुरोगा हि भवन्ति नित्यं, ___ निसर्गतः सर्वविधौकृताज्ञाः ॥२२ इस प्रकार चिन्तन कर निपुण-नृपति अत्यत्त आनन्दित होता हुआ आगे चला । क्योंकि जो सज्जन निसर्गतः सब विधियों में आज्ञा प्रधान होते हैं, वे सदा अग्रसर होते हैं । यहां पर 'आज्ञा प्रधान सज्जन सर्वदा अग्रसर होते हैं'-इस सामान्य वचन के द्वारा 'राजा चिन्तन कर आगे बढ़ा' --विशेष का समर्थन किया गया है । 'हि' शब्द के प्रयोग से अर्थान्तरन्यास का सफल विन्यास हुआ है । प्रकामवासेन नयेत भक्ति ह्रासं गृहीत्वेति ततः सुशिक्षाम् । जाते वपुर्लग्नजले कदुष्णे, बहिर्ययो भानुरिवाऽम्बुदात् सः ॥ एक ही स्थान पर अधिक रहने से भक्ति का ह्रास होता है । शरीर पर लगे जल बिन्दुओं के ऊष्ण होने पर राजा ने उक्त शिक्षा ली और वह सरोवर से बाहर आ गया जैसे सूर्य बादलों से बाहर आता है। यहां पर 'प्रकाम वासेन०' रूप सामान्य बचन का 'जाते---सः' रूप विशेष वचन से समर्थन किया गया है। राजा सरोवर से बाहर आ गया' इस तथ्य की अभिव्यक्ति के लिए अन्य अर्थ (एक ही स्थान पर रहने से भक्ति का ह्रास होता है की उपस्थापना की गई है । उपमा के विनियोजन से इसके सौन्दर्य में 'सोने में सुगन्ध' की तरह संवृद्धि हो गयी है। अर्थान्तरन्यास और उपमा का भेद सहित एकत्र सन्निधान से संसृष्टि अलंकार का सौन्दर्य भी चर्व्य है। खण्ड २१, अंक १ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुहृद् गृहं किं परकीयमस्तु आः प्रस्मृतं स्वार्थी जगत् व्यवस्था, र्धाङ्गनान्या हि विपत्तिकाले ॥ २४ जो मैंने सोचा वह ठीक है अथवा नहीं ? मित्र के घर को पराया क्यों मानना चाहिए ? ओह ! मैं इस स्वार्थी जगत् की व्यवस्था के बारे में भूल कर रहा हूं, क्योंकि विपत्तिकाल में अपनी पत्नी भी परायी हो जाती है । विपत्तिकाल में पत्नी भी परायी हो जाती है, इस सामान्य वचन के द्वारा 'मैं इस स्वार्थी जगत् की व्यवस्था के बारे में भूलकर रहा हूं' विशेष का समर्थन किया गया है । 'हि' अर्थान्तरन्यास का वाचक शब्द है । लौकिक व्यवहार जगत् से 'अर्धाङ्गनान्या० सूक्ति का ग्रहण किया गया है । विद्याबलादात्म बलातिरेकाद्, विजित्य तं राज्यमथोददेऽस्मै । नवोत्तमा लोभ लवं स्पृशन्ति, २५ यतो न लोभात् परमस्ति पापम् ॥ राजा रत्नपाल ने अतिशायी बिद्याबल और आत्मबल से उस राज्य को जीतकर उस युवति के पिता को दे दिया । उत्तम व्यक्ति लोभ का स्पर्श नहीं करते, क्योंकि संसार में लोभ से बड़ा कोई पाप नहीं है। यहां पर सामान्य का समर्थन सामान्य से किया गया है । किं युक्तमालोचि मयाऽथवा नं., सद्दर्शनं यन्नयनं पुनाति ॥ * उसकी चिन्ता मुनि दर्शन से प्रनष्ट पापों के साथ ही विलीन हो गई । वह प्रसन्न होकर उठा और मुनि चरणों में वन्दन किया । यह सत्य है कि सज्जन व्यक्तियों के दर्शन से आंखें पवित्र हो जाती हैं। यहां पर ' सद्दर्शन से आंखें पवित्र होती हैं' रूप सामान्य से 'मुनि दर्शन से ब्राह्मण पवित्र हो गया' विशेष का समर्थन किया गया है । चकित विस्मित चित्त इलापति ८४ विनिर्ययौ तस्य शुगाशु पापैः, समं मुनेर्दर्शनतः प्रनष्टैः । सहर्षमुत्थाय पदी ववन्दे, रात्री की बातें सुनकर चकित चित्त राजा रत्नपाल अनिश्चित पथ से आगे चल पड़ा । विरक्त व्यक्तियों का यही शुभ क्रम होता है। वायु कभी भी निश्चित गति से नहीं चलता है । यहां 'वायु कभी भी निश्चित गति से नहीं चलता' रूप सामान्य से 'राजा अनिश्चित पथ की ओर चल पड़ा' विशेष का समर्थन किया गया है । लोकमूलक सूक्ति से राजा को सांसारिक विरक्ति और अनन्त पथ की ओर गमन का उद्घाटन किया गया है । स्तत इयाय यथाऽव्यवसायिना ॥ विरत चेतसः एषः शुभः क्रमो २७ न पवनो नियतं व्रजति क्वचित् ॥ तुलसी प्रज्ञा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. उपमा उपमा सादृश्य मूलक अलंकार है। इस अलंकार में दो पदार्थों को समीप रखकर एक-दूसरे के साथ साधर्म्य स्थापित किया जाता है। इसका प्रथम शास्त्रीय विवेचन निरुक्तकार यास्क ने किया है । न्यून गुणवाले की अधिक गुणवाले के साथ तुलना की जाती है । दंडी दो पदार्थों के साम्य-प्रतिपादन को उपमा मानते हैं। मम्मट ने उपमा की वैज्ञानिक परिभाषा दी है । इनके अनुसार उपमेयोपमान में भेद होने पर भी उनके साधर्म्य को उपमा कहते हैं साधर्म्यमुपमाभेदे । उपमानोपमेययोरेव नतु कार्यकारणादिकयोः साधर्म्य भवतीति तयोरेव समानेन धर्मेण संबंध उपमा । भेद ग्रहणमनन्वयव्यच्छेदाय ।२८ ____ उपमा के चार तत्त्व होते हैं-उपमेय, उपमान, साधर्म्य वाचक और साधारण धर्म। __उपमेय-जिसकी उपमा दी जाए या जिसका वर्णन किया जाए उसे उपमेय कहते हैं । विषय, प्रस्तुत, वर्ण्य, प्रकृत, प्राकरणिक तथा प्रासंगिक आदि शन्द उपमेय के वाचक (समानार्थक) हैं।। उपमान-- जिसके साथ उपमेय की समता या तुलना की जाए, उसे उपमान कहते हैं । अप्रस्तुत अप्रकृत, अवर्ण्य, विषयी, अप्राकरणिक, अप्रासंगिक आदि इसके अनेक नाम हैं । यह उपमेय से अधिक गुण वाला होता है :-उपमीयते सादृश्यमानीयते येनोत्कृष्टगुणेनान्यत् तदुपमानम्, यदुपमीयते न्यूनगुणं तदुपमेयम् । वाचक (साधर्म्य) औपम्यसूचक शब्दों को वाचक कहते हैं। इनकी संख्या अनेक है । इव, वत्, वा, यथा, समान, तुल्य, निभ, संनिभ, सम, लौं, इमि, जिमि, जैसा, वैसा आदि शब्द साधयं वाचक हैं । साधारण धर्म-उपमेय और उपमान में जिस धर्म या वैशिष्टय के कारण साम्य स्थापित किया जाता है उसे साधारण धर्म कहते हैं । महत्त्व-उपमा को सभी अलंकारों में श्रेष्ठ समझा जाता है। प्राचीनता, व्यापकता, रमणीयता, लोकजनीनता एवं सौन्दर्य-प्रियता की दृष्टि से उपमा का अत्यधिक महत्त्व है । कवि राजशेखर ने इसे अलंकारों का 'शिरोरत्न' कहा है, और रुय्यक ने अलंकारों का बीजभूत तत्त्व माना है । अप्पय दीक्षित ने इसके महत्त्व का संगायन करते हुए इसे उस नटी के समान माना है, जो नृत्य की भूमिका में अपने विविध रूपों को धारण कर सहृदयों का रंजन करती है : उपमैका शैलूषी सम्प्राप्त चित्रभूमिका भेदान् । रंजयति काव्यरंगे नृत्यंती तद्विदां चेतः ॥ वे उपमा के ज्ञान को ब्रह्मज्ञान की भांति मानते हैं ।३१ दण्डी ने सभी अलंकारों को उपमा का प्रपंच कहा है--उपमा नाम सा तस्याः प्रपंचोऽयं प्रदर्श्यते ।३२ प्राचीन काल से ही भारतीय-संस्कृति के उद्गायक कवियों ने उपमा का महत्त्व अंकित किया है। वाल्मीकि, ब्यास और कालिदास की उपमाएं प्रथित हैं। 'उपमा खण्ड २१, अंक १ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालिदासस्य' की सूक्ति साहित्य-संसार में प्रसिद्ध है। आचार्य श्री महाप्रज्ञ भी उपमा प्रयोग में प्रवीण हैं। इनकी उपमाएं सहज एवं स्वाभाविक हैं । लोक, शास्त्र, प्रकृति, जगत् से सम्बद्ध उपमाओं का सुन्दर विनियोजन हआ। अमूर्त-मूर्त्त, मूर्त-अमूर्त उपमेयोपमानों का सौन्दर्य-चर्व्य है । कुछ उदाहरणों का विवेचन अधो-विन्यस्त है :इतश्च दन्ति प्रवरेण शुण्डा दण्डं समुत्पाटयतोपयातम् । तदेभ शिक्षा प्रवणेन राज्ञा सस्तम्भितस्तत्त्वविदेव वादी ॥3 इधर हाथी अपनी सूंड को ऊपर उठाकर राजा की ओर झपटा। राजा हस्तिशिक्षा में प्रवीण था। उसने हाथी को वैसे ही स्तम्भित कर दिया जिस प्रकार तत्त्वविद् अपने वादी को । यहां पर राजा उपमेय, तत्त्वविद् उपमान, 'इव' सादृश्यवाचक शब्द है। यह पूर्णोपमा का सुन्दर उदाहरण है। राजा की हस्ति-शिक्षा की प्रवीणता को उदघाटित करने के लिए तत्त्वविद् को शास्त्रीय उपमान के रूप में उपन्यस्त किया गया है। अनेक स्थलों पर दार्शनिक जगत् से उपमान का संग्रहण किया गया है :किं हन्यतेऽस्मत् प्रभुरेष एवा स्माभिः कृतघ्न रिति चिन्तयातः । मुक्तो गतो दूरतरं यथात्मा, ___ लोकान्तमुद्गच्छति कर्ममुक्तः ।। ('वधिकों ने सोचा') क्या हम ही अपने स्वामी का वध करें? क्या ऐसा कर हम कृतघ्न नहीं होंगे ? इस चिन्ता से दुःखी होते हुए उन्होंने राजा को छोड़ दिया। वह मुक्त होते ही बहुत दूर चला गया जैसे कर्मों से मुक्त आत्मा लोकान्त में पहुंच जाता है । यह मूर्त उपमेय बन्धन मुक्त राजा के लिए अमूर्त उपमान आत्मा का प्रयोग किया है। जैसे कर्ममुक्त आत्मा लोकान्त अर्थात् सुरक्षित स्थान पर चला जाता है, फिर उसे कर्मों का भय नहीं सताता उसी प्रकार वधिकों से छोड़े जाने पर राजा सुरक्षित स्थान पर पहुंच गया । इस तथ्य का उद्घाटन किया गया है । लौकिक जगत् से संग्रहित उपमान युक्त उपमा का लावण्य सुन्दर है :विचारगर्भा धिषणालसाऽभूद्, मेधाविनो गर्भवती मृगीव ।५ उस मेधावी राजा की बुद्धि विचारों में डूबकर गर्भवती मृगी की तरह मंद हो गयी। यहां अमूर्त उपमेय के लिए मूर्त उपमान का प्रयोग हुआ है। गर्भवती मृगी चलने में, चंक्रमण करने में असमर्थ हो जाती है, उसी प्रकार बुद्धि, विचारों या चिता में डूबकर अपने कार्य में अक्षम हो जाती है। अक्षमता रूप साधारण-धर्म का प्रतिपादन किया गया है। तुलसी प्रशा Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यत्रापि कुत्रापि यथा कथंचित्, कालात्ययो हा क्रियते हठेन । यथा विदग्धेन वचो व्ययो हि, मितं पचेन द्रविण व्ययो वा ।।३६ जैसे विद्वान् व्यक्ति वचन का और कंजूस धन का व्यय करता है, वैसे ही वह राजा ज्यों-त्यों, जहां-कहीं रहकर हठपूर्वक समय बिताने लगा। 'दुःख का समय शीघ्र व्यतीत नहीं होता' इस तथ्य को उद्घाटित करने के लिए विद्वान्-वचन और कृपणधन को उपमान बनाया गया है। यहां एक उपमेय के लिए दो सार्थक एवं औचित्यपूर्ण उपमानों का विन्यास किया गया है । इस प्रकार अनेक स्थलों पर उपमा का प्रयोग काव्य-शोभा संवर्द्धन एवं तथ्यों की ललित अभिव्यक्ति के लिए किया गया है। अन्य उपमा प्रसंग २-२६, २७, ३८, ४०, ४२, ४५, ४-१, ५-१४, १६, १८ आदि द्रष्टव्य हैं। विस्तार भय के कारण सबका विवेचन संभव नहीं है। ३. रूपक-- रूपक का अर्थ है 'रूप का आरोप' । इस अलंकार में एक वस्तु में अन्य वस्तु का आरोप कर दोनों में अभेद स्थापन किया जाता है:---रूपयति एकतां नयतीति रूपकम्, रूपवत्करोतीति रूपयतीति रूपयुक्तं करोतीत्यर्थः । १० दण्डी के अनुसार जब उपमा के अन्तर्गत उपमेय-उपमान में परस्पर भेद तिरोधान हो जाए वह रूपक है :---उपमैव तिरोभूतभेदारूपकमुच्यते । आचार्य मम्मट ने उपमान और उपमेय के अभेदारोप को रूपक कहा है : तद्रूपकमभेदोपमानोपमेययोः । ९ अतिसाम्यादनपह नुत भेदयोरभेदः ।" भावों की स्पष्ट अभिव्यक्ति, गुणों की उदात्तता, भव्यता-एवं लालित्य-सौन्दर्य के अभिव्यंजन में रूपक अलंकार की महनीयता सिद्ध है । महाकवि-महाप्रज्ञ ने रत्नपालचरित में उदात्त एवं भव्य-निरूपण के अवसर पर रूपक का साधु विनियोजन किया है। दिव्य-सुन्दरी द्वारा कृत स्तुति में राजा की महनीयता को उद्घाटित करने के लिए --'जय-जय दस्युतमोऽभ्रमणे' में 'दस्यु-तम' पद में रूपक का विनियोजन किया गया है। दस्यु में ही अन्धकार का अभेदारोप होने से रूपक अलंकार हुआ है। __'जय-जय सुकृतम्भोजसरो'४२ यहां पर राजा के यश को उद्घाटित करने के लिए सुकृत-कमल का सरोवर कहा गया है । सुकृत में ही कमल का आरोप किया गया है । 'आरूढवानुत्तरदिग्गजेन्द्र विन्यस्त श्लोकांश में 'दिग्गजेन्द्रं' में रूपक अलंकार है। दिशा में ही गजेन्द्र का आरोप है। राजा के उत्कृष्ट पराक्रम को ज्ञापित करने के लिए इस रूपक का विनियोजन हुआ है। __ यस्मिन्नधीनीकृतमत्तचेतो मतङ्गजा योगिवरा वसन्ति ॥४ (जहां पर चित्तरूपी मत्त मतंगज (हाथी) को वश में कर योगिवर निवास करते खंड २१, अंक १ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । हैं) यहां पर चित्त में मदमस्त गज का आरोप किया गया है। सहाङ कुरां तद् हृदयोर्वरां स,५-राजा वाणी ने (प्रश्नों ने) युवति के हृदय रूप उर्वरा (भूमि) को प्रश्नों की वर्षा कर अंकुरित कर दिया। यहां हृदय में उर्वरा भूमि का तथा प्रश्नों में वर्षा का आरोप किया गया है। तन्मध्यगस्यैकमणे: प्रकाशो प्रकाशयत् त्वां मम भाग्यचान्द्रम् । रत्नगर्भा (धरती) के एक मणी के प्रकाश ने मेरे भाग्य रूपी चन्द्रकान्तमणि के रूप में तुम्हें प्रकाशित किया है। यहां पर भाग्य में चन्द्रकान्तमणि अर्थात् अमूर्त में मूर्त का आरोप किया गया है। तस्मिन् समं सौधसुधाकरेण तद्भूपतेजस्तपनोऽभ्युदेति । तारानिभैरन्य गृहैव तेन, __ मिथो नणां वैरमतो न शङ्क ॥ उस (शक्रपुर) नगर में तारों के समान दूसरे घरों से आवृत राज प्रासाद रूपी चन्द्रमा के साथ-साथ उस राजा का तेजरूपी सूर्य भी उदित होता है। अतः यह निश्चित है कि वहां के लोगों में आपस में वैर-भाव नहीं है। यहां पर राज-प्रसाद में चन्द्रमा तथा राजा में सूर्य का आरोप किया गया है। राजा की विराटता एवं भव्यता का उद्घाटन होता है । रूपक के द्वारा नागरिकों के पारस्परिक निर्वैरता का सुन्दर प्रतिपादन किया गया है। दैनिक खेदेनाहूतेव नयनस्नेहप्रियमुन्मील्य । जागरिता द्रविणं हा तां निद्रादस्युरिवाऽधिचकार । मानों दैनिक खेद से आमंत्रित, नयन रूपी दीपकों को उन्मीलित कर, जागरण रूपी धन का अपहरण करने के लिए निद्रा रूपी दस्यु ने उस राजकुमारी पर अधिकार कर लिया। यहां रूपक के द्वारा राजकुमारी की निद्रा का सुन्दर वर्णन किया गया है। नयन में दीपक, जागरण में धन और निद्रा में दस्यु का आरोप किया गया है । ४. उत्प्रेक्षा 'उत्प्रेक्षा' शब्द उत् एवं प्र उपसर्ग पूर्वक ईक्ष् धातु से बना है-उत्कृष्ट पदार्थ की संभावना या बलपूर्वक देखना । इस अलंकार में उपमान या अप्रस्तुत को प्रकृष्ट रूप से देखने का वर्णन होता है । यह सादृश्य मूलक अलंकार है । दंडी के अनुसार जब अन्य प्रकार से स्थित चेतना अथवा अचेतन पदार्थ की अन्य प्रकार की वस्तु के रूप में संभावना करना उत्प्रेक्षालंकार है । उन्होंने उत्प्रेक्षा वाचक शब्दों में मन्ये, शंके, ध्रुवम्, प्रायः और इव आदि का कथन किया है : अन्यथैव स्थिता वृत्तिश्चेतनस्येतरस्य वा । अन्यथोत्प्रेक्ष्यते यत्र तामुत्प्रेक्षा विदुर्यथा ॥ ७८ तुलसी प्रज्ञा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्ये शङ्क ध्रुवंप्रायो नूनमित्येव मादयः । उत्प्रेक्षा व्यंज्यते शब्दः इव शब्दोऽपि तादृशः ॥ __ आचार्य मम्मट ने प्रकृत (उपमेय) की अप्रकृत (उपमान) के साथ एकरूपता या तादात्म्य की संभावना को उत्प्रेक्षा कहा है :--- संभावन मथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत् । यह अलंकार उपमा से भिन्न इसलिए है कि उपमा में उपमेय-उपमान में सादृश्य की स्थापना की जाती है परन्तु उत्प्रेक्षा में उपमेय में उपमान की संभावना की जाती है। यह संदेह अलंकार से भिन्न है, क्योंकि संदेह अलंकार का संशय दोलायमान होता है, लेकिन उत्प्रेक्षा में उत्कट कोटिक या उपमान के प्रति संशय होता है। रत्नपाल चरित में अनेक स्थलों पर वर्णनीय के उत्कृष्ट प्रतिपादन के लिए इस अलंकार का प्रयोग किया गया है, कुछ उदाहरणों का विवेचन अधो-विन्यस्त है :राज्ञी तदीयाऽर्जान चन्द्रकान्ता यत्सौकुमार्येग विडम्बितानि । पद्मान्यऽगुर्वारिणि धावितुं स्व मकीर्तिमालिन्यमिति प्रतीतिः ॥१२ उसकी रानी का नाम चन्द्रकान्ता था। उसने अपनी सकुमारता से सारे कमलों को विडम्बित कर दिया था। मानो उस बिडम्बना से प्रताड़ित होकर वे पद्म अपनी अकीर्ति रूपी मलिनता को धोने के लिए पानी में चले गए हों। यहां पर 'अकीर्तिमालिन्यमिति प्रतीति:' में उत्प्रेक्षालंकार है। व्यतिरेक के योग से इसका रमणीयत्व बढ़ गया है। मन्ये धरित्रीत्यनुरुद्धय चक्रे, तं रत्नपालं महिपालमत्र ॥७ मानता हूं कि भूमि ने यह सोचकर उस रत्नपाल को राजा के रूप में स्थापित किया था। 'मन्ये' उत्प्रेक्षावाचक शब्द है। ५. व्यतिरेक व्यतिरेक का अर्थ है-विशेष प्रकार का अतिरेक या आधिक्य—'व्यतिरेको विशेषणातिरेकः आधिक्यम् । कबि जब उपमान की अपेक्षा उपमेय को अधिक सबल एवं प्रौढ़ सिद्ध करना चाहता है, तब व्यतिरेक अलंकार का प्रयोग करता है। भामह ने उपमान की अपेक्षा उपमेय के गुणोत्कर्ष वर्णन को व्यतिरेक कहा है :-- उपमानवतोऽर्थस्य यद्विशेषनिदर्शनम् । व्यतिरेके तमिच्छति विशेषापादनाद्यथा ।।५ मम्मट ने उपमेय के गुणाधिक्य वर्णन को व्यतिरेक कहा है :-- उपमानाद्यन्यस्य व्यतिरेकः स एव सः । अन्यस्योपमेयस्य व्यतिरेक आधिक्यम् ॥५९ उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से निम्नलिखित तथ्य प्रकट होते हैं :१. इसमें उपमेय के उत्कर्ष का प्रतिपादन तथा उपमान का अपकर्ष सिद्ध किया खण्ड २१, अक १ ८९ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है। २. उपमेय का उत्कर्ष एवं उपमान के अपकर्ष सिद्धि के लिए कल्पना या हेतु का निर्देश। ३. सादृश्य शाब्द न होकर आर्थ या व्यंग्य होता है एवं ४. वैधर्म्य की कल्पना द्वारा उपमेय-उपमान में भेद का कथन किया जाता है। रत्नपालचरित में अनेक स्थलों पर इस अलंकार का प्रयोग हुआ है :अहनिशं पाति भयान्मनुष्यानऽयं दिनेष्वेव ममांशुराशिः । इतीव तस्याऽवनिपालमोलेः सूर्यः सपर्येच्छुरिवोन्मुखोऽभूत् ।।" 'मेरा किरण-जाल दिन में ही मनुष्यों को भय से बचाता है, लेकिन यह राजा दिन और रात दोनों में मनुष्यों की भय से रक्षा करता है', यह सोचकर सूर्य मानो पूजा करने के लिए इच्छुक होकर उसके समीप आ गया। यहां पर राजा का आधिक्य वणित है । सूर्य दिन में ही संसार की रक्षा करता है लेकिन राजा रात-दिन दोनों समय में रक्षा करता है इसलिए सूर्य से महान् है।। सरोवर की उत्कृष्टता या श्रेष्ठता अधोविन्यस्त श्लोक में व्यञ्जित है : पानार्थमन्ये वितरन्ति वित्त-- ___ महं तदा जीवनमर्पयामि । तेनैव मह्य महिजानिरत्र विशालं कायं सदनं ददाति ८ वृक्ष (भूरुह) से राजा (भूधव) की श्रेष्ठता का प्रतिपादन :अनल्पकालं सलिलाऽभिषिक्तः __. फलप्रदः स्यादिह भूरुहोऽपि । सरण्या सकृन्मे मनसा स्मृतोपि, फलप्रदस्त्वं किल भूधवोऽपि ॥" (सखी कहती है) लम्बे समय तक सींचने पर वृक्ष फल देते हैं, किन्तु तुम भूधव (राजा) होकर भी मेरी सखी द्वारा एक बार याद करने पर फलप्रद हो गए हो। यहां पर राजा की उत्कृष्टता ब्यंग्य है। वसन्तपुर नगर स्वर्ग से भी श्रेष्ट था, इसका प्रतिपादन अधोविन्यस्त श्लोक में सुन्दर रूप अस्ति स्म तस्मिन्नचले वसन्ता ____भिधं पुरं सर्व पुर प्रधानम् । धरापुरन्ध्यास्तिलकायमानं कान्त्या हतस्वर्गपुराभिमानम् ॥ शक्रपुर के जलाशय गंगाजल से भी स्वच्छ एवं निर्मल जल को धारण करते तुलसी प्रज्ञा Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलाशयास्तत्र निजावदात वाराऽमलत्वं हरशेखरायाः ।" ६. काव्यलिङ्ग इसमें काव्य और लिङ्ग दो शब्द हैं, जिनका अर्थ है काव्य का कारण अर्थात् ऐसा कारण जिसका वर्णन काव्य में किया जाए। तात्पर्य यह है कि कवि जिस तथ्य को सिद्ध करना चाहता है उसका कारण वाक्यार्थ या पदार्थ में दे देता है। यह तर्क न्यायमूलक अलंकार है । मम्मट के अनुसार जब वाक्यार्थ या पदार्थ के रूप में कारण का कथन किया जाय तो काव्यलिङ्गालंकार होता है : ___ काव्यलिङ्ग हेतोर्वाक्यपदार्थता । ६२ रुय्यक ने वाक्यार्थ या पदार्थ रूप से हेतु-कथन को कायलिंग कहा है :'हेतोर्वाक्यपदार्थत्वे काव्यलिङ्गम्'।" यह अर्थान्तरन्यास से भिन्न इसलिए है कि काव्यलिङ्ग में कार्य-कारण भाव का प्राधान्य रहता है, और अर्थान्तरन्यास में सामान्य-विशेष भाव का। अर्थान्तरन्यास में एक वाक्य प्रस्तुत होता है दूसरा अप्रस्तुत, परंतु काव्यलिंग में दोनों ही वाक्य प्रस्तुत होते हैं। रत्नपालचरित का कवि कायलिंग प्रयोग में कुशल है। अनेक स्थलों पर इसका सुन्दर विन्यास हुआ :यत्र क्वचित् याम्यकृतारिभाव तित्रापि मोदं लभते न घूकः । तद् दूषणं तस्य ममाचवेति स बोद्धमस्मिन् विदुषां विचारम् ॥ एक कवि ने कहा-सूर्य ने यह सोचा कि मैं मंत्री भाव से सर्वत्र जाता हूं, पर उल्लू मेरे से प्रसन्न नहीं होता, 'यह उसका दोष है या मेरा' इस विषय में विद्वानों के विचार जानने के लिए आकाश में घूमता है । 'सूर्य आकाश में घूम रहा है' इस कार्य के लिए उल्लु अप्रसन्न है 'इसमें दोष किसका है' यह जानने की इच्छा कारण है । अतएव काव्यलिङ्गालंकार है । अक्षम्यमाडागः परिभाव्य तस्य, समूलमुन्मूलयितुं पदानि ॥" अन्धकार के अक्षम्य अपराध को जानकर उसका (अन्धकार का) समूल विनाश करने के लिए सूर्य घूम रहा है । __'सूर्य घूम रहा है' इस कार्य का कारण अन्धकार का समूल विनाश करना है। यहां कार्य-कारण भाव है। पानार्थमन्पे वितरन्ति वित्त महं तदा जीवनमर्पयामि । तेनैव मह्य महिजानिरत्र विशालंकायं सदनं ददाति ॥ खण्ड २१, अंक Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य व्यक्ति रक्षा के लिए धन का वितरण करते हैं, और मैं पीने के लिए जल देता हूं, इसीलिए राजा मुझे यहां विशाल स्थान दे रहा है। यहां 'अहं तदा जीवनमर्पयामि' कारण तथा 'विशालं कायं सदनं ददाति, कार्य है। उपर्युक्त श्लोक में श्लेष, व्यतिरेक मीर काव्यलिङ्ग अलंकार तथा तीनों के तिलतण्डुलन्याय से उपस्थिति होने के कारण संसृष्टि का सौन्दर्य रमणीय बना है। उपर्युक्त उदाहरणों के अतिरिक्त २.१५, २.४६, ३.१, ५.८, ५.२४ भी द्रष्टव्य है। ७. अर्थापत्ति इसका अर्थ है -अर्थ की आपत्ति-आ पड़ना या गिर पड़ना। इस अलंकार में एक कार्य की सिद्धि या वर्णन के साथ अन्य अशक्य कार्य की सिद्धि या वर्णन किया जाता है । यह वाक्यन्यायमूलक अलंकार है। इसमें दण्डापूपिकान्याय एवं “कौमुतिक न्याय' के आधार पर अन्य कार्य की सिद्धि का उल्लेख होता है। रुय्यक ने कहा है-- 'दण्डापूपिका न्याय' से अन्य अर्थ की प्रतीति अर्थापत्ति अलंकार है-दंडापूपिकयार्थीतरापतनमापत्तिः । अप्पय दीक्षित के अनुसार कै मुत्यन्याय से अर्थ-सिद्धि अर्थापति कैमुत्येनार्थसंसिद्धिः काव्यार्थापत्तिरिष्यते । तांत्रिकाभिमतार्थापत्ति व्यावर्तनाय काव्येति विशेषणम् ।।६० रत्नपालचरित का महाकवि इस अलंकार के प्रयोग में कुशल है। अनेक स्थलों पर महनीय एवं उदात्त भावों के अभिव्यंजन के लिए इस अलंकार का प्रयोग किया गया :तथाधिरूढा नवराङ्गमाज्ञा, नारोक्ष्यते किं मम राजमौलिम् ॥ मनुष्यों के शिर पर आरूढ़ होने वाली मेरी आज्ञा क्या राजाओं के शिर पर आरूढ़ नहीं होगी अर्थात् अवश्य होगी। यहां कौमुतिक न्याय से 'मेरी आज्ञा सबको बस में करने में समर्थ है' इस तथ्य का प्रतिपादन किया गया है। लुण्टाकवत्या परकीयवस्तु वाते विधत्तेऽनधिकारचेष्टाम् । असह्यमेवेति मया प्रकृत्या सिन्धुन कि प्लावयति स्म काकम् ॥ जो व्यक्ति परायी वस्तु को लूटने की वृत्ति से उस पर अधिकार करता है, यह अनधिकार चेष्टा है । स्वभावतः यह मेरे लिए असह्य है। क्या समुद्र कौए को नहीं बहा देता? यहां कौमुतिक न्याय से राजा के प्रबल सामर्थ्य का निरूपण किया गया है। क्या समुद्र कौए को नहीं बहा देता ?' अर्थात् अवश्य बहा देता है-इससे यह स्पष्ट हो रहा है कि राजा लुण्टाकों का दमन करने में समर्थ है। सुनसी प्रज्ञा Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न दुर्जनः कार्यमजर्यमीयु स्तदीक्षणाद् बोधमिमं पुरस्थाः । एतद् भवेन् मुक्तसराढिधमैत्र्यं केषां प्रियं नो सलिलं सलीलम् ॥" उन जलाशयों के पानी को देखकर नागरिक ने यह बोध-पाठ पढ़ा कि दुर्जनों के साथ में मैत्री नहीं करनी चाहिए । यह जलराशि क्षारसिंधु का संसर्ग छोड़ने के पश्चात् किन्हें प्रिय नहीं हुई। यहां पर कौमुतिक न्याय से दुर्जन-संगति परित्याग की बात कही गई है। ८. दृष्टान्त 'दष्टान्त' का अर्थ है उदाहरण । इसमें किसी तथ्य की प्रतिष्ठापना के लिए उसके सदृश अन्य बात (उदाहरण) कही जाती है। इसमें दो वाक्य होते हैं-एक उपमेय वाक्य तथा दूसरा उपमान वाक्य और दोनों में साधारण धर्म भिन्न होते हैं। मम्मट के अनुसार उपमेय वाक्य उपमान वाक्य एवं उनके साधारण धर्म में यदि बिम्बप्रतिबिम्ब भाव हो तो दृष्टान्त अलंकार होता है । यह साधर्म्य एवं वैधर्म्य दोनों प्रकार से होता है : दृष्टान्तः पुनरेतेषां सर्वेषां प्रतिबिंबनम् ॥ चन्द्रालोक एवं कुवलयानन्द एवं साहित्य दर्पण में काव्य प्रकाश का ही अनुसरण किया गया है। रत्नपालचरित में अनेक स्थलों पर दृष्टान्त का सुन्दर विन्यास किया गया है । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है : परसदननिविष्टः को लघुत्वं न याति । भवति विकलकान्तिः कौमुदीशो दिनेऽसौ ॥ अर्थात् दूसरे के घर में प्रवेश करके कौन व्यक्ति लघुता को प्राप्त नहीं होता है । चांद दिन में सूर्य के घर में प्रवेश कर कान्ति विहीन हो जाता है। यहां पर परगृह प्रवेश करने वाले व्यक्ति एवं चंद्रमा, परगृह और दिन में प्रतिबिम्ब भाव है 'पराश्रय निषिद्ध है' इस तथ्य का प्रतिपादन उद्विन्यस्त दृष्टान्त के द्वारा किया गया है। ___विरक्त-व्यक्ति अनिश्चित (अनन्त) पथ पर गमन करते हैं' इस तथ्य को प्रतिपादित करने के लिए प्रकृति जगत् से दृष्टान्त का संग्रहण किया गया है-- चकित विस्मित चित्त इलापति स्तत इयाय पथाऽव्यवसायिना । विरत चेतस० एष शुभः क्रमो न पवनो नियतं व्रजति क्वचित् ॥ राजा रात्री की बातें सुनकर चकित हो गया। वह एक अनिश्चित पथ से आगे चल पड़ा । विरक्त व्यक्तियों का यही शुभक्रम होता है। वायु कहीं भी निश्चित क्रम से नहीं चलता। यहां पर राजा और वायु में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है। ऊपर विवेचित अलंकारों के अतिरिक्त उदात्त, परिकर, विनोक्ति, पर्याय, श्लेष, विशेषोक्ति व्याजोक्ति' कारणमाला आदि अलंकारों का भी प्रयोग हुआ है। बंर २१, अंक १ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ सूची : १. विश्व कोष २. काव्यालंकार सूत्र वृत्ति १.१.२ ३. काव्यमीमांसा ४. काव्यादर्श २.१ ५. ध्वन्यालोक २.६ ६. काव्य प्रकाश ८.६७ ७. साहित्य दर्पण १०.१ ८. रसगंगाधर... ९. काव्य प्रकाश-सूत्र १ की वृत्ति । १०. काव्य प्रकाश ८.६६, ११. काव्यालंकार सूत्र वृत्ति ३.१.२ १२. ध्वन्यालोक-२.१६ की वृत्ति १३. काव्यालंकार सूत्रवृत्ति ३.१.२ १४. काव्य प्रकाश ८ १५. ध्वन्यालोक २.१७-१९ १६. काव्यालंकार १.१३ १७. पल्लव की भूमिका पृ० ३२ १८. रीतिकालीन अलंकार-साहित्य का शास्त्रीय विवेचन, पृ० ४७२ १९. काव्यालंकार २.७१-७३ २०. काव्य प्रकाश १०.१०९ २१. रत्नपालचरित १.१ २२. तत्रैव १.२९ २३. , २.३ २४. रत्नपालचरित २.२३ २५. तत्रैव २.३० २६. रत्नपाल चरित २.४६ २७. तत्रैव ३.१० २८. काव्य प्रकाश १०.८७ २९. काव्यालंकार सूत्र वृत्ति पृ० १८६ ३०. चित्रमीमांसा पृ० ६ ३१. तत्रैव पृ० ६ ३२. काव्यादर्श २.१४ ३३. रत्नपालचरितः १.१९ ३४. तत्रैव २.१८ तुलसी प्रज्ञा Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. रत्नपालचरित २.२० ३६. तत्रव २.२५ ३७. काव्यप्रकाश पर आशाधर कृत बाल वोधिनी टीका पृ० ५९३ ३८. काव्यादर्श २.३६ ३९. काव्यप्रकाशः १०.९३ ४०. तत्रैव १०.९३ पर वृत्ति ४१. रत्नपाल चरित १.२२ ४२. तत्रैव १.२३ ४३. तत्रैव १.२८ ४४. रत्नपाल चरित १.३० ४५. तत्रव २.५ ४६. , २.८ ४७. ,, ३.१४ ४८. ,, ४.२४ ४९. काव्यादर्श २.२.२१ ५०. तत्रैव २.८.३३ ५१. ,, १०.९२ ५२. रत्नपालचरित, ३.२० ५३. तत्रव ३.२८ ५४. –प्रदीप पृ० ५०२ ५५. काव्यालंकार २.७५ ५६. काव्यप्रकाश १०.१०५ ५७. रत्नपालचरित १.३ ५८. तत्रव २.२ ५९. , २.४ ६०. ,, २.३९ ६१. , ३.१६ ६२. काव्य प्रकाश १०.११४ ६३. अलंकार सर्वस्व पृ० १८१ ६४. रत्नपालचरित १.७ ६५. तत्रैव १.९ ६६. , २.३ ६७. अलंकार सर्वस्व पृ० १९६ बंर २१, अंक १ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८. कुवलयानंद, १२० ६९. रत्नपालचरित १.२८ ७०. तत्रैव २.२९ ७१. , ३.१८ ७२. काव्य प्रकाश १०.१०२ ७३. चन्द्रालोक ५.५६, कुवलयानन्द ५२, साहित्य दर्पण १०.५१ ७४. रत्नपालचरित २.२२ ७५. तत्रैव ३.१० - व्याख्याता, प्राकृत भाषा एवं साहित्य विभाग जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं तुलसी प्रज्ञा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जयोदय महाकाव्य' में प्रतिबिम्बित अद्यतन इतिहास परमेश्वर सोलंको ___ भारतीय स्वातन्त्र्य आन्दोलन की उत्कर्ष वेला में लिखे जयोदय महाकाव्य की संपूर्ति पर महाकवि ने अपना परिचय देते हुए सात कामनाएं की हैं जयतात् सुनिबन्धोऽयं पुष्यन् सन्निगलं चिरम् । राष्ट्र प्रवर्तनामिज्यां तन्वन्निधिमुद् धुरम् ॥ गण सेवी तृपो जात राष्ट्र स्नेहो वृषेषणाम् । वहन्निर्णयधीशाली ग्राम्यदोषातिगः क्षमः ॥ स्थिरत्वं मनुजाश्वेतः श्रीमन्तोऽवन्तु सूक्तिमत् । चम स्कुर्याज्जगन्नेतुर्भवनेषु वृषो निजः ॥ नित्यमभ्येयं संसर्ग महतां शुभकर्मसु । तता धी: स्याच्च चित्तश्री याच्छीश्रुत तत्परा ॥ मनागपि न संचारः कृच्छषु मम धीमतः । प्रसादादहतां शम्बधोरिणी स्यादिति स्वयम् ।। कि सत्पुरूषों के मनोरथ पुष्ट करता हुआ यह सुनिबन्ध चिरकाल तक जीवन्त बना रहे; देश निर्बाध रूप से अत्यधिक प्रतिष्ठा पावे; शासकगण देश से स्नेह करने वाले, धार्मिक, बुद्धिमान, ग्राम्य दोष रहित सामर्थ्यवान हों; श्रीमन्त लोग सूक्ति सहित स्थिरता की रक्षा करें; लोक नेता अपने उज्ज्वल चरित्र से संसार में सुशोभित हों; मैं सत्संग से निरन्तर आत्मोन्नति करता रहूं और अरहन्त भगवान् के प्रसाद से शम्बधोरिणी कल्याण-परम्परा सतत बनी रहे। इन सात कामनाओं के साथ इन श्लोकों (२८.१००-१०४) में कवि-परिचय की निम्न पंक्ति बनती है- "जयपुरराज्यान्तर्गतराणावलीग्रामस्थित श्रीमत् चतुर्भुज निगमसुत श्रीभूरामरकृतप्रबन्धोऽयम् ।"-कि जयपुर राज्य के राणोली ग्राम वासी चतुर्भुज भूरामर ने यह किया है। विक्रमी संवत् १९८३ (लोक धराङ्कात्मक संगणिते विक्रमोक्त संवत्सरे) में लिखित यह महाकाव्य सर्वप्रथम संवत् २००७ में मूल रूप प्रकाशित हुआ । तदनन्तर स्वोपज्ञ टीका (सन् १९६५ में) लिखी जाने के बाद क्रमश: पूर्वाश सन १९७८ और उत्तरांश सन् १९८९ में छप कर अभी पिछले पर्युषण पर्व (दिनांक ९.९.१९९४) पर दो भागों में एक साथ मुद्रित हुआ है। इस प्रकार विक्रम संवत्सर की बीसवीं सदी के अन्त में लिखा और ईसवी खण्ड २१, अंक १ ९७ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । संवत्सर की बीसवीं सदी के अन्त में छपा यह महाकाव्य संस्कृत जगत् में बहुत कम चर्चित हुआ है। जयोदय काव्य के चर्चित न होने का एक कारण उसका जैन पौराणिक कथानक भी है जिससे संबंधित साहित्य- आचार्य जिनसेन और गुणभद्र के आदि पुराण, महाकवि पुष्पदन्त के महापुराण, कवि हस्तिमल्ल के विक्रान्त कौरव नाटक, वादिचन्द भट्टारक के सुलोचना चरित तथा ब्रह्मचारी कामराज और ब्रह्मचारी प्रभुराज के जयकुमार चरितों के अलावा पुण्यास्रव कथाकोश में पूर्व से ही निबद्ध है। फिर भी जब यह महाकाव्य मूलरूप में छपा तो काशी और जयपुर आदि में जयोदय के महाकवि को असाधारण कोटि का कवि माना गया और पाली-मारवाड़ में जन्में महाकवि माघ की तरह राणोली-सीकर (दशवीं सदी का ग्राम राण पल्लिका) में जन्में महाकवि भूरामल को प्रचारित-प्रसारित करने की अपेक्षा बनीं। इसलिये सर्वप्रथम काव्य के हार्द को समझने के लिए स्वयं कवि से स्वोपज्ञ टीका लिखने का आग्रह किया गया और टीका लिखे जाने से पूर्व ही कुमायूं विश्व विद्यालय में महाकवि भूरामल की काव्य कृतियों पर एक पीएच० डी० थीसिस स्वीकृत हो गया जो ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है । उसके बाद गोरखपुर विश्वविद्यालय से जयोदय महाकाव्य पर भी पीएच० डी० ऐवार्ड हो गई। वस्तुतः जयोदय महाकाव्य में अभिव्यजंक भाषा, उक्ति वैचित्र्य, विदग्ध शैली, अलंकार, प्रतीक, बिम्ब, लोकोक्ति, सूक्ति और वर्ण-विन्यास जिसमें प्रायः सभी भेदविभेद जैसे रूढ़ि वैचित्र्य, पर्याय वक्रता, विशेषण वक्रता, संवृत्ति वक्ता, वृत्ति वैचित्य, लिंग वैचित्य, क्रिया वैचित्य, कारक वक्रता, संख्या वक्रता, पुरूष वकता, उपसर्ग वक्रता, निपात वक्रता, उपचार वक्रता आदि के प्रयोग देखे जा सकते हैं। कवि ने मानब के साथ तियंच, जड़ के साथ चेतन, चेतन के साथ जड़, अमूर्त के साथ मूर्त को जोड़ दिया है । इसी प्रकार अलंकार विन्यास में एक चक्रबन्ध में चित्रालंकार को पिरोया है जिसके छह आरों में प्रथम तथा छठे अक्षर को जोड़ने से पूरे सर्ग का वर्ण्य विषय बन जाता है । काव्य में २८ सर्ग और ३१०० श्लोक हैं। प्रत्येक श्लोक में अनुप्रास की छटा देखने को मिलती है। अन्यानुप्रास तो मानों कवि के लिये काव्य क्रीडा है । कहीं कहीं तो एक साथ अनेकों मधुर ध्वनियां गूंजने लगती हैं-अनुभवन्ति भवन्ति भवान्तकाः, नाथवंशिन इवेन्दु वंशिनः, ये कुतोऽपि परपक्षशंसिनः। अन्यानुप्रास का एक नमूना देखिये मुहुर्नु बद्धाञ्जलिरेष दासः सदा सखि ! प्रार्थयते सदाशः । कुतः पुनः पूर्णपयोधरा वा न वर्तते सत्करकस्वभावा ।। यह दास हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहा है किन्तु पूर्णपयोधरा करक स्वभाव के कारण सुनती ही नहीं है । अथवा यह दास अंजुली बांधे पानी पिलाने की प्रार्थना कर रहा है किन्तु करक स्वभाव के कारण पयोधरा पानी नहीं पिला रही ! महाकवि, स्वयं के शब्दों में नाना नव्य निवेदन, सुधाबन्धूज्ज्वल, अतिनव्य, अतिललित, नव्यापद्धति का यह मञ्जतम काव्य है। भूमिका लेखक वागीश शास्त्री के शब्दों में ९८ तुलसी प्रज्ञा Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " महाकवि ने इस काव्य में वर्णित अनेक घटनाओं को अपने जीवनानुभवों से संवारा है । जयकुमार के पूर्वार्द्ध एवं उत्तरार्द्ध जीवन से कवि का सुतरां साम्य दिखता है । बालब्रह्मचारी कवि भूरामलजी जीवन की सन्ध्या वेला में वीतराग होकर मुनि बन गये और ज्ञान सागर अन्वर्थ नाम से विख्यात हुए । उन्होंने इस काव्य के उपान्त्य प्रश्नगर्भोत्तर पद्य द्वारा अपना हृद्य प्रकाशित कर दिया है जिसमें श्रद्धा, व्रत और विद्या रत्नत्रय से युक्त मन की आकांक्षा की गई है श्रवणीयास्तु का शुद्धा ब्रह्मविद्भिः किमर्जितम् । विद्वद्भिः का सदावन्द्या मण्डितं तैः किमस्तु नः ॥ " इसलिये कवि ने इसे धर्म पुरुषार्थ मानकर लिखा है क्योंकि अर्थ और काम लौकिक सुख के लिए है जिन्हें महाकवि ने त्याग दिया था और जन्मान्तरीय सुख, मोक्ष में है जबकि कौए की कनीनिका की तरह धर्म ही इस लोक-परलोक दोनों में साथ देता है आत्रिकस्थितिमती रमारती मुक्तिरूत्तर सुखात्मिका धृत्तिः । काकचक्षुरिव याति तद्वयं पौरूषं भवति तच्चचतुष्टयम् ॥ इसके व्यतिरिक्त पूर्वतन और पश्चतन संस्कृतियों के संघर्ष में भारतीय स्वातन्त्र्य को महाकवि अरूणोदय के मिस बखान कर रहा है धिग्वारूणीमनुभवन्बिनिपातमेति योsस्मत्सकाश उदयं विधुराप चेति । भास घृणापरकयेन्द्र दिशाशुदन्त वासः परावृतममुष्य समस्तु सन्तः ॥ कि सत्पुरुषो ! पूर्व दिशा में यह जो लालिमा फैल रही है वह इसलिये है कि पूर्व ( भारत ) सोच रहा है कि चन्द्रमा (पश्चिम) जो हमारे सन्निधान से ही उदय ( समृद्ध ) हुआ है वह वारुणी मदिरा पीकर अध: पतन को प्राप्त हो रहा है । अर्थात् पाश्चात्य लोक जा रहे हैं तो उन्हें धिक्कारती पूर्व दिशा लालिमा को प्राप्त हो रही है । कवि की दूसरी ऐतिहासिक कल्पना देखिएश्रीभारतोक्तविभवोधृतराष्ट्र एष वीरं जनाय खलु कौरवमीक्षते सः । कृष्णोऽलिरत्र कलिकालसदुत्सवाय विद्मोऽथ पद्ममपि सौरभ विस्मयाय ॥ कि सूर्य की आभा समस्त राष्ट्र में फैल गई है । वृक्षों पर बैठे पक्षी धरती पर आने को कलरव कर रहे हैं अथवा महाभारत में वर्णित धृतराष्ट्र केवल अपने पुत्र कौरवों को देख रहा है अर्थात् योग्य व्यक्तियों की उपेक्षा हो रही है किन्तु श्रीकृष्ण पाण्डवों को विजयी बनाकर उत्सव कर रहा है अथवा काला भ्रमर कलिकाओं पर खण्ड २१, अंक १ ९९ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोभायमान हो रहा है। निम्न श्लोक में स्पष्ट ही कवि ने गौरांग-परिवारों का निष्कासन बता दिया हैसत्कीतिरञ्चति किलाभ्युदयं सुभासा स्थानं विनारि-मृदुवल्लभराट् तथा सः । याति प्रसन्नमुखतां खलु पद्मराजो निर्याति साम्प्रतमितः सितरूक् समाजः ॥ कि सम्प्रति सुभाषबोस की उज्ज्वल कीर्ति अभ्युदय को प्राप्त हो रही है। अजातशत्रु राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रपति बन रहे हैं और देश स्वतन्त्र होने से पद्मराज प्रसन्न है क्योंकि सितरूच गौरांग समाज यहां से जा रहा है। अपरपक्ष में प्रभात वेला है, सूर्य दीप्ति अभ्युदय हो रही है, कमल खिल रहे हैं और चन्द्रमा और नक्षत्र समूह तिरोहित हो रहे हैं। ___अगले तीन श्लोकों में महात्मा गांधी, नेहरू परिवार, सुभाषचन्द्र बोस, वल्लभ भाई पटेल, राजगोपालाचारी, सरोजनी नायडू, जिन्ना आदि की श्लेषाभिव्यक्ति है और गणतन्त्र की सफलता के लिये संसद और विधान सभा सुविचारित ढंग से काम करे-ऐसी कामना है-- मञ्जुस्वराज्य परिणाम समर्थिका ते संभावितक्रमहिता लसतु प्रभाते । सूत्रप्रचालनतयोचित दण्डनीतिः __ सम्यग्महोदधिषणा सुघटप्रणीतिः ।। यद्वा सुगां धियमिता विनतिस्तु राज ___ गोपाल उत्सव धरस्तब धेनुरागात् । हृष्टा सरोजनि अथो विषमेषु जिन्ना नुष्ठानमेति परमात्मविवेक भागात् ॥ गान्धीरुषः प्रहर एत्यमृतक्रमाय सत्सूत नेहरूचयो बृहदुत्सवाय । राजेन्द्र राष्ट्र परिरक्षणकृत्तवाय मत्राभ्युदेतु सहजेन हि सम्प्रदायः॥ अर्थात् राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद अभ्युदय को प्राप्त हो रहे हैं। नेहरूपरिवार गांधीजी के रोष से विनम्र होकर सुगांधिय हो रहा है। गौओं के प्रति प्रेमभावना से राज गोपालाचारी और सरोजनी नायडू प्रसन्न हैं एक जिन्ना विषम पारस्परिक विरोध से हिन्दुस्तान-पाकिस्तान विभाजन का अनुष्ठान कर रहे हैं किन्तु हे महोद ! प्रताप देनेवाले राजन् ! आपकी बुद्धि मनोहर गणतन्त्र का समर्थन करने वाली हो । संसद् और विधान सभाएं अच्छी तरह विचारित कार्य प्रणाली से (सम्यक् भावितेन समितिषु चिन्तितेन क्रमेण कार्येण अहिता महिता) काम करें--यही तुलसी प्रज्ञा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामना है । इन श्लोकों को श्लेष के कारण राजपक्ष प्रभातपक्ष और राष्ट्रपक्ष तीनों तरह से व्याख्यायित किया जा सकता है । भूमिका लेखक वागीश शास्त्री ने तो उपर्युक्त चार पद्यों को शाकुन्तल के श्लोक चतुष्टय की तरह चिर स्मरणीय बताया है । वास्तव में यह महाकाव्य प्राचीनता के साथ नवीनता का असाधारण समन्वय प्रस्तुत करता है । महाकवि ने परम्परागत पौराणिक कथानक में परिवर्तन किए हैं । कथानक में चक्रवर्ती राजा के अधीन दो राजाओं का संबंध होना मुख्य विषय है, उसे बदलना संभव नहीं था फिर भी कवि मे अनेकों परिष्कार किए हैं और सुलोचना स्वयंवर का अपर नाम 'जयोदय' सार्थक बनाने को मूल कथानक से विलग राष्ट्रोदय को विज्ञप्त करने के लिए १०४ श्लोकों में प्रभात वर्णन किया है । सम्पूर्ण जयोदय काव्य कविकल्पनाओं का अनुपम भण्डार है किन्तु यह अट्ठारहवां सर्ग तो सम्पूर्ण रूप में समलंकृत है । खण्ड २१, अंक १ -सम्पादक तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं १०१ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋतं च सत्यं च [D] डॉ० सोहनलाल पाटनी दृश्य एवं अदृश्य संसार में एक स्थायी व्यवस्था है। भले ही संसरणशील संसार निरन्तर गतिशील है परन्तु इसके संसरण में एक निश्चयात्मक व्यवस्था है। व्यवस्थात्मक गतिशीलता के कारण संसार में नित्य नवीनता दिखाई देती है और यह नवीनता ही उसमें रमणीय भाव की सृष्टि करती है । संसार की इस गतिशील रमणीय व्यवस्था को वैदिक ऋषि ने ऋत की संज्ञा दी। ऋषि ने इस बात को स्पष्ट करने के लिए कहा : __ "मयूरान् कः चित्रयेत् कपोतान् कः कूपयेत्"। मोरों को कौन चित्रित करता है एवं कबूतरों को कलगान करने के लिए कौन प्रेरित करता है। प्रश्नकर्ता ऋषि ने ही इसका तार्किक उत्तर दिया कि "ऋतं च सत्यं च" अर्थात् सृष्टि की दृश्यमान विविधता की व्यवस्था के मूल में ऋत की विद्यमानता है एवं यह ऋत समस्त व्यवस्थाओं के मूल में सत्यरूप में प्रतिष्ठित है। इस व्यवस्था के कारण ही सृष्टि में गत्यात्मकता दिखाई देती है एवं सत्य के कारण ही गत्यात्मकता में भी उसका ध्रौव्यरूप विद्यमान रहता है। सष्टि में व्यवस्था की जो सतत प्रक्रिया चल रही है उसके मल में कोई शक्ति अवश्य है ऐसा विज्ञान भी मानता है। नास्तिक उसे केवल व्यवस्था कह कर ही चुप हो जाता है किन्तु ईश्वरवादी इसे ईश्वरीय विधान की संज्ञा देता है। इसी ईश्वरीय बिधान अथवा व्यवस्था को वेद ऋत कहता है जो बाद में सत्य स्वरूप में पर्यवसित हो गया। (१) ऋत के ऋ वर्ण को व्याकरण की दृष्टि से देखें तो यह भ्वादिगण की परस्मैपदी धातु है ऋच्छति-प्रेरयति इसके साथ क्त प्रत्यय लगा है जो स्वयं घटित क्रिया को स्थिर करता है जैसे दृष्टः पठितः गतः ॥ तो ऋत का अर्थ हुआ जाने की प्रेरणा देने की क्रिया को स्थायित्व देना । (२) ऋत शब्द की ऋ धातु जुहोत्यादिगण की परस्मैपदी धातु भी है जिसका रूप बनता है इयर्ति --- ऋत जिसके अर्थ हैं जाना, हिलना डुलना, चलाय मान करना, उत्तेजित करना। (३) ऋ धातु का एक तीसरा रूप भी है ऋणोति जो स्वादिगण की परस्मैपदी धातु है जिसके अर्थ हैं स्थिर करना, जमाना, स्थापित करना, निर्देश देना, फेरना । ऋ धातु के तीनों रूपों से बना ऋत मूल रूप से व्यवस्था को स्थायित्व देना ही खण्ड २१, अंक १ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है और यही व्यवस्था का स्थायित्व कहलाया ऋत जो गत-आगत का सत्यात्मक ____ इस प्रकार ऋत का शास्त्र सम्मत अर्थ हुआ सृष्टि का धारक तत्त्व, ईश्वरीय नियम ब्रह्म एवं प्रेरक-उत्तेजक तत्त्व । इसके इन अर्थों में भारत के सभी दर्शनों को अपना शास्त्र सम्मत अर्थ मिल जाता है। सांख्य और योग इसे सष्टि का धारक तत्व कहेंगे । न्याय इसे ईश्वरीय नियम कहेगा तो वेदान्त का यह ब्रह्म है जो सत्यम् है । जैन वैशेषिक एवं मीमांसा इसे प्रेरक या कर्म फलदाता कहेंगे। इस ऋत से बने शब्दों पर यदि हम विचार करें तो हमें इसका सत्यार्थ समझ में आ जायेगा। ऋ का अर्थ है देवताओं की माता अदिति एवं क्त (त) का अर्थ है यक्त। यास्क मषि ने अपने निरुक्त में देवता शब्द की अर्थ गरिमा इस प्रकार प्रकट की है :-"देवो दानाद दीपनाद् वा" जो दे एवं प्रकाशित करे वह देव । देवताओं की माता का अर्थ हुआ प्रकाशक तत्त्व का मूल आद्य स्वरूप । यही प्रकाशक तत्व चराचर सृष्टि के मूल में विद्यमान है जिसके कारण इस सृष्टि-प्रकृति का स्वरूप हर मौसम में नवनीत रूप में प्रकटित-प्रकाशित देखते हैं। इस ऋत के कारण संसार गत्यात्मक है एवं संसरणशील है। इस प्रकाशक तत्त्व से उन्मेषित होने वाला परमात्मा या परम तत्त्व ऋतम्भर है। 'ऋतम्भरा' यह चराचर सृष्टि है जो परम तत्त्व के प्रकाशक-गत्यात्मक-सत्यात्मक स्वरूप को धारण करती है । 'ऋतु' का अर्थ है निश्चित व्यवस्था और 'ऋत्व' का अर्थ है प्रकाशक, पुष्टवीर्य परमात्मा । 'ऋद्धि' शब्द परमात्मा की शक्ति की ओर संकेत करता है । 'ऋत धामा' शब्द का अर्थ है जगत की व्यवस्था करने वाले विष्णु जो विश्व में व्याप्त है। शिव 'ऋतध्वज' कहे जाते हैं एवं ब्रह्मा को 'ऋतवादी' या 'ऋतव्रत' कहा जाता है। वह 'ऋत्विक' भी है । इस प्रकार यह ऋत त्रिदेवात्मक त्रिगुणात्मक है। इस ऋ स्वर के उच्चारण भी हस्व, दीर्घ एवं प्लुत तीन प्रकार के हैं। स्वर रूप में यह स्वयं प्रकाशित है..."स्वयं राजन्ते इति स्वरा:"। हृस्व रूप संसार की सूक्ष्मावस्था दीर्घ स्थूलावस्था एवं प्लुत संसार की रूपातीतावस्था का संकेत करता है । अब सत्य की बात करें। सत् पद सत्य का आधार है। मूलत: सत् अस्तित्व का सूचक है । इससे 'सत्य' स्वरूप को सिद्ध करने के लिए इसमें 'यत' प्रत्यय जोड़ना पड़ता है । यह 'यत्' सत्य की भव्यता (अस्तित्व-व्यापकत्व) एवं कार्यता का द्योतक है। वैदिक दर्शन में प्रायः सत्य का प्रयोग कार्य सत्य के अर्थ में होता है और 'ऋत' के शाश्वत सत्य से उसको पृथक् बताया गया है । 'सत्' का प्रयोग श्रेय के अर्थ में भी होता है । इस प्रकार 'सत्' मंगलमय भावव्यवस्था है - "सद्भावे साधुभावे सदित्येतत्प्रभुः" अर्थात् सद्भाव (ध्रौव्यात्मक अस्तित्व एवं व्यापकत्व) एवं साधुभाव (मंगलायतन-कल्याण स्वरूप) के कारण यह 'सत्' प्रभु है । 'सत्' का अर्थ शुभ में भी माना जाता है जैसे सद्गति । अच्छे अर्थ में जैसे सज्जन, सदाचार । यत् के योग से सत्य भूत (युक्तता) एवं वर्तमान (अस्तित्व) का परम कार्य होने के कारण भावी भी है अर्थात् इस सत्य की त्रिकाल-व्यापकता है इसीलिए परमात्मा को 'परम सत्य' कहा जाता है। अणु में परमाणु की सत्ता से लेकर ईश्वरीय सत्ता तक में सत् की विद्यमानता है तुलसी प्रज्ञा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए यह 'अणु' भी है एवं 'विभु' भी। यह 'सत्' ध्रौव्यात्मक होने के कारण परम सत्य है एवं कल्याणात्मक होने के कारण शिवस्वरूप है, अहम् है। हेमचन्द्राचार्य ने 'ॐ अर्हम्' मंत्र के रूप में सृष्टि के मूल तत्त्व 'ऋत-सत्य' की व्यापकता एवं शाश्वतता की अभ्यर्थना की है। ऋग्वेद के ४-२१-३ ऋचा में कहा गया है कि 'ऋत' सबका मूल कारण है । छान्दोग्य उपनिषद् में भी कहा गया है कि सृष्टि के आरम्भ में 'सत्' की ही एकमात्र सत्ता थी। __ मरुत् वायु का देवता है एवं उसकी उत्पत्ति ऋत् से हुई है। यह मरुत् प्राण, अपान, ध्यान, उदान एवं समान रूप से हमारे शरीर में निवास कर उसे अस्तित्व एवं गति प्रदान करता है । प्राण रूप में यह सब जीवों में व्याप्त है। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के २३ वें सूत्र में ऋत से सारे चराचर को आवृत कहा गया है । ऋत वृद्धि का कारण है एवं प्रकाश का पालक तथा जनक है : "ऋतेन यावृत्तावृधावतस्य ज्योतिषस्पती" आगे कहा गया है "ता मित्रावरुणा हुवे" उन वृद्धियों एवं प्रकाश के कर्ता धर्ता मित्र (सूर्य) एवं वरुण का आह्वान करता हूं। इस प्रकार ऋत अग्नि एवं जल तत्व है जिससे यह सारा संसार व्याप्त है। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋत व्यवस्था वाचक शब्द है तो सत्य उस व्यवस्था की सत्य सत्ता का निरूपण है । ये दोनों शब्द अलग अलग है एवं किसी भी प्रकार से पर्यायवाची नहीं हैं । सृष्टि के मूल में जो अविनाशी सत्ता है वह ऋत के कारण है ऋग्वेद के अनुसार ऋत ही सृष्टि की उत्पत्ति का कारण है। वैदिक साहित्य में ऋत की विशिष्ट सत्ता दिखाई देती है । वेदकाल के पश्चात् 'ऋत' का प्रयोग भौतिक सत्ता के लिए होने लगा और बाद में तो ऋत में आचार सम्बन्धी नियमों का भी समावेश हो गया। बाद में देवताओं से प्रार्थना की जाती थी कि वे प्राणी मात्र को 'ऋत' के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दें । पारसियों के धार्मिक ग्रंथ अवेस्ता में प्रयुक्त अंश शब्द वैदिक ऋत के समान ही हैं। उनका यह अंश प्राचीन शब्द 'अर्त' का ही रूप है जो १४०० ई० पू० में प्राप्त "तेलअल-अमना" के शिलालेख में पाया गया है। विश्व में जो सुव्यवस्था एवं सौन्दर्य के दर्शन होते हैं वे मात्र 'ऋत' के कारण हैं । ऋत गत्यात्मक है जिससे संसार की अशांति, लड़ाइयां क्रमानुसार अपने आप समाप्त हो जाती हैं। विषमता, क्रूरता, नैराश्य सत् नहीं है वे ऋत की गत्यात्मकता के कारण कुछ की वस्तु बन जायेंगे। ऋत मानवी सृष्टि में आशावादिता का सन्देश देता है एवं मनुष्यों को आपत्तियों को झेलने की क्षमता प्रदान करता है और यही सुखदुःख जीवन का शाश्वत सत्य है । वैदिक मंत्र 'ऋतं च सत्यं च' संसार की सुव्यवस्था के लिए सत्य सन्देश है। यह मंत्र नहीं मानवी जिजीविषा का जीवन्त दस्तावेज है। -८० शांतिनगर, सिरोही खण्ड २१, अंक १ १०५ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “प्राकृत के बिना संस्कृत 'पंगु ' है ।" । श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ के जैनदर्शन विभाग के तत्त्वावधान में दिनांक २३ एवं २४ मार्च को आयोजित द्विदिवसीय प्रथम आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति व्याख्यानमाला के अवसर पर बोलते हुए आचार्य श्री विद्यानन्दजी ने अपने मंगल आशीवर्चन में कहा कि "आचार्य कुन्दकुन्द की स्मृति में स्थापित यह शौरसेनी प्राकृत विषयक व्याख्यानमाला इस देश की मूलभाषा शौरसेनी प्राकृत का स्वरूप और महत्त्व रेखांकित करेगी । प्राकृत और संस्कृत- दोनों इस देश की प्राचीन भाषायें हैं। ऋषियों, मुनियों, साहित्यकारों एवं वैयाकरणों ने दोनों को भरपूर सम्मान दिया है। भले ही आज संस्कृत का बोलबाला हो, किन्तु यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी होगी कि प्राकृत के बिना संस्कृत 'पंग' है क्योंकि वेदों में प्राकृत- संस्कृत दोनों का प्रयोग है, यदि प्राकृत के शब्दों को वेदों से निकाल दिया जाये, जायेंगे । इसी तरह भास एवं कालिदास आदि के नाटकों से प्राकृत के दिये जायें, तो उनमें कुछ नहीं बचेगा, उनका स्वरूप ही नष्ट हो जायेगा । हमारे देश के प्राचीन ऋषियों, मुनियों एवं मनीषियों की दोनों भाषाओं के प्रति समान दृष्टि रही, किन्तु आज दृष्टि का संतुलन परम्परा के अनुरूप नहीं है । प्राकृत के स्वरूप एवं महत्त्व को हमें नये सिरे से समझना व समझाना होगा । उन्होंने संस्कृत विद्यापीठ के मनीषियों से निवेदन किया कि "वेदों-उपनिषदों को तथा भास व कालिदास आदि के साहित्य को सही ढंग से पूर्णतया समझने व समझाने के लिए प्राकृत का अध्ययन होना चाहिए। मैं चाहता हूं कि आप इस विद्यापीठ में प्राकृत के ठोस विद्वान तैयार करें ।" तो वे अपूर्ण रह अंश अलग कर [4] महावीर शास्त्री आचार्य श्री कुन्दकुन्द की स्मृति में स्थापित इस व्याख्यानमाला के प्रथम दिन व्याख्यानमाला का उद्घाटन करते हुए विद्यापीठ के कुलाधिपति आचार्य वी० वेंकटाचल ने कहा कि "संस्कृत विद्यापीठ में प्राकृत विषयक व्याख्यानमाला का आयोजन एक सुखद अनुभूति है । मात्र विद्यापीठ में ही नहीं, अपितु देश के हर विश्वविद्यालय, महाविद्यालय एवं शिक्षण संस्थानों में प्राकृत के परिपूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए ।" विद्यापीठ के कुलपति प्रो० विद्यापीठ की विभिन्न प्रवृत्तियों का उल्लेख करते हुए बताया कि "शौरसेनी प्राकृत को लेकर स्थापित यह आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति व्याख्यानमाला एक स्वर्णिम अध्याय है, जिसे आचार्य श्री विद्यापीठ के इतिहास में जोड़ा है । उन्होंने वेदों, उपनिषदों एवं खण्ड २१, अंक १ १०७ अध्ययन की स्वतंत्र एवं वाचस्पति उपाध्याय ने Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य ग्रन्थों से उदाहरण देकर बताया कि संस्कृत और प्राकृत का अभेदान्वय सम्बन्ध है । उन्होंने आशा प्रकट की कि सम्भागी अध्यापकगण, अध्येतावृन्द एवं विद्वान् इस व्याख्यानमाला के माध्यम से शौरसेनी प्राकृत का महत्त्व समझ सकेंगे। प्रो० उपाध्याय ने विद्यापीठ में स्वतंत्र एवं परिपूर्ण प्राकृत विभाग की आवश्यकता अनुभव करते हुए इसकी क्रियान्विति हेतु सक्षम प्रयास करने का आश्वासन भी दिया। क्ष्याख्यानमाला के प्रथम सत्र के अध्यक्ष प्रख्यात भाषाशास्त्री एवं समालोचक तथा जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के भाषाविभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो० नामवरसिंह ने भाषावैज्ञानिक पृष्ठभूमि में प्राकृत के विशिष्ट महत्त्व को रेखांकित करते हुए बताया कि शौरसेनी प्राकृत भाषा से ही इस देश की अन्य क्षेत्रीय प्राकृतों, अपभ्रशों एवं आधुनिक बोलियों का विकास हुआ है। उन्होंने सावधान किया कि भाषायें किसी धर्म या जाति की नहीं होती है, वे हर किसी की सम्पत्ति होती हैं, अतः 'ब्राह्मणों को संस्कृत' या 'जैन शौरसेनी' जैसे प्रयोग बेहद संकीर्ण चिंतन है, तथा भाषिक मानदण्डों के कतई विरुद्ध हैं। दो दिन की इस व्याख्यानमाला के प्रमुख वक्ता डॉ. लक्ष्मीनारायण तिवारी निदेशक, भोगीलाल लेहरचन्द भारतीय विद्या संस्थान, नई दिल्ली ने अपने दो वैदुष्यपूर्ण सारगर्भित व्याख्यान प्रदान किये । 'जैनधर्म द्वारा लोकभाषा की प्रतिष्ठा' विषयक अपने प्रथम व्याख्यान में डॉ. तिवारी ने देश के भाषायी, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं भाषावैज्ञानिक परम्परा का विशद परिचय देते हुए 'लोकभाषा' का स्वरूप एवं महत्त्व रेखांकित किया तथा बताया कि जैनाचार्यों ने लोकभाषा को अपने साहित्य में अपनाकर उसे साहित्यिक प्रतिष्ठा प्रदान की है। इसके पोषण में उन्होंने अनेकों प्रमाण प्रस्तुत किये। 'विविध प्राकृतें एवं शौरसेनी प्राकृत' विषयक अपने द्वितीय व्याख्यान में डॉ. तिवारी ने स्पष्ट किया कि सभी प्राकृतों में शौरसेनी प्राकृत, जो कि बाद में दिगम्बर जैनों के आगमों की भाषा बनी और जिसका नाटककारों ने सर्वाधिक प्रयोग किया, जो नारायण श्री कृष्ण से भी पूर्व इस देश में प्रचलित थी । नारायण श्रीकृष्ण का जन्म ही उस शूरसेन प्रदेश में हुआ था, जहां की भाषा शौरसेनी प्राकृत थी। ____ व्याख्यानमाला के द्वितीय दिन दो विशिष्ट व्यक्तित्व पधारे। मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए भारतीय भाषाओं के विशिष्ट विद्वान् डॉ. मण्डनमिश्र ने व्याख्यानमाला की स्थापना के लिए आचार्यश्री का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि प्राकृत, अपम्रश एवं पालि के बिना संस्कृत की पूर्णता नहीं होगी। अतः हमें प्राकृत आदि सभी प्राचीन भाषाओं को न केवल पूर्ण सम्मान देना होगा, अपितु उनके अध्ययनअध्यापन का समुचित एवं व्यापक प्रबन्ध भी करना होगा। समारोह के विशिष्ट अतिथि श्री सुनील शास्त्री, पूर्व मंत्री उत्तरप्रदेश सरकार ने अपने पिताश्री पूर्वप्रधानमंत्री स्व० श्री लालबहादुर शास्त्री के भाषानुराग का स्मरण करते हुए संस्कृत विद्यापीठ की प्राकृत, अपभ्रंश आदि से समन्वित पूर्ण विश्वविद्यालय के रूप में स्पापित होने की कामना की। उन्होंने मुख्यवक्ता डॉ० लक्ष्मी नारायण तिवारी को रजतपात्र में रखकर मानसरोवर का जल भेंट किया एवं शाल, १०८ तुलसी प्रज्ञा Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीफल, मानदेय अर्पित कर उनका सम्मान किया। इस दिन के व्याख्यान सत्र की अध्यक्षता दिल्ली विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञान विभाग के अध्यक्ष प्रो. प्रेमसिंह ने की। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने शौरसेनी प्राकृत के साहित्य का देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद कर उसके व्यापक प्रचार-प्रसार की प्रेरणा दी। ____ ज्ञातव्य है कि नई दिल्ली स्थित श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ में जैनदर्शन विभाग के तत्त्वावधान में यह व्याख्यानमाला आचार्य श्री विद्यानंदजी की प्रेरणा से श्री कुन्दकुन्द भारती न्यास ने शुरू की है। एतदर्थ विद्यापीठ में एक लाख रूपयों का एक ध्र वफण्ड बनाया गया है, जिसके ब्याज से प्रतिवर्ष शौरसेनी प्राकृत के किसी एक विशिष्ट विद्वान् के दो व्याख्यान आयोजित कराये जायेंगे। आचार्य श्री विद्यानंदजी के सान्निध्य में सम्पन्न इस प्रथम व्याख्यानमाला में अनेकों विशिष्ट विद्वानों, विचारकों, विद्यापीठ के समस्त अध्यापकों व छात्रों की सक्रिय उपस्थित रही । सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह रही कि दोनों दिन तीन-तीन घंटों तक संपूर्ण सभाजन बिना किसी आकुलता के अनवरतरूप से ज्ञानलाभ लेते रहे। व्याख्यान माला के संयोजक व संचालक जैनदर्शन विभागाध्य डॉ० सुदीप जैन ने आचार्य श्री, अभ्यागत विद्वानों, अतिथियों एवं संभागियों का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि इस प्रथम प्रयास में सभी लोग शौरसेनी प्राकृत के नाम व महिमा से परिचित हुए हैं तथा इसके विषय में उनकी जिज्ञासा बढ़ी है । -श्री कुन्द कुन्द भारती १८-बी स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया नयी दिल्ली-११००६७ खण्ड २१, अंक १ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंगदेश में जैनधर्म का प्रारंभ (श्री प्रबोधचन्द्र वागची के लेख का अनुवाद) इस विषय पर प्रायः सभी लोग सहमत हैं कि जैन सम्प्रदाय का प्राचीन नाम है "निर्ग्रन्थ" । पालि भाषा में निर्ग्रन्थ शब्द का उल्लेख "निर्ग्रन्थ", "निगण्ठ” आदि रूपों में किया गया है। इसी कारण प्राचीन पालि-साहित्य में जैनधर्म में प्रतिष्ठापयिता महावीर को "निगन्थनाथपुत्त" या "निगन्ठनाटपुत्त" का नाम दिया गया है। "नाथ" शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के "ज्ञात्रिक" शब्द से हुई है। जिस क्षत्रियकुल में महावीर पैदा हुए थे, उसका नाम था ज्ञात्रिक। महावीर को निगन्थनाथपुत्त या निर्ग्रन्थज्ञात्रिकपुत्र आख्या देने का कारण यह था कि वे ज्ञात्रिक कुल में पैदा हुए थे तथा निम्रन्थ सम्प्रदायभुक्त थे । महावीर के पहले ही निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय की प्रतिष्ठापना हुई थी। __ अशोक की शिलालिपि में निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय का उल्लेख है-..."निगंथेसु पि मे कटे इमे (धंममहामाता) वियापटा होहंति ।" अशोक के धर्ममहामात्र लोग भी निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के सुख तथा सुविधाओं की ओर भी ध्यान देते थे। ओडिसा प्रांत के उदयगिरि के इलाके में कलिंगराज खारबेल का जो शिलालेख प्राप्त हुआ है, वह कदाचित ईसा पूर्व दूसरी शती का है। इस लिपि के प्रारंभ में अर्हत् तथा सिद्धों को प्रणाम बताया गया है । इस मंगलाचरण से यह अनुमान लगाया जाता है कि खारबेल थे जैन या निर्ग्रन्थ । यह अनुमान और भी निस्संदिग्ध इसलिये है कि लिपि के बीचवाले भाग में त्रिरत्न, अग्रजिन आदि शब्दों का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त ईसापूर्व पहली शती से लेकर ईसा की पहली शती तक मथुरा के आसपास जैन सम्प्रदाय की बहुत सी शिलालिपियां मिली हैं। इस लेखमाला में जैन सम्प्रदाय की तत्कालीन बहुत सी शाखाओं और कुलों का उल्लेख मिलता है और उस उल्लेख से स्पष्ट ज्ञात होता है कि बहुत दिनों से ही जैन सम्प्रदाय सुप्रतिष्ठित था और इसी प्रकार उसका प्रसार हुआ था। खारबेल के शिलालेख को छोड़कर प्राच्यदेश में जैनधर्म के प्रचार से संबंधित दूसरा कोई प्राचीन उल्लेख आज तक प्राप्त नहीं हुआ है। पर ऐसा अनुमान असंगत नहीं होगा कि ओड़िसा प्रांत में जैनधर्म वंगदेश से ही गया था। पहाड़पुर में हाल में आविष्कृत शिलालिपि पांचवीं ईसवी की है। इस शिलालिपि से पता चलता है कि पहाड़पुर का सबसे पहला प्रतिष्ठान था निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय का। वंगदेश में जैनों की दूसरी कोई प्राचीन शिलालिपि न मिलने पर भी प्राचीन जैन साहित्य में बहुत से खण्ड २१, अंक १ १११ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण हैं जिनसे ज्ञात होता है कि बहुत प्राचीन काल में ही जैन धर्म उस प्रांत में प्रतिष्ठित हो चुका था । आचारांग सूत्र जैन साहित्य का एक प्राचीन तथा प्रधान ग्रंथ है । प्राध्यापक कोबी ने भलीभांति सिद्ध कर दिया है कि इस ग्रंथ के बहुत से अंश ईसापूर्व तीसरी शती के पूर्व रचे गये थे । इस ग्रंथ से हमें मालूम होता है कि केवल ज्ञान लाभ करने के पहले महावीर ने कुछ दिनों तक बहुत से स्थानों का पर्यटन किया था । इस काल में आपने प्राच्य देश के सुब्बभूमि, लाढ़ और बज्जभूमि आदि स्थानों में भ्रमण किया था । उन प्रांतों के लोग बहुत ही अनुन्नत थे । उन लोगों ने महावीर पर ढेले फेंके थे, कुत्ते उकसा दिये थे और भांति-भांति से अत्याचार किया था। इसमें कोई संदेह नहीं कि लाढ़ ही प्राचीन राढ़ प्रांत है । बहुतों के मतानुसार सुब्बभूमि है सुम्ह प्रांत यह मालूम नहीं किया जा सकता कि बज्जभूमि कहां थी । इससे समझा जा सकता है कि महावीर के काल में बंगदेश का पश्चिम भाग था असभ्य; सो उस समय उस प्रदेश में धर्म के प्रसार की कोई संभावना नहीं थी । वस्तुतः जैन साहित्य में जिन प्राचीन गण, शाखा तथा कुल का उल्लेख मिलता है - उनमें से किसी के भी साथ इस प्रांत के किसी स्थानीय नाम का सम्बंध नहीं निकलता है । कल्पसूत्र है जैन साहित्य के चतुर्थ छेदसूत्र " आचारदशांग" का अष्टम दशांग । जैनों के मतानुसार कल्पसूत्र के रचयिता हैं भद्रबाहु । भद्रबाहु, चंद्रगुप्त मौर्य के समकालीन थे, क्योंकि चंद्रगुप्त उनके शिष्य बने थे, और उनका अनुसरण करते हुए दाक्षिणात्य में जाकर कठोर तपस्या करके आपने शरीर का त्याग किया था । कल्पसूत्र के तीन भाग हैं । पहला भाग है "जिन चरित्र - 1. इस अंश को महावीर का सम्पूर्ण जीवनचरित या महावीर चरित्र कहा जा सकता है । दूसरा भाग है थेरावली । इस अंश में जैन सम्प्रदाय के प्राचीन स्थविरों की जीवनी तथा उनके द्वारा प्रतिष्ठापित बहुत सारे गणों व शाखाओं का उल्लेख किया गया है । इन सब गणों, शाखाओं और गणधरों के नाम से मालूम होता है कि कल्पसूत्र का यह अंश ईसा की पहली शती के पूर्व रचित नहीं हो सकता । कल्पसूत्र के तीसरे अंश में “समाचारी" या जैन भिक्षुओं के आचारों की नियमावली का उल्लेख किया गया है । इस कल्पसूत्र के दूसरे अंश में बताया गया है कि भद्रबाहु के चार शिष्य थे । इन चार शिष्यों में से सर्वप्रथम थे गोदास । गोदास ने एक विशिष्ट धारा का प्रवर्तन किया था । इस धारा का नाम था " गोदासगण" । गोदासगण से चार शाखाओं का उद्भव हुआ । इन चार शाखाओं के नाम हैं ताम्रलिप्तिका "कोटिवर्षीया, पुन्ड्रवर्धनीया और दासीखर्वटिका | अगर दासीखर्वट किसी स्थान का नाम भी हो, तो यह ज्ञात नहीं होता है कि यह स्थान कहां था । जोकि पुण्ड्रवर्धन और कोटिवर्ष उत्तर वंग के दो प्रधान स्थान थे --- सो प्राचीन शिलालिपी से ही मालूम होता है । पुण्ड्रवर्धन का नाम ईसा पूर्व द्वितीय या प्रथम शती से ही मिलता है— पहले बौद्ध विनयपिटक में और दूसरे, महास्थानगढ़ में प्राप्त अशोकीय ब्राह्मी लिपि की अनुरूप लिपि में लिखित एक ११२ तुलसी प्रज्ञा Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिलालेख में । अनुमान है कि यह लिपि ईसा पूर्व दूसरी शती की है। इस लिपि में पुण्ड्रवर्धन, पुण्डनगर के नाम से उल्लिखित हुआ है। भरहूत स्तूप के घेरे के ऊपर जिन भिक्षओं का उल्लेख है, उनमें पुनढनीय (पुण्ड्रवर्धनीय) भिक्षुका नाम भी मिलता है। कोटिवर्ष का उल्लेख अपेक्षाकृत परवर्ती काल की शिलालिपि तथा ताम्रपट्ट में है। वाणपुर नामक नगर कोटि वर्ष में अवस्थित था। प्रायः सभी के मतानुसार वाणपुर है दिनाजपुर जिले में अवस्थित वर्तमान वाणगढ़। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कोटिवर्ष, पुण्डवर्धन के अंतर्गत एक स्थान था। ताम्रलिप्त तो सुपरिचित है ही। अतः कल्पसूत्र की इस थेरावली से मालूम होता है कि भद्रबाहु के शिष्यों ने जिन चार धाराओं तथा सम्प्रदायों की प्रतिष्ठापना की थी, उनमें दो थे उत्तरवंग में और दूसरा था निम्नवंग में, ताम्रलिप्त के आसपास । भद्रबाहु ईसा पूर्व चौथी शती में विद्यमान थे। अतः ऐसा अनुमान करना असंगत नहीं है कि ईसा पूर्व तीसरी शती में ही वंगदेश में जैनधर्म सुप्रतिष्ठापित हो चुका था। ___ इस अनुमान के पक्ष में एक और प्रमाण का उल्लेख किया जा सकता है। वह प्रमाण मिलता है दिव्यावदान से । दिव्यावदान, बौद्ध विनय ग्रंथ का एक अंश है। इस बात का प्रमाण है कि यह ग्रन्थ ईसा की पहली तथा दूसरी शती में पूरा-पूरा लिखा मया था। इस ग्रन्थ के एक अवदान में मौर्यवंश के राजा अशोक के भाई बीतशोक की कहानी है । बौद्धधर्म की दीक्षा लेने के उपरांत बीतशोक किसी समय प्रत्यंतजनपद में रह रहे थे। "तस्मिन च समये पुण्ड्रवर्धन नगरे निग्रन्थोपासकेन बुद्धप्रतिमा निर्ग्रन्थस्य पादयोनिपतिता चित्रापिता। उपासकेनाशेकस्य राज्ञो निवेदितम् । श्रुत्वा च राज्ञाभिहितम् शीघ्रमानीयताम् तस्योर्धम् योजनम् यक्षाः श्रृण्वन्ति अधो योजनम् नागा यावत् तम् तत्क्षणेन यक्षरुपनीयताम् । दृष्टवा च राज्ञा रुषितेनाभिहितम् । पुन्ड्रवर्धने सर्वे आजीविकाः (=निर्ग्रन्थाः) प्रधातयितव्याः यावदेकदिवसे अष्टादशसहस्राणि आजीविकानाम (=निर्ग्रन्थानाम्) प्रधातितानि ।" (इस कहानी के पौर्वापर्य से समझा जा सकता है कि अन्तिम दो वाक्यों में भूल से निर्ग्रन्थ के स्थान में आजीविक कहा गया है। इस कहानी के चीनी अनुवाद से भी यह भूल स्पष्ट रूप से पकड़ी जा सकती है।) पुण्ड्रवर्धन नगर में निर्ग्रन्थ उपासक ने एक ऐसा चित्र खींचा था जिसमें यह दिखाया गया है कि बुद्ध निर्ग्रन्थ की पद-वन्दना कर रहे हैं। यह समाचार अशोक को बताया गया । बहुत ही कुपित होकर अशोक ने निर्ग्रन्थों की हत्या करने के लिये यक्ष को नियोजित किया। पुण्ड्रवर्धन नगर के सभी निर्ग्रन्थों की हत्या की गई (और इसके साथ ही भूल से बीतशोफ की भी हत्या की गई, क्योंकि उस समय बिना कुछ जाने आप निर्ग्रन्थों के घर अवस्थान कर रहे थे) यह है अशोक के प्रारंभिक जीवन की घटना । उस समय वे निष्ठुर प्रकृतिवाले थे; इसी कारण उस समय उनका नाम था चंडाशोक । जब उनके शिलालेखों का प्रचार हुआ, उस समय शायद वे धर्म के कारण किसी का भी पीड़न नहीं करते थे, और उसी समय लिखा था-निगंथेसु पि मे कटे......"। खण्ड २१, अंक १ ११३. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस कहानी से भी साफ मालूम होता है कि अशोक के काल में अर्थात् ईसा पूर्व तीसरी शती में पुण्ड्रवर्धन नगर में निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय सुप्रतिष्ठित था । जो कि ईसा की सातवीं शती के मध्यभाग तक उत्तरी बंग में इस सम्प्रदाय का प्रभाव बहुत प्रबल था, इसका प्रमाण हिउयेन सांग के विवरण से ही मिलता है । उनके काल में भी पुण्ड्रवर्धन नगर में दूसरे धर्मावलम्बियों की अपेक्षा निर्ग्रन्थों की संख्या बहुत अधिक थी । ११४ - साहित्य परिषद् पत्रिका ( ४६ । १) बंगला सन् १३४६ से अनुदित तुलसी प्रज्ञा Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI PRAJNA Vol. XXI: No. One April-June, 1995 S. No. 93 English Section Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GANDHI'S APPROACH TO COMMUNALISM Devarat N. Pathak Religion has been with us for a long time and so is Politics. Today, as never before, we are the witness to a controversy regarding their relationship. Should religion influence politics? If so, in what way? or, alternatively, should they be completely separated? Much depends upon how we define religion and how we relate it to politics. Gandhi deliberately placed religion and politics together. He could not conceive of them to be separate or opposed to each other. His example and experiment deserve to be closely studied and understood. Gandhi's primary aim and ultimate desire was to attain spiritual bliss. His life was a voyage of self-discovery and a continuing quest for self-realization. All else was subservient to this overall goal. Life for him was a progressive unfolding of spirituality. "The mainspring of Gandhi's life lay not in politics but in religion".1 Recapitulating his life upto the year 1929 when his Autobiography was first published, he said, "What I want to achieve, what I have been pining and striving to achieve these thirty years-is self-realization, to see God face to face, to attain Moksha. I live and move and have my being in the pursuit of this goal. All that I do by way of speaking and writing, and all of ventures in the political field are directed to this end." Though deeply religious, Gandhi was no recluse running away into a self-declared seclusion. For him the human life in society was one, single, indivisible whole. Any attempt at compartmentalizing different spheres of life had little meaning for him. He wanted to live a full life, a life of partnership and participation. If spiritualism and religious fervour imparted strength and potency to him, they were to be fruitfully employed in the service of society. Till the advent of Gandhi, the sadhus and mendicants who had sought spiritual salvation kept themselves away from society and its activities. Wearing saffron attire they lived isolated life away from society. Gandhi's mission was to live an active life of involvement, risk and suffering. His life was no bed of roses. Indeed, he lived danger Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNA ously, Inspired by Gita's Karmayoga he staked his life to the ideals of justice, freedom and dignity of the individual. Following "the still small voice within" he grappled with the problems of life. Success may not have always crowned his effort. But his devotion and dedication were unmistakable. He did not know any religion apart from human activity, the spiritual law did not work in a field of its own but expressed itself through the ordinary activities of life. To be truly religious one did not have to retire to the Himalayas nor shrink into the security of the home or a sect." Gandhi's long and eventful life was one continuous denial of dualistic approach to life. The distinction between the outer life and the inner self, theory and practice, words and deeds, Ethics and Politics, Ends and Means had no place in Gandhi's thought. Gandhi wanted to end the "broken totality" manifesting itself in splits within man himself, between man and society and between man and nature."4 Gandhi believed in Advaita (the Indian doctrine of monism) i.e. "the unity of God and man and for that matter of all that lives." This is identical with the Upanishadic view of the oneness of everything, sensate and insensate. know his crea "We may not know God." says Gandhi, "but we tion, Service of his creation is the service of God."5 Gandhi's activities emanated from his spiritual quest. His active involvement in politics, his suffering and sacrifice were all part of his overall concern for self-realization and self-perfection. His approach was holistic in that he saw life in its entirety. What mattered was the whole, man and all men. II On his arrival from South Africa Gandhi's uppermost objective was to work for the liberation of India. For this he wanted to weld the Indian people of various castes, creeds, classes and regions into one nation and weave a cultural pattern of unity in diversity. His mind was set on forging a unity between Hindus and Muslims. "There are two things to which I am devoting my life.""permanent unity between Hindus and Muslims and Satyagraha...... It would be on the question of Hindu-Muslim unity that my Ahimsa would be put to the severest test......I am trying to become the best cement between the two communities. My longing is to cement the two with my blood." Thus, for him the Hindu-Muslim problem was not merely political but an essentially spiritual and moral issue. He realized that in a vast country like India a complete uniformity was neither possible Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 1 nor enforceable. India was an harmonious blend of different cultures, a mosaic and a beautiful picture of unity in diversity. “My experience of India tells me that Hindus and Muslims know how to live in peace among themselves. I refuse to believe that they have said goodbye to their sense so as to make it impossible to live in peace with each other.'India is a big nation composed of different cultures which are tending to blend with one another, each complementing the rest. If I must await the completed in my day. I should love to die in the faith that it must come in the fullness of time. I should be happy to think I have done nothing to hamper the process. Subject to this condition. I would do anything to bring about harmony." Imposition of any one culture would be against the spirit of Ahimsa, against the plurality and multipolarity of Indian traditions and its heritage.3 Facing the formidable challenge of the British Imperial power, Gandhi could visualise that Hindu-Muslim unity was a precondition for waging the struggle for independence. Gandhi placed his spirituality at stake, played with the serpent of politics and thereby not only transformed the basic moorings of individualistic orientation of Hinduism and grappled valiantly for the regeneration and freedom of India. Gandhi's religion was not one of dogmas, rituals, superstitions and bigotry. His religion was synonymous with ethics. Gandhi rightly maintained that his religion transcends Hinduism, Islam, Christianity etc. It does not supersede them, It harmonises them _"I believe in the Bible as I believe in the Gita--I regard all the great faiths of the world as equally true with my own. It hurts me to see any one of these caricatured as they are today by their own followers." With Gandhi religion meant "belief in the ordered moral government of the universe.” Dealing with the "coil of the snake” (politics), he insisted on the inseparability of religion and politics, "I have teen experimenting' he said. "with myself and friends by introducing religion into poli. tics and now believe they cannot be divorced. Let me explain what I mean by religion. It is not Hinduism.. ... It is the struggle for truth-for self-expression. I call it the truth-force-the permanent element in human nature constantly struggling to find itself, to know its Maker", Commenting upon Gandhi's views on religion and politics, Arnold Toynbee observes, "Gandhi's objective was to raise the spiritual level of life in a spirtual slum--the slough of politics....... This gives the measure both of Gandhi's own spiritual stature and of the magnitude of his service to mankind at a turning point in human history." Thus inseparability of religion and politics means, subordi. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 TULSI-PRAJŇA nating politics to religion and organizing the former on principles deduced from the latter. Gandhi wanted to ennoble and humanize politics and raise its level of operation. This was an "organismic vision", vision of life as one and indivisible. Gandhi visualized himself as an instrument of God and communal harmony and peace constituted the highest mission of his life. With humility and honesty he cultivated a tremendous fund of courage and fearlessness and pursued his goal with singleminded dedication. With this aim in mind he piled up argument after argument in support of his basic thesis, namely, that "heart unity" between the two communities was possible if approached with convincing reasons and logic, his own humanism being always at the service of this cause. He seemed to agree with the saying "Let noble thoughts come to us from all directions !" The eclectic and synthesizing vision embodied in this saying underlined the composite and pluralistic nature of Indian culture. "My God is myraid formed", said Gandhi-Sometimes I see him in communal unity. Him again in removal of untouchability and that is how I establish communion with Him according as the spirit moves me-Belief in one God is the corner of all religions, But I do hot foresee a time when there would be only one religion on earth in practice, In theory, since there is one God, there can be only one religion. But in practice no two persons I have known had the same identical conception of God. Therefore there will perhaps always be different religions answering to different temperaments and climate conditions." achieve integration others and, lastly could not but treat Believing in God as Truth he proceeded to at three levels-(a) within his own self- (b) with (s) with God himself. With such a noble aim he all religions on an equal footing. As he observed, "In God's house there are many mansions and they are equally holy." Various religions were "like the leaves in a tree. No two were alike, yet there was no antagonism between them or between the branches on which they grow." Since all religions preach love, they represent different roads leading to the same goal. To be fair to them was to treat them all on an equal footing, He rightly maintained "To revile another's religion, to make reckless statements, utter untruths, to break the heads of innocent men, to desecrate temples or mosques is a denial of God." He also pleaded for the study of other religions so as to generate a spirit of tolerance based upon correct knowledge of other faiths. The root cause of fanaticism was ignorance and misinformation Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • Vol. XXI, No. 1 about other religions. Indeed he was not satisfied with mere tolerance; what he wanted was a positive outlook of treating all religions on an equal footing with full respect and honour. Gandhi's stand was clear. His ceaseless search for truth enabled him to reach the conclusion that all religions contain universal and absolute truth beyond the dust of creeds and faiths. Religion properly understood could guide people to the right attitude and lead them to the right action. All religions preached love, brotherhood and service and could easily be the true basis for harmony. As he put it, "there is no religion higher than truth and righteousness-and though religions are many, religion is one." 7 Symbolising the unity and equality of all religions in his person and his various activities, Gandhi stood for Sarvadharma Samabhav. He began and ended his day with prayers combining almost all the religions. It was through his prayer meetings that he reiterated his message of goodwill, tolerance and harmony of all religions and their peaceful and fruitful co-existence. Conclusion The above discussion has shown that for Gandhi the spiritual quest was the primary objective of life but this quest had to be pursued in the world of here and now through service of the distressed. He participated in politics because he found it to be an avenue to serve people. Clarifying his precise position he observed, "The politician in me has never dominated a single decision of mine and if I seem to take part in politics, it is only because politics encircles us today like the coil of the snake from which one cannot get out, no matter how much one tries. I wish therefore to wrestle with the snake." Gandhi's aim was to make politics as an instrument of lokasangraha i.e. controlled by morality and ethics or religion. Thus politics was to be tamed, controlled and regulated by the moral standards and ethical norms of religion. Gandhi had a vision of a society based upon Truth and Non-violence and his wrestling with politics was a part of this overall objective. Starting from individual transformation through spiritual awakening he aspired to change the entire society in the image of his dream, communal harmony being a rock-bottom necessity. Through removal of mistrust and fear between the two warring communities Gandhi wanted to build bridges of love, understanding and mutual appreciation. No single man could have either attemped or achieved as much as Gandhi did in one lifetime. His lustrous and courageous example enables us to realize the proper and correct relationship between religion and politics. نا Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ References: 1. B. R. Nanda, Mahatma Gandhi-A Biography, Unwin Books, 1965, p. 265 2. Autobiography, p. 4-5. 3. Ramashray Roy, Self and Society-A study in Gandhian Thought sage publication, 1985, p. 24. 4. Ibid, p. 73 5. Collected works of Gandhi, LXIII, p. 253 6. S. Abid Husain 7. B. R. Nanda 8. 9. N. Radhakrishnan 10. Ramashray Roy 11. Johan Galtung TULSI-PRAJNA Gandhiji and Communal unity, Orient Longmens, 1969. Mahatma Gandhi-A Biography, Unwin Books, London, 1965. (Abridged Edition) "Prophets in our Timc-II, Gandhi's Religious Quest." The Times of India, October 1, 1993. "The Relevance of the Gandhian Approach to Communal Harmony" Speech at the "Dept. of Philosophy", University of Madras, 19 January, 1993. (Unpublished) Self and Society-A study in Gandhian Thought, Sage, 1985. The way is the Goal-Gandhi Today (1992) Navjivan, -Peace] Research Centre Gujrat Vidyapeeth, Ahmedabad-380014 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ す COMMUNALISM AND WOMEN Anil Dutta Mishra It is the purpose of this paper to analyse the issue involved in communalism and the way fundamentalism is increasing in India after independence. Communalism is no more only a political phenomenon, Directly or indirectly it has entered in every aspect of Indian social life and posing a great threat to democracy, sovereignty and integration of the nation. The following hypotheses are posited here for the purposes of critical discussion : a) Communal organisations by raising women issucs curtail the women's fundamental rights; b) By reinforcing religious traditions and fundamentalism they curb women's rights; c) The communal tensions, riots and violence suppress women's survival and freedom; d) By raising the bogey of religion and communalism it divided the women and weaker gender as a category. Communalism is perhaps the most intractable problem of the Indian society, fast taking on an explosive form that threatens to blow up the very foundations of our national life. Communalism becomes a means to achieve the political goal. In fact, communalism has been a feature of Indian political culture throughout this century. Communalism directly or indirectly casts shadow on development of the society in general and women in particular. Communalism always curtails the women's rights and keeps them away from the mainstream. But the introduction of women's issues in communalism is a recent phenomenon, Communalism becomes a means of exploitation Recent history has shown that every time there is a return to the so-called 'fundamentalism' of religion-any religion-there is, at the same time, a fundamentalist assault on women's freedom and identity. Through fundamentalism women are twice victimised- first on account of their gender and then on account of religion It is here that debate on communalism, fundamentalism and religious revivalism links up with the question of women's issues, Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 TULSI-PRAJNA Concept of Communalism Communalism is the manifestation of that philosophy which stands for the promotion of interests of a particular community based on religion, caste or language. It is not just riots and social conflicts; it is something that has its roots in communal ideologies. Prof. Bipan Chandra? believes that communal ideology consists of three basic elements. First, it is the belief that people who follow the same religion have common secular interests, that is common political, economic, social and cultural interests. This is the first bedrock of communal ideology. The second element of communal ideology rests on the secular interests, of the followers of one religion which are dissimilar and divergent from the interests of the followers of another religion. The third stage of communalism is reached when the interests of the followers of different religions are antagonistic and hostile. Leftist explanation of communalism is that communal forces are encouraged by the capitalists for their economic interests. Religion is also used as a tranquiliser. But when they want to create disturbance, then also they take the help of religion. In this way, the Leftists have blamed the capitalist class for resorting to religious sentiments of people to secure their interest in all possible manner. On the other hand, Rightist reaction to communalism is based on the theory of religious intolerance In fact, communal question is not a simple one. It is highly complex phenomenon like any other social phenomenon. Worsening economic condition, increasing unemployment, frustration, a sense of social deprivation and a constant fear of loss of identity and status created an atmosphere of conflict, and paved way for communalism to flourish. T. K. Oomana has suggested six dimensions of communalism : assimilationist, welfarist, retaliatory, separatist, and secessionist. Communalism can be practised in many ways like political communalism, religious communalism and economic communalism. Communalism in any form and colour assumes notoriety. It thrives whenever there is a difference between communities over religion, race, caste or language or all of them. Communalism which is sustained due to difference over religion is most powerful, Women's Issues and Communalism Women's issues are basically one. Any social evil perpetrated at the cost of women, any law or custom that reinforces and institutio. omen's inferior status in society. or any event or series of events that affects large number of women can be regarded as a Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 1 11 women's issue. Women's issues are also those that galvanise large numbers of women into action. Any such issues, which catch the attention of women groups, and subsequently of the media are women's issues. The last few years have seen a concerted effort by the more militant religious organisations to revive obscurantist practices in the name of upholding traditions', and maintaining identity. Funda. mentalist assault on women's freedom and identity are increasing year by year. Threats have been perceived to the sanctity of religious customs; myths have been recreated and transformed identities' are daily being arbitrarily constructed and propagated as the trust repre. sentations of community. The phenomenon of restrictions passed by Punjab militants on women is fundamentalism but the latter becomes communal because it demarcates Hindu and Sikh women which can be used for political purposes. Fundamentalism of any kind always curtails women's rights. For Instance, Shah Bano's case resulted in nationwide campaign by the Muslim fundamentalist which resulted in changing the Muslim personal law in favour of fundamentalist. In Deorala (Rajasthan) a young widow was forced to burn herself alive to uphold the religious practices. Thousands of her pictures were displayed. A big Sati Mela (fair) was organised at that place in the name of protecting the customs. Some political leaders patronised this fair. In fact this is not only a crime against women but entire humanity. In Punjab, the Bhindrawale Tiger Force of Khalistan, the Khalistan Commando Force, The Sikh Students Federation and Dashmesh Regiment of Khalistan had ordered women to give up western clothing, wear the salwar-kameez and veil their heads with the dupatta. The militants warned that a close watch would be kept on colleges and action taken if women did not comply within a fort. night. But at the same time there was no order banning western clothes for men. Another blow to women's status was the abortive attempt some years ago to draft a Sikh personal law which denied women property rights. For women, the coming together of religious fundamentalists and a partisan state, as seen in both the Shah Bano and Roop Kanwar incidents, means the reconstitution of several patriarchies that they deal with every day of their lives. Within the home, the authority of the male is strengthened and under religious practice, women are systematically denied fundamental rights; their mobility and access to opportunity are circumscribed. In fact, fundamentalism is a curse for women's development. Even in the communal violence women Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 TULSI-PRAJNA suffer as members of the attacked community, but they also suffer as women. The simplistic explanation of this phenomenon may be that women are half of the population and constitute the largest section of practising believers. They are crucial to the economics of religious practices. Vested interests keep them ignorant and under subjection, thereby ensuring a dependable clientie. At another level fundamentalism ties up with the women's question because it is essentially a political motivated power game. Under the garb of protecting women and tradition, it exploits them in order to achieve its political and economic objectives. In fact the real villain behind all the problem is the unbridled materialism that has taken charge of us. It is, therefore, of little relevance what religious colour one wears because fundamentalism is another banner for an entry into the power game. The electoral politics-nomination of the candidates, compaigning, cammunal representation etc.-accentuated the process of communalism almost everywhere in India. It is here that the debate on communalism and religious revivalism links up with the question of women's issues. References : 1. Bipan Chandra - India's Struggle for Independence, New Delhi ; Penguin, 1989, pp. 398-99. 2. Rama Ahuja, Social Problems in India, Jaipur : Rawat Publications, 1992, p. 105. - Assistant Professor Dept. of Non-violence and Peace Research, JVBI, Ladaun. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Comprehensive Study : JAIN CONCEPTION OF REALITY Dr. Bhagchandra Jain 'Bhaskar' Conflicting views about the nature of reality confused the minds of people to such a degree that it became essential to reconsider this philosophical question in a conciliatory spirit. This important step was taken by the Jainas through the theory of Anekāntavāda, which postulates a theory of manifold methods of analysis (Nayavāda) and synthesis (Syādvāda). According to Jain philosophy, an entity consists of infinite characteristics which cannot be perceived all at once. Therefore one who perceives a thing partially, must be regarded as knowing one aspect of truth as his position permits him to grasp. Even though he is not aware of the entire truth, the aspect he has come to know cannot be altogether disregarded or ignored. The question arises as to how the whole truth of reality could be known. According to Jaina standpoint, all the theories contain a certain degree of genuineness and hence should be accepted from a certain point of view; but the nature of reality in its entirety can be perceived only by means of the theory of manifoldness (anekāntavāda) The Jaina philosophers synthesize all the opponents' views under this theory. The nature of reality, according to this theory, is permanent in change. It possesses three common characters, viz. utpada (origination), vyaya (destruction) and dhrauvya (permanence through birth and decay). It also possesses the attributes (guņas) called anvayı, which co-exist with substance (dravya) and modification (parayāyas) called vyatirekt, which succeed each other.1 Productivity and destructivity constitute the dynamic aspect of an entity and permanence is its enduring factor. This view is a blanded form of the completely static view held by the Vedāntins and the completely dynamic view held by the Buddhists. All this has nicely been described by Dr Padmarajah in his book entitled Jaina Theories of Reality and Knowledge. He also pointed out three different views with regard to the relation of guna and paryāya with a substance ((dravya), viz the bhedavāda, abhedavāda Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 TULSI-PRAJNA and the bhedābhedavāda.2 The bhedavāda represents the view that the attributes and the modifications are a combination with the substance which gives birth to the triple characters (dravya, guņa and paryāya) of an entity. Both guna and paryāya are two distinctive elements in this view. The former is called sahabhāvī or intrinsic. while the latter kramabhāvī or extrinsic. This ideology was promulgated by Kundakunda and supported by Umāsvāmi, Samantabhadra and Pujyapāda. According to abhedavāda, the guņas and the paryāyas are synonymous signifying the conception of change inherent in which are both. external modifications of all realities without creating any contradictory position. Siddhasena Divākara is the chief supporter of this view and he is supported by Siddhasenagani, Haribhadra and Hemachandra. The third view (bhedabheda) held by Akalarkadeva has been accepted by all his commentators and followers such as chandra, Vādirājasuri and Ananta virya. This view appears in a more developed and hormonized form and clarifies further the relation between guna and paryāya in the opinion of Dr. Padmarajiah. On commenting on the Sūtra "Guna paryāyavaddravya" of the Tattvā. rthasūtra, Akalanka suggests that gunas are themselves a distinct category from, as well as identical with paryāyas. It means guņas always exist with realities and their modifications which follow one after another. Prabhāchandra' gives a more critical and comprehensive explanation. All these three views are not fundamentally different from one another, since they unanimously accept the common factors, utpada, vyaya and dhrauvya simultaneity (sahabhāvitva) and modifications with successivity (kramabhāvitva). The Buddhist philosophers are familiar with the first and the last view, but they do not make any distinction between them. Samantabhadra explains the triple characters which abide with a substance at one and the same time. They are not mutually independent. Utpāda can never exist without vyaya and dhrauvya. The other two characters are mutually dependent. Samantabhadra uses an example to clarify this view. If a jar made of gold is turned into a crown it will please a man who has an attachment to the crown, but it will displease the man who dislikes the crown, while the third man who is neutral about the crown but is interested in the gold, will have no objection to it at all. Here origination, destruction and permanence abide in one reality, Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol XXI, No. 1 15 Another example is presented to make this controversial point clearer. He says : he who takes a vow to live on milk, does not take curd, he who takes a vow to live on curd, does not take milk; and he who takes a vow to live on food other than that supplied by a cow, takes neither milk nor curd. Thus Samantabhadra concludes that utpäda, vyaya, and dhrauvya may exist in a relative sense : Na sāmanyātmanodeti na vyeti vyaktamanvayāt. Vyetudeti višeśätte sa haikatrodayādi sat. Ghatamaulisvarņārthi nāšot pādasthitişviyam. Šokapramodamād hyasthyam jano yāti sahetukam. Payovrato na dadhyatti na payotti dadhivrataḥ. Agorasavrato nobhe tasmāttattvam trayātmakam. The etymology of the word "dravya" itself indicates that a thing is permanent-in-change taking a new form simultaneously with the disappearance of the previous form. This view was also accepted by Durvekamiśra according to Kțdanta section.10 Santarakṣital and Arcața 12 have also recorded this conception in their respective works. Trayātmakavāda and Arthakriyāvāda The arthakriyākāritva (causal efficiency) is the result of the doctrines of Bhedvāda, Abhedavāda, and Bhedābhedavāda. The Satkāryavāda of Sankhyas, Asatkāryavāda of Naiyāyikas and Buddhists and Sadasatkāryavāda of Jainas are well-known to us in this respect. Here we are concerned with the views of the Buddhists and Jainas. The Buddhists assert that the particular is the only real element of an entity characterised as svalaksaņa (thing-in-itself) It is supposed to be momentary and a congregation of atoms. A thing accordingly is born and immediately afterwards it is destroyed. The substance is pirhetuka (devoid of causes) in the sense that it originates without the assistance of causes other than its own cause of origination. Each moment produces another moment destroying itself and thus it presents a sort or continunity of existence. Thus it manages to maintain a cause and effect (kāryakāraṇabhāva) relationship. According to Buddhism, momentariness (kşaņabhanguratā) and causal efficiency (kāryakāraṇabhāva) are inseparable. It treated momentariness, efficiency, causality and reality as synonyms, and hence argued that an entity is momentary because it was efficient and it was efficient because it was momentary, On the basis of this idea, the Buddhists criticise causal efficiency in a permanent thing. They say that entities come into being either simultaneously (yugapadena) or successively (kramena). But in a permanent thing, both thoso Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 TULSI-PRAJNA ways cannot be effective, since they are not able to originate it immediately due to the non-proximity of a cause. In the first alternation, the substance should originate all the possible effects in the very first moment of its existence. As regards the type of causal efficiency that takes place simultaneously, a permanent thing cannot have any effects, because it can be neither perceived nor inferred. As Šāntarakṣita says after having brought about all the effects simultane. ously, the nature of a thing comprising its capacity for effective action disappears, and therefore the momentary character of thing is an essential factor for causal effeciency. Furthermore, they point out that auxiliaries (saha kāri) must follow the things with which they are connected. These auxiliaries, as a matter of fact, cannot abide with permanent things, because the peculiar condition produced in a thing by auxiliaries would neither be similar nor dissimilar. If they make any difference, the efficiency of the permanent thing in producing the cause is compromised and becomes dependent upon other things in order to be efficient. If, on the contrary, they are not able to make any difference, the arguments for inoperative and ineffective (akiñcitkara) elements in a thing have no meaning. The Buddhists, therefore, conclude that causal efficiency is the essence of the simple and unique moments each of which is totally different from the others. 18 On the other hand, the Jainas believe that a substance is dynamic (parināmi) in character. It means the thing is eternal f standpoint (niścayanayena) and momentary from a practical viewpoint (vyavahāranayena). Causal efficiency, according to them, is possible neither in a thing which is of the static nature (kūtasthanitya) nor in a thing which does not suit to the doctrine of momentariness (kşaņikavāda), but it is possible only in a thing which is permanentin-change. For clarification of this view. they say that efficiency ta kes place either successively or simultaneously. Both these alternations cannot be effective in the momentary existence, since the spetial as well as temporal extension which requires the notions of "before" and "after" for efficiency are absent from the momentary thing of the hists. Santana (continuous series) is also not effective in this respect, since it is too momentary in the opinion of the Buddhists. Pūrvam naśvarācchaktātkāryam kinnävlnaśvarāt. Karyotpattirviruddhyeta na vai kāraṇasattayā. Yadyadā kāryamut pitsu tattadotpädanātmakam. Kāraṇam kāryabhedena na bhinnam kşanikam yathā..14 Thię view of the Jaigas is recorded by Durvokamigre in the Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 Vol. XXI, No. 1 Hetubinduţikāloka. A writer of the Vādanyāya called Syādvadakesari who is supposed to be the same as Akalankadeva, is said to have defeated the opponents and established the Jaina Nyāva. Vadirāja pays homage to him by saying tärkikalokamastakamani' in the Nyāyaviniscayavivarana, and Prabhachandra "Syādvādak sarisatasatatīvramūrtiḥ" in the Nyāyak umudachandra. According to Syādvädkeśari. Durvekamiśra says, every entity is anaikāntika (having infinite characters), which is the basis of arthakriyā (casual efficiency). Kulabhūsaņa, a commentator on the Vāda nyaya explains this view that "anyathānupapatti" is the main character of reality, and arthakriyā is possible only in that character. Tathācāvādīt vādanyāye Syādvādakeśari-"akhilasya vastuno nekāntikaatvam sattvät. anyatbārthakriyā kutahiti. etacca vyācakşaņena Kulabhūşaņena tīkākstā evam vyākhyātamupapāditañca...... Anyathānupapannatvam yasyāsau heturişyate. Draşța ntau dvāva pistām vāyācā tau hi na kāraṇam.15 He then, on the basis of above view, tries to point out defects in the theory of absolute momentariness and absolute eternalism statiog that causal efficiency is not possible in either of these theories of reality. Clarifying his own position, Kulabhūşaņa asks whether momentary character bas causal efficiency during its own existence or in another. If the first alternative is accepted, the entire universe would exist only for a moment. The effect produced by a certain cause during its own existence would be a cause of others, despite being caused itself, and this series will never end. The argument Cause makes an effect during its own existence and an effect comes into being during the existence of others" is not favoured, since an effect is supposed to be originated during the existence of its own cause and not of another." Otherwise, an effect cannot take place and there will be defect of “Samana ptaravirodha", according to which the effects would emerge in the distant future. Tanna tāvada kşaņiko bhāvaḥ kāryam kartum saknoti tasya kramayauga padyābbyāmarthakriyāvirodhāt nāpi kşaņ ko bhāvah kāryam kartum prabhavati. tathāhi kim kşaniko bhāvah svasattākāle kāryakāraṇasvabhāve'thānyadā. Yadi prathamavikalpastada tadaiva kuryāt. svasaitākņaņe ca kāryakstau sarvam jagadekakşanavarti prāpnoti. tathāhi karaṇam svasattāksiņa eva yat kāryamaksta tadapyanyasya kāraṇamiti tadapi tadaiva svakāryam kuryāt...... 16 The next moment is also not powerful to generate the thing, since it is not a creator. Otherwise, what would be the difference betweev sat and asat, and kşaņika and ..kşaņika. We could conclude, Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNĀ therefore, that arthakriya is possible only in permanent-in-change character. 18 tatkālam parihṛtya Afterwards, Durvekamiśra tries to criticise the view of Syadvadakesari not by advancing arguments but merely hurling insults. As a matter of fact, whenever the Buddhist philosophers came across people whose views were different to theirs, especially when they could not refute their theories, they resorted to the practice of ridiculing them by means of ironical speech. It is in this manner that the arguments of the Jainas against the theory of kṣaṇikavāda came to be dismissed by Pandit Durvekamiśra with cursory remarks that a wiseman should disregard the above objects raised by the "Ahrikas" or Digambaras (yadi namabrikoktirupe kṣaṇīya prekṣāvatām). 18 He then tries to show that only the momentary character has a capacity of casual efficiency. Tarhi karyamapi tadaivotpadyeta'nyada käryot pattirvirudhyata......17 Santarakṣita also refers to a view which seems to belong to the Jaina tradition, but it is attributed to Bhadanta Yogasena, who is claimed by certain scholars to be a Buddhist philosopher. For instance, Bhattacharya says in his introduction to the Tattvasangraha that "nothing definite is known about Yogasena; he is not mentioned in the Nanjio's catalogue of the Chinese Tripitaka nor in any of the Tibetan catalogues." He then tries to prove that Yogasena was a Buddhist philosopher on account of his appellation "Bhadanta" saying: "But the word 'Bhadanta' is always used in the Tattvasangraha to denote a Buddhist, or more preferably a Hinayana Buddhist. Our authors have not made a confusion in this respect anywhere in this book, and on this ground we can take Yogasena to be a Buddhist."19 "" But Santarakśit has not indicated anywhere that the word "Bhadanta" should be limited only to the Buddhist Acaryas. It has been widely used in Jaina literatue as a term of respect to elder Bhikkhus. 20 It is, therefore, not impossible that Yogasena has been a follower of Jainism or has been influenced by its conceptions, as his views against Kṣaṇikavāda represent the Jaina standpoint. Further Santarakṣita did not mention anywhere explicitly the criticism made by Jainas against Kṣaṇikavāda. Moreover, it is unlikely that in such a comprehensive work he should forget to mention the refutation of the Buddhist theory of momentariness by the Jainas, when the Jains were their greatest opponents. Some schools of thought opposing the doctrine of momentary * Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 1 (kşaņikavāda) were rising even within the Buddhist system. For instance, Santaraksita refers to the views of Vātsaput:īyas who classi. fied things under two headings momentary and non-momentary 21 The conception of soul, according to them has been also refuted by Sāntāraksita 22 Stcherbatsky mentia as the Vatsa putriyas who ad ritt: d the existence of a certain unity between the elesrents of a living personality. In all probability they have been influenced by the Jaina views as their arguments are very similar to the Jaina arguments raised against the view of Kșaộikavāda and Anātmavāda. There are, however, two important points of difference between the Buddhist and the Jaina in the meaning they attach to dravyavāda in their common denunciation of the view which connects this notion of arthakriyākāritva with dravyavāda. First, the Buddhist is against dravyavāda of any kind, while the Jaina is against ekāntadravyavāda. Secondly, the Buddhists attack actually turns out, whatever his profession may be, to be on the hypothesis of the static (kūtasthanitya) dravya whereas the Jainas's attack is also on the same hypothe.. sis but only as a contrast to his own theory of the dynamic (pariņami) dravya. 23 We have already discussed the Jaina's view against ekäntadravyavāda. Dual character of an entity Some systems of thought accept only the Universal (sāmāny :) character of reality. Advaitavādins and the Sāňkhyas are the typical representatives of the view. Some other schools led by the Buddhists recognise only particular (vićeşa) character of reality. The third school of thought belongs to Nyāya-Vaiseșikas, who treat Universal and Particular (Sāmānya and Višeşa) as absolutely distinctive entities. santaraks'ta first establishes the Jainistic view on the nature of reality. He says that according to Jainism, an entity has infinite characteristics which are divided into two categories, viz. Universal and ParticularJust as different colours can exist in a lustrous gem without conflicting with each other, so the universal and particular elements could abide in a reality. We find two kinds of existence of own nature (svarūsāstitva). The former tries to separate the silnilar (sajātīya) and dissimilar (vijātiya) substances and indicates their independence. This is called Vertical Universal (nrd hvatásāmānya) which represents unity, Anugata pratyaya) in plurality of different conditions (vyāvsita pratvava of tbe same individual. In other words, the permanent character of an entity is called Ordhvatasamanya,24 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 Sadrasyastitva, the so-called Tiryakasāmānya (horizontal) represents unity in the plurality of different individuals of the same class 25 The word "cow" is used to denote a particular cow and it also refers to others of the same class, because of similarity. Likewise, Visesa is also of two kinds, paryāya and vyatireka. The former distinguishes the two modes of same entity, while the latter makes a distinction between the two separate entities. TULSI-PRAJNA Thus each and every reality is universalized-cum-particularized (sāmānya-viseṣātmaka) along with substance with modes (dravyaparyāyātmaka). Here "dravya" represents the particular character of a thing. The adjective "samanya-viśeṣātmaka" indicates the apprehension of Tiryakasāmānyatmaka and Vyatire kasāmātmaka, while "Dravyaparyāyātmaka" points out the urdhvatāsāmānya and Paryayaviseşatmaka character of a reality. Both these types of samanya have dealt with by Śntaraksita, Karnakagomin and Arcata. They take the traditional example of a jar (ghata) made of gold which can be changed into several modes, while preserving gold as a permanent substance. 27 Another example has been given by Buddhist philosophers on behalf of Jainas. They say that the identical-in-difference (bhedabheda) between the substance and the modes is accepted by the Ahrikas as the nature of reality.18 When a substance is spoken of as one, it is with reference to space, time and nature; when it is spoken of as different, it is with reference to number, character, name and function. For instance, when we speak of a jar and its colour and its other attributes, there is difference of number, and name; there is also a difference of nature, inasmuch as an inclusiveness or comprehensiveness is the nature of the substance of the jar, while exclusiveness and distributiveness is the nature of successive factors in the form of colour and so forth. There is also a difference of function; Thus the inasmuch as the propose served by the two are different. substance is not totally undifferentiated, as it does become differentiated in the form of the successive factors. Desakālasvabhāvānāmabhedadekatocyate. Sankhyalakṣaṇasañjnārthabhedāt bhedāstu varṇyate. Rūpadayo ghataśceti sankhyāsanjna vibhedita. Karyanuvṛitivyāvṛtti lakṣaṇārtha vibhedită. Dravyaparyayayorevam naikāntenaviseṣavat. Dravyam paryāyarūpeṇa višeṣam yāti cet svayam.29 Kamalasila explains the Jaina view as to why it stresses on the Universal-cum-particular character. He says, as the Jainas assert: Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 1 21 "If the above doctrine is to be denied, all things would have to be recognized as one. If a certain thing spoil off, for instance, as a jar was not different from other things, such as cloth, then there would be no difference between the jar and sky-flower (ākāsa-kusuma). (i.e. sky-flower is a thing that does not exist at all-hence an absurdity) Likewise a thing that is always differeatiated from all other things. can have no other state save that of the sky-flower. Consequently. the general character in shape or universal entity, has to be admitted." Kincidvivaksitam vastughatadi, sa yadi gharadirbhāvah patādinā bhāvāntareņatulyaḥ syāt-tato yadi vyāvșttaḥ syāt, tadā khapuşpanna tasya visesaḥ syāt, sarvathā vastvantarādvyāvșttatvät, na ca vastvantaradvyāvrttasyānyagatih sambhavati, khapuspatām muktvā. tasmā. ttasya vastunah khapuspatulyattvamabhyupagacchatā bhāvāntaratulyatvam vastutvam nāma sămânymabhyupa gantavyamiti siddham sāmānyātmakam ....... 30 Kamalaśila further explains the Jaina conception of the particular character of an entity. He says that if the same entity-jar was devoid of dissimilarity, then the jar could not be regarded as anything different from the cloth etc, in the form of "this is jar", "that is cloth", but in fact it does differ from other things. Therefore, the particular character is always present in reality. 31. As the Buddhists do not admit the universal character of an entity, the Jainas endeavour to convince them that the universal character is merged in the particular character of an entity. They set forth the argument that if any entity is not similar to other things. it ceases to be entity. For, that wbich is excluded from an entity. could have no position, but non-existence, as in the case of a sky. flower. Sarvathāpi hyatulyatve hybhipretasya vastunah. Vastvantareņa niyatam vastutvamavablyate, Vastuno hi nivsitasya kvānyā sambhāvini gatiḥ. .. Lakşyate Dāstitam muktvå tārāpa'ha sarojavat.32 In support of the aforesaid view, another argument is presented, on behalf of the Jains; that is, if an cntity were not similar to or different from every other entity, how then is it possible that the common idea of being an entity" found to appear only in connection with the jar and such things, and not in connection with the crow's teeth. It is so because the said restriction is due to have a certain capacity in their natures. Though, according to Jainism, all things in the form of entities are not different from one another, their capacity may be regarded as the required “communality". This is also Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 TULSI-PRAINA called the Niyatavștti". Without accepting this limitation anything could be transformed into thing else. Later the Jainas dealt with the difference among things They say that if a jar were entirely devoid of dissimilarity to those other things, then there being no difference between them, the jar could not be anything different from those things. This would involve a self-contradiction. When one is ready to accept some sort of difference among things, he has also to accept dissimilarity, as a particular character.84 Thus according to the Jainas view, like the gleaming sapphire, every entity, while being one has several aspects. Of these, some are apprehended by inclusive notions. Those that are apprehended by inclusive notions, are inclusive, and hence spoken of as "common", while others, which are apprehended by exclusive notions, are exciusive and hence said to be particular". The inclusive notion appears in non-distinctive form of "This is an Entity', while the exclusive notion appears in the distinctive form "this is jar, not cloth". Vastvekātmakameveda manekākāramisyate Te cânuvșttivyavsttibhuddhigrāhyatayā sthitaḥ, Ādya ete' nuvrttatvatsāmānyamiti kirtitah. Višeşāstvabhidhiyante vyāvịttatvättatato’pare.36 Refutation of Jaina conception of reality in Buddhist literature The Buddhist philosophers criticised the. Jaina conception of reality on the grounds of self-contradiction, commingling, doubt, etc. The main arguments of the foremost Buddhist logicians were as follows: Nāgārjuna (about 150-250 A.D.), the profounder of Sügyavādi. made the charge that the theory of triple character is itself a selfcontradiction formula, as it cannot be associated with reality, since such a thesis is faulty on account of anavasthā-doşa (regressus ad infinitum). 26 Dharmakirti remarks that the Anekantaväda is mere non-sensical talk (pralāpamātra). He then mentions the Jainas' view : "all is one and all is not one", and poits out why the Jainas do not recognize the jar or pot itself as a general character, since Dravyatva is in all of them according to Jainism. (Sarvam sarvatmakam na sarvam sarvatmakam) 37 . Dharmakirti is of the view that the Jaina theory of dual character, viz. universal and particular, is so formulated that the character of particularity is relegated to the background and made less significant. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 Vol. XXI, No. 1 He explains this with reference to the famous example of camel and curd. If the particularity which distinguishes camel from curd or vice-verse is not an important factor, he says, one may as well eat a camel when he wants, to eat curd. He tries by this argument to demolish the Jaina theory as he understood that curd is not only curd by itself (svarūpeņa) but also camel in a relative sense (pararūpeṇa). According to Dharmakirti, these cannot be a universal character bet. ween camel and curd and even if such a character exists, their mutual difference or particularity is all that matters for both identification and use. . Sarvasycbhayarūpatve tadvisesanirākştah. Codito dadhi khādeti kumuştram nābhidhāvati. Athāstyatiśayah kaścit yepa bhedena vartate om 38 Sa eva dadhyonyatı ubhayam param.38 . . Prjñākaragupta (660-720 A.D.), the well-known commentator and a pupil of Dharmakirti also refutes the Jainas theory of reality on the line of arguirents submitted by Nāgārjuna. He says : origination, destruction, and permanence cannot exist together. If it is destroyed how can it be a reality; if it is permanent, how can there be destruction, and if it is permanent, it should always be in mind. He then argues that the reality.cannot be realised as both eternal and noneternal. It should be accepted as either eternal or non-eternal.39 Samantabhadra's view mentioned in the "dravyaparvāyayoraikyam" and "sañjnasarkhyävišeşaśca" has not been refuted by Dharmakirti, Whatever may be its reason, it is criticised by his commentator Arcața who followed the arguments of Nāgārjuna. 40 At another place he tries to refute the Bhedābhedavāda (identity-indifference) conception which means the substance and its modes cannot be separated from a realistic stand point, but they are different in name, number, nature, place, etc. from a practical viewpoint. It appears as if he does not see much difference between ubhayavāda of Yaisesikas and bhedābhedavāda of Jainas, That is the reason why he conceives the substance as being completely different from its modes. He refutes the view first in prose under the heading "Ahiikādisammatasya dravya'paryāyayoḥ bhedabheda pakşasya nirāsah". and then the same arguments are repeated in fourty-five stanzās. Arcața refers to the Jainas view that they analyse reality through sui-generis (jātyantara) which exposes the combination of inentity and differences, although it makes a distinction between the particular and general character of reality. For instance, Narasimha is a combination of man and lion, which is not self-contradictory because Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 TULSI-PRAJNA of the theory of sui-gcneris. Opposing this theory, Arcața points out that Narasimha is a compendium of atoms which cannot be transformed into Narasimha. Due to a combination of the forms which is called Sabalarūpa, a place of existence of diverse natures. How then could a unity in nature be proved ? Arcața finally remarks that is the philosophy of block-heads (darşanakrto'yam viprayāso mūļhamatīnam). This criticism is based on the understanding that the nature of Teality is completely in two different forms. This is the view of Vaise şikas' not Jainas. This criticism made by Aranyakas is answered by the later Jaina philosophers such as Vadirājasūri, Anantavirya, Prabbacandra. Santarakṣita examined the Syâdvāda doctrine of Jainas in a separate chapter of his Tattvasangraha. He points out there that if thoughtness between substance and modes is real (aguņa), then the substance also should be distructive like the form of the successive factors or those successive factors themselves should be comprehensive (anugatātmaka) in their character, like the substance. Therefore it should be admitted that either there is absolute destruction of all characters or it consists of the elements of permanence, exclusiveness and inclusiveness, which cannot exist in any single thing. Hence he turns to the universal and the particular character of an entity. He says: there would be a commingling (sankarya) and a confusion (sandeha) in the dual nature of reality, the result of which would not be helpful to decide which is general and which is particular. If the general and the particular are regarded as non-different from one and the same thing, how could there be any difference in the nature of these two character ? And being non-difference why should it not be regarded as one ? Karnakagomio in the Primaņavartikasvavsttiţika and Jitari in the Anekantavadanirāsa refuted the Jaina conception of reality on the same arguments put forth by their predecessors. Evaluation As a matter of fact, the Buddhist philosaphers misunderstood the theory of Syādvāda, since they treated the dual characteristic of the nature of reality as absolutely different from each other. The theory is originally belonged to the Vaiścșikas. The foremost argument against this doctrine is the violation of the Law of Contradiction, which means that "be" and "not be" cannot exist together. But the Jainas do not accept this formula in Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 1 25 toto. They say that the validity of the Laws of Thoughts should be considered by the testimony of Experience (samvedanā) and not by pre-conception ( Experience certifies that the dual character of entities exists in respect of its own individuality and does not exist a part from and ourside the nature (sarvamasti svarūpeṇa pararupena nāsti ca), In relativistic standpoint, both, being and non-being can exist together. Everything is real only in relation to and distinction from every other thing. The Law of Contradiction is denied absolutely in this respect. The point is only that the absolute distinction is not a correct view of things, according to Jainism. As regards the triple character (origination, destruction, and permanence) of reality, the Jainas support it through "anyathānupapannatvahetu" as explained before. The permanent element possesses the character of idontity-in-difference (bhedābhebavåda). Identity is used in the sense that the substance and its modes cannot be sparated from a realistic stand point, and difference in the sense that they are different in name, number, etc. from a practical viewpoint « In other words, the modes are not absolutely different from substance, as in that case, the modes would not belong to the substance. With past reflections the substance is transformed into present modes and proves itself as a cause for future modes that are necessary for the understanding of the permanent character of an entity. To preserve the unity of terms in relation to different characters, the Jainas assert an element which is called Jätyantara (sui-generis or unque).43 This is illustrated by the instance of Narasimha which is criticised by the Buddhist philosophers. Prabhāchandra says in response to the Buddhist criticism that it is neither nara nor simha, but because of their similarities they are called Narasimha. While having mutual seperation they exist non-differently in relation to substance and like waves in water they emerge and sink in cach other. Thus there is no self-contradiction in a dual character of an entity in relative sense, as the Jainas assert. Na narasimharūpatvan na simho naraūpatah. Sabdavijpānakāryāņām bhedāt jātyantaram hi tat. Na naro para eveti na simhah simha eva hi. Samānadhikaranyena narasimhaḥ prakīrtitaḥ “ Dharmakirti urged with regard to the Universal-cum-particular character of reality that this theory compelled one to recognize the curd and camel as one entity. In connection with the fallacious mid dle term (hetvabbāsa), Akalanka points out that the Buddhist philosophers discover defects to censure the Jainas on the basis of Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 TULSI-PRAJNA invalid arguments (mithyājāti).45 For instance, Dharmakīrti ignores the formula "sarvobhāvāstadatatatsvabhāvah" and tries to establish, equality between curd and camel. Hence he questions why one who intends to eat curd, does not go to eat a camel in place of curd, since according to Jainism, both have the universal character. Akalanka tries to disaram critics like Dharmakirti by pointing out the definition of sāmānya and viseșa. Vadiraja, a commentator of Akalajka explains that the similar transformation of a thing into its modes (sadrasaparināmo hi sāmānyam) is called sämānya. 46 According to this definition the modes of curd and camel are not similar, they are really completely different. as well as simil is it then possible that there elements are mixed ? Another argument used for the refutation of the Buddhist standpoint is that the identity is only among the modes of curd, as hard, hardest, etc., but they have never any sort of relation with the modes of camel. Hence, they can never be mixed with each other. Vadiraja refers here to a traditional fiction the Dharmaksrti proved himself as a Vidūşaka (jester) because a good knowledge of the opponents theory."7 Akalarka again criticises the view of Dharmakirti saying that if the argument that "the atoms of curd and camel may have been mixed sometimes before and the atoms of curd have still the capacity to be transfered into the modes of camel" is to be raised, it would not be advisable. For the past and the future modes of an entity are different, and all transactions and transformations run according to present modes. The curd is for the purpose of eating, while the camel is for riding. The words for them are also completely different from cach other. The word "curd" can be applied only to curd, not camel. It is the same case with the word "camel” too. Thi! Akalaika further points out that if in relation to past modes, the unity between curd and camel is derived, then Sugata was Mşga (deer) in his previous birth and the same Mļga become Sugata. Why then should Sugata only be worshipped and Mțga be considered edible 247 Sugato'pi Mțgo jāto Mțgo’pi Sugataḥ smstah.. Tatbāpi Sugato vandyo Mļgaḥ khado yatheśyate. Tatha vastubalādeva bhedābhedavyavasthiteh. Codito dadhi khādeti kimustramabhidhăvati. 2: Thus he tries to prove that as the transformation of Sugata and Mpga are quite different, and their being worshipped and eaten are related to their modes, all substances have the capacity to be trans. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 1 formed only to their possible modes, not to others. Therefore the identity between the modes of curd and came cannot leed to the truth. Their transformations do not have the tādātmyasambandha and niyatasambandha." [1 In fact, Akalanka and other Jaina philosophers tried to meet the arguments of the Buddhist philosphers in forceful words. The innumerable examples of scathing attacks against Buddhists can be seen in Akalanka's and others Jaina Acāryas' works. The caustic remarks, such as "aḍyahetavaḥ", "ahnikalakṣaṇam", "Paśulakṣaṇam" etc. made by Dharmakirti himself on opponents' views are criticised by Akalanka in the Pramaṇa-sangraha.50 27 Thus the Jaina philosophers do not accept any self-contradiction in the nature of reality in Jainism. Likewise, the other defects such as confusion, commingling etc. which are based on the self-contradiction, are also proved as "mithyadoṣāro pana". And, according to them, the criticism made by the Buddhists or others is not effective in this context. As matter of fact, in their opinion, the nature of reality in Jainism has no defects provided it is clearly understood. Nature of relation of an entity The nature of an entity is also a controversial point among the philosophers. For instance, the Naiyayikas, the extreme realists, think that relation is a real entity. According to them, it connects the two entities into relational unity through conjuntive relation . (samavāya sambandhā). Samavāya is said to be eternal, one, and allpervasive, 51 The Vedantins and the Buddhists, the idealists, are against the view of Naiyayikas. The Buddhists assert the subjective view of relations. A relation, according to Dharmakirti, is a conceptual fiction (sambandhaḥ kalpanākṛtaḥ), like universal, and hence it is unreal.52 He also rejects the two possible ways of entertaining a relation in universal. They are dependence (pāratantra sambandha) and interpenetration (rupaśleṣa sambandha). 53 On the other hand, the Jainas, on the basis of non-absolute standpoint, try to remove the extreme externalism of the Naiyāyikas and the extreme illusionism of idealism of Buddhism and Advaitism. They maintain that a relation is a deliverance of the direct and objective experience. Relation is not merely as inferable but also as an indubitaly perceptual fact. Without recognising relation, no object can be concrete and useful and atoms would be existing unconnected.54 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNĀ As regards the rejection of two possible ways of relation, the Jainas says, that they should not be rejected. For, päratantyasambandha is not mere dependence, as the Buddhists ascribe, but it unifies the entity. Rupaşleşa is also untenable for this purpose.55 28 The two points are here to be noted the first is that, according to Jainism, the entity never lose their individuality. They make internal changes having consistent internal relation with the external changes happening to them. In adopting this attitude the Jainas avoid the two extremes of the Naiyayikas, 'externalism and the Vedanin internalism'. Another point is that the Jainas consider relation to be a combination of the reality in it as something unique or sui-generis (jātyantara). It is a character or trait in which the natures of reality have not totally disappeared but are converted in to a new form. For instance, nara-simha is a combination of the units of nara and simha. They are neither absolutely independent, nor absolutely dependent, but are indentity-in-difference. Hence the Jainas are of view that relation is the structure of reality which is identity-indefference.56 Conclusion From these comments we may conclude that : (i) Arthakriya is the essence of Syadvada conception. According to Jainism, the arathakriya is possible in only the dynamic (parināmi) substance. (ii) The nature of reality is universal-cum-particular; and the nature of relation of an entity is deliverence of the direct and objective experience. (iii) There is neither self-contradiction nor any other defect which the Buddhist philosophers tried to point out in Jaina conception of reality. References : 1. Utpadavyayadhrauvyayuktam sat, Tsü. 5.30; Saddravyalaksanam, Tsu. 5.29; Ganaparyayavaddrayyam, Tsu. 5.38. See for explanations the Tattvarthavārtika of Akalanka. 2. P.P. 258. also see the Darśana aura Cintana, Khanda, 9, P. 163. Atho Khalu davvamao davvāņi guṇappagāṇi bhaṇidāni. -Pravacanasāra, 119. 3. Pravacanasara, Jayasena's commentary, p. 121. 4. Sanmati Tarka Prakaraņa, 2.9-14. 5. Guṇabhāvādayuktiriti cet; na; arhatpravacanahrdayādişu guņaopādesāt; guņa evā paryāya iti va nirdesah; viseṣaṇānupapattirar Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 1 29 thabhedaditi cet; na; matantaranivrttyarthatvat. Tattvārtha Vārtika, 5.37. 2-4. 6. Nayaya Kumauda Cand. p. 363. 7. Ātmamjmāṁsā, 59-61. quoted in Pramāņa Vārtika Svavști Tīkā by Karnagomin, p. 333; Durvekamiśra quotes one more kārika in the Hetubinduțīkāloka, p. 371. Na našena vinā śoko not pādena vinā dhști”. Sthiyä vina na mādhyasthyam tasmāt vastu tryātmakam. 8. Laghiyastrya, 30 Pramāņamsmamsā, p. 24. 9. Dravyaśabdena dravati paryāyena gacehati ti vutpatyā dharmi pariņāminityo vivakṣitah. Paryayasabdena ca parisamanta detyeti dravyamiti vyutpatyadharmab, Hetubinduţikāloka, p, 337. 10. Tattvasangraha, Atmaparikşā. I utilized its English translation in the article. 11. Hetubindutikā, p. 98. 12. Yo yatraiva sa tatraiva yo yadaiva tadaiva sah, Na deśakālayor vyāptir bhāvānāmiha Vidyate. Quoted in the prameyaratnamālā, p. 4. See Jaina theory of knowledge and reality. Also see the VIII chapter of the Tattva sangraha. 13. See Tattvasangraha, 340-346. Also see, HBT. p. 813. 14, Siddhi Viniscaya, 3.11-12. Also sec Vyāyakumudacandra, p. 379. 15. Hetubindutikāloka, p. 373-74. 16. Ibid. p. 374. 17. Ibid. p. 374. 18. Ibid p. 374. 19. Tattvasangraha, introduction, p. 1. 20. Uttarādhyayana, 20, 15; 23. 28; 26. 90 28. 16: Bhagawati. 73. 209; Dasvai. 4. etc. 21. Tattvasangrha, 352. 22. Ibid. 336-349. 23. Nanvanekātmakam vastu yathā mecaka.atnavat, Prakrtyaiva sadādinām ko virodhastathā sati. -Tattvasangraha, 1709. 24. Tāsu tāsu hyavāsthāsu sa evāyam nara. iti anuvrttipratyayahetor naratva jāterürdhvatāsāmanya sabdabhilāpyastāsu cāvasthāsu. Hetubindutikāloka p. 343. cf. Paräparavivārtavyāpi dravyam ürdhvtă mặdiva sthasādisu, Pramāna Mimassa. 4. 5. Ekasmin dravye kramabhāvinaḥ pariņāmaḥ paryayaḥātmani harşavisādivat, ibid., 4. 8. 25. Tiryakasāmânyavyavștti pratyayaheto-Hetubindutrkaloka, p. 343. cf. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNA Sadrsapariņamastiryaka khandamundadisu gotvavat. ---Pramāņa Mimarsā, 4. 4. 26. Arthāntaragato visadraśapariņāmo vyatireko go-mahişādivat, p. 4. 9. 27. Pramāņa Vārtika, Svavýtti Tikā, p. 333; Hettubinduţikāloka, p. 369, etc. 28. Hetubinduţika, p. 98. 29. Tattva Sangraha, 313–315; also see, Hetubindulika, pp. 98. 30. Tattvasangraha Panjika, p. 487. 31. Sa eva ghațădirbhāvā yadi pațādinābhāvena yaditulyatvam tena vih naḥ syāt. tadāyam ghato'yam ca pața iti pațădirbhyo ghatādirbhinno na siddhyet, svarūpavat. bhidyate tasmadviseşatmaka tvamapi siddham-TSP. 487. 32. Tattva Sangraha, 1712–13. 33, Anyathā hi na sa buddhirbalibhugdaśanādişu. Vartate niyatā tveşa bhāvesveti kim kstam. Sārūpyanniyamo'yam cet sāmānyam ca tadeva naḥ.. Svabhāvānugatāśaktiranenaivopavarnità. Atyantabhinnatā tasmadghatate naiva kaśyacit. Sarvam hi vasturūpeṇa bhidyate na parasparam. - Tattva Sangraha, 1714-16. 34. Ibid. 35. Ibid. 1720-1721. 36. Madhyamika Kārikā, 45-46. 37. Pramaņa Vartika, 1-183. 38. Ibid. 1. 184-185. 39. Athotpadavyayadhrauvyayuktam yattatsadisyate. Esameva na satvam syāt etadbhavanhiyogataḥ. Yadā vyayastadāsatvam katham tasya pratiyate. Pūrvam pratite satvam syāt tadā tasya vyayah katham...... Pramāņavārtikalankāra. p. 142. 40. Hetubinduțīkā, p. 233. 41. The Jaina Philosophy of Non-Absolutism, p. 4. . 42. Nyāyaviniscaya, 117-18. 43. Anekāntajaya, Patākā, vol. 1. p. 72. 44. Nyāya Kumuda Canda, p. 369; Anekānta Pravesa Țikā, p. 15. 45. Nyāyaviniścagavivaraņa, vol. 2. p. 233. 46. Nyāyaviniscayavivarana, vol. 2, p. 233. 47. Pūrva pakşamavijnyānāya duško'pi vidušakah, Nyāyaviniscaya vivarna, vol. 2, p. 233. 48. Nyāyaviniscaya, 2. 204-5. Likcwise at onother place. Akalanka, commenting on the Buddhist Ācāryas, especially Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 1 Dharmakirti says: Dadhyādau na pravartete Buddhaḥ tadbhuktye janaḥ. Adraśyam saugatim tatra tanum samsankamānakah. 49. Nyāyayiniscayavivaraņa, pt. ii. p. 172. 50. Pramāna Sangraha, p. 115-115. 51. Tarkabhāşā, pt. 1. p. 5. 52. Pramānavārtīka. p. 3. 237. 53. Nyâyakumudacanda, p. 305. 54. Jaina Theory of Reality and Knowledge. 55. Nyāyakumudacanda, p. 307. 56. Jaina theory of reality and knowledge, p. 233. -Head of Dept. of Pali & Prakrit, Nagpur University, Nagpur. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE VITAL FORCE Dr. Parmeshwar Solanki (i) Thoughtfulness The thought is a dynamic force. Our mind sends forth vibrations of thought just like the vibrations of light and heat. We are always sending off these vibrations, They travel through ether and travel at such an high speed that the longest distance is almost immaterial to them. Though in the case of an ordinary person these thought vibrations are feeble and scattered. They are lost in the surrounding atmosphere and produce no effect anywhere. But when systematically trained and utilized, manifests great dynamic energy. The training of thought chiefly consists in concentrating our thought waves and sending them out with a force of will. It is rather spiritual phenomenon. It is weak or strong according to the strength of the soul. We lose our spiritual energies when directed towards sensualism or self indulgence in regard to food, drink and sexual enjoyment. On the other hand our soul gains power if we check our desires by exercising strict self-control and direct our energies towards higher goals. A still mind is not an empty mind. If one does not know what to do and starts thinking, the sensory deprivation caused by closing the eyes and ears can only be uncomfortable at the best and can, at worst, even cause uncontrolled fantasies. So, to get appreciable results one should begin after acquiring some concentration.1 Concentration and thought control would be found inconvenient in the beginning, The first step towards concentration requires your mind to be fixed on a given subject so that it does not wander away. For this purpose the following practice is found useful. In the night when you have retired to your bed, place yourself in a comfortable position and begin a mental review of your doings during the preceding day. Begin from the morning, from your getting up from the bed. Picture clearly in your mind everything you did or happened to you, or you witnessed in the proper order. Let all the scenes of the day pass before your mind's eye vividly. At first you will be able to recall only the broader events, but gradually you will be able to recollect every thing in the minute details, Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 TULSI-PRAJNA There is a risk of your falling asleep in the middle of your practice. So if you cannot avoid it, you may keep sitting in a chair, instead of lying in the bed. When you review only the boarder events you can finish in a short time, but it would take longer time when you go into details. For concentration purpose, both are of equal value, since you are simply to keep your attention fixed on the passing chain of the events. But going in to details is a good exer. cise for memory also. So the length of the practice depends on the time at your disposal. Secondly, you are required to fix your mind on a single point instead of a subject. This is a difficult task for random thought arise and fantasies come to notice. These thoughts arise in the mind itself and not come from outside. We are taught how to move and behave in the external world, but we are never taught how to be still and examine what is within ourselves, when it is a universal require. ment of tbe human body.2 It is like a person who uscs a large can to put his garbage in day and night. After doing many years of this, a visiter tells him that he has some precious diamonds at the bottom of the can. The person : begins to search for these diamonds, but as he puts his hand in, he finds garbage and no diamonds. Again he looks for the diamonds and fails. So becoming despondent, he withdraws. But he never discontinues to pour more grabage in that can * Similarly what ever you have stored in the mind will be seen when • you start thinking. Due to the imbalance of Phlegm in the body or to the predominance of Tamas (a) in the mind one experiences all kinds of Pains and Pangs, sorrows and greets and fears and other obstructions, which can only be overcome through patience and regular practice.* Now begins the stage of visualisation. As soon as one withdraws from the thought of the environment as well as the sounds and sights, he becomes aware of his/her body and if the body has not been cleansed and clothing is incorrect he begins to feel an itch Then he wonders like a blindman who was left in a room, after a chemical spray on his body, to find the door by touching the walls. He goes * around and around in the room but itching causes him to scratch and he misses the door. So cleanliness, posture, fixed time and order in all matters is a great help in keeping the mind free of confusion for the whole of the body is in the mind, but the whole of the mind is not in the body. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 1 35 (i) Habit of visualisation Visualisation is the faculty of our mind that enables us to see through our mind's eye. Every one has got this faculty in an underdeveloped form. Ordinarily the forms of things come to our mind only for a moment and then they vanish. But by training in concentration, we can fix our mind for a long time on a single image and can see it vividly with our eyes closed as if we are seeing the actual object itself.“ For the practice, take a picture of some holy personage or any beautiful object that appeals to you and fix it before you. Look at it fixedly for a moment and then close your eyes and reproduce the picture before your mind's eye. At first it will come in flashes, that is, it will appear for a while and then vanish. Gradually it will get fixed by practice. You simply try to fix your mind on the image with in. Besides this regular practice you should cultivate the habit of visualisation. See a thing clearly and then taking your eyes off, visualise it with your eyes closed or open. Do this with the words of the book you read and pictures you handle and with the faces of your friends and dear ones. On a few days of practice you will find that images of certain objects you can reproduce very vividly. The practice is becoming easier to you and you are learning to observe things more minutely as well as developing a faculty that is pregnent with vast possibilities." When we achieved this stage we can produce many objective spiritual phenomenan and can have many similar subjective experiences. For example, you can influence other people from a distance, without their knowledge. You can make other people see the object you are visualising. This is called Projecting, that is, you can project your mental visions before others who will take them for real objects. But these are no real material objects. They are merely thought-images which exist only in the minds of the spectators, is clear from the fact that such objects can not be photographed. The art of projecting will give you a power, that will enable you to bend other people's mind to your purpose, you can develop it and the progress in it would encourage you to persevere on with the practice. . Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 TULSI-PRAINA (lli) Clairvoyancy and Telepathy Clairvoyance and Telepathy or the sixth sense develop through deep meditation and close hearty relationship. Clairvoyance is the faculty of seeing things hidden from the eyes or kept at a distant place and telepathy is to read other people's thoughts. It is a difficult art to master completely. But its elementary stage where we can feel the impalses of those around us and can percieve their thoughts in fragments is comparatively easy and every one can acquire so much skill by practice. One can order to a certain person to do a certain thing by his concentrated thought force, However he may find some difficulty when the person concerned is deeply obsorbed in some thing of his interest or doing some kind of practice or repeating some type of exercise. It is rather reciprocal phenomenon, Ordinarily your mental suggestions backed by your concentrated will-power will be impressed on his/her sub-concious mind and he or she would be compelled to obey your command. Another notable phenomenon of clairvoyance is seeing an astral body of the dear one. It so happens when a person is undergoing some serious trouble or calamity such as death occurs, his relatives living at distant place see his astral body and they may even talk or enioy with her/his phantom. Similarly one may be worried without knowing the reason when his/her dear one is undergoing some suffering at a distant place and afterwardn he/she knows the reason.' to be continued Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 1 References: 1. "When we popularly use the word concentration, we sometimes imply a sense of effort to think or analyze, a process that may even sound a little stressful. However, the word concentration, as we mean it here, certainly does not implys effort, tension or mental strain-it simply means 'focused attention." 37 -Swami Rama in Meditation and its practice, Honesdale, Pennsylvania, 1992, pp. 46-47. 2. Very little of the mind is cultivated by our formal education system. The part of the mind that dreams and sleeps, the vast realm of the unconscions, which is the reservoir of all our experiences, remains unknown and undisciplined, it is not subject to any control. -Ibidem, pp 9 3. The data obtained from experimental studies on yogic meditation show a decrease in oxygin, consumption, a decrease in carbon dioxide elimination, a decrease in basal metabolic rate, diminished heart rate and respiration, production of alpha rhythm in E.E.G. and increased galvanic skin resistance. All these observations suggest that yogic meditation leads to a hypometabolic mental relaxation produced in the person as a result of meditation. -Dr. Jaggi, O.P.-Mental tension and its cure, Delhi, 1986, pp. 142. 4. The lower form of will is desire. The higher form of will is love. It is the love that subdues passions and other sensuous appetites and wins the freedom from the shackness of matter. -Swami Sundrarachaitanyananda, Sound from the Silence, Rajahmundry, Pp, 5/15. 1985, A person 5. To see is one thing, to picture or visualize is another. can see things only when his eyes are open, and when his surroundings are illuminated; but he can have pictures in his mind's eye, when his eyes are shut and when the world is dark. Similarly he can hear music only in situation in which other people could also hear it; but a tune can run in his head, when his nighbour can hear no music at all. -The Concept of Mind by Gilbert Ryle, Penguin Books, 1990 pp. 232-33. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 TULSI-PRAJNA 6. Also see focUTT by Swami Ram (fertuit#T)-Reproduced in Swami Ram : Life & Philosophy by Kelakar, R.S., Allahbad, 1993, pp. 229-257. 7. The British Society for Psychical Rescarch has collected thousands of such cases and they have been thosoughly investigated. ---Editor Tulsi Prajna JVBI, Ladnun--341306 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registration Nos. Postal Department : NUR-08 Registrar of News Papers for India: 28340/75 Vol. XXI TULSI-PRAJNA 1995-96 Annual Subs.Rs 60/ Life Membership Rs. 600/प्रकाशक-संपादक : डॉ० परमेश्वर सोलंकी द्वारा जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं (भारत)-३४१३०६ में मुद्रित कराके प्रकाशित किया गया।