________________
१९
( विद्यमान ) को नास्ति ( अविद्यमान ) नहीं कहते और न नास्ति को अस्ति कहते कहने का तात्पर्य है कि धर्मास्तिकाय की सत्ता है, इसलिए महावीर ने इनका प्रतिपादन किया है ।
कालोदायी तदनन्तर महावीर के समीप जाकर प्रश्न करता है । महावीर ने कहा - " कालोदायी ! मैं पंचास्तिकाय का प्रतिपादन करता हूं। उनमें चार को अमूर्त व पुद्गल को मूर्त बतलाता हूं ।'
१२०
कालोदायी ने एक जिज्ञासा और प्रस्तुत की। पूछा - " भगवान् ! क्या धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय इन अरूपी अजीवकायों पर कोई बैठनेउठने, सोने, खड़े रहने में समर्थ है ?२१
7
महावीर ने प्रत्युत्तर में कहा कि ऐसा कहना ठीक नहीं है। एक पुद्गलास्तिकाय मूर्त अजीव द्रव्य है, जिस पर कोई भी बैठने, सोने आदि की क्रियाओं को सम्पादित कर सकता है ।
भगवान् महावीर के अनन्य उपासक मद्रुक द्वारा दिए गए पंचास्तिकाय विषयक तार्किक समाधान इस प्रसंग में अधिक मननीय है ।
मद्रुक किसी समय भगवत्दर्शनार्थ जाते हैं । अन्यतीर्थिकों से मध्य में मिलन होता है । परमतवादियों ने शंका प्रस्तुत करते हुए कहा कि ज्ञातपुत्र प्ररूपित पंचास्तिकाय को सचेतन-अचेतन या मूर्त-अमूर्त कैसे माना जाए, जबकि वे अदृश्यमान् होने के कारण अस्तित्वहीन हैं।
मद्रुक संशय का निराकरण करते हुए कहता है कि- :-" धर्मास्तिकायादि कार्य करते हैं । कार्य के आधार पर ही हम उन्हें जानते व देखते हैं । यदि वे कार्य न करते तो हम उन्हें नहीं जानते-देखते ।'
२४
अन्य मतवादियों का मद्रुक के प्रति यह आक्षेप था कि जो चीज प्रत्यक्षगम्य नहीं है उसकी सत्ता को कैसे स्वीकार करते हो ?
२५
इस संदर्भ में मद्रुक ने जिन युक्तियों का सहारा लिया वे अकाट्य हैं और पंचास्तिकाय के अस्तित्व को सिद्ध करने में कारगर सिद्ध होती हैं। प्रश्नों की एक लम्बी श्रृंखला प्रस्तुत करते हुए मद्रुक व अन्यमतवादियों के बीच जो रोचक वार्तालाप चलता है वह न केवल तत्कालीन मतवादियों को ही समाधान देता है अपितु वर्तमान विज्ञान वादी और तार्किक व बौद्धिक आधार पर समाधान की आशा रखने वाले व्यक्ति को भी सोचने के लिए बाध्य करता है । वार्तालाप इस प्रकार है
मद्रुक - आयुष्मान् ! यह ठीक है कि हवा बहती है ? अन्य हां, यह ठीक है । मद्रुक हे आयुष्मान् ! क्या तुम बहती ( चलती हुई हवा का रूप देखते हो ? अन्य --- यह संभव नहीं ।
मद्रुक - आयुष्मान् ! नासिका में प्रविष्ट होने वाली गंध है ?
अन्य - हां, है ।
मद्रुक -- आयुष्मान् ! क्या तुमने उन घ्राणसहगत गन्ध के पुद्गलों का रूप देखा है ?
खंड २१, अंक १
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
३५
www.jainelibrary.org