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________________ मुक्ति हो सकती है किन्तु दर्शन भ्रष्ट सिद्ध नहीं हो सकता। इस प्रकार भारतीय चिंतन परम्परा और पाश्चात्य चिंतन परम्परा में ज्ञान के स्वरूप का सविस्तार विमर्श हुआ है। ज्ञान निदर्शन में स्वरूप का अन्तर स्वाभाविक है पर कहीं भी ज्ञान की उपेक्षा दृष्टिगोचर नहीं होती है। तुलनात्मक दृष्टि से समीक्षा करने के पश्चात् इस निष्कर्ष पर पहुंचने में कोई विरोध नहीं होना चाहिए कि जैन दर्शन में ज्ञान का जो सूक्ष्म और विश्लेषणात्मक चिंतन हुआ है वह अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता। संदर्भ : १. मोक्षे धीनिमन्यत्र विज्ञानं, इत्यमरः । २. चेतनाचेतनान्यत्वविज्ञानं ज्ञानमुच्यते, ज्ञानस्तु ज्ञानमित्याहुः भगवान् ज्ञान .. सन्निधिः । -लिङ्गपुराण पूर्वार्ध, १०।२९ ३. एकत्वं बुद्धिमनसोरिन्द्रियाणाञ्च सर्वशः । आत्मनो व्यापिनस्तात ज्ञानमेतदनुत्तमम् ।। -योगशास्त्र ४. गीता, ४१३८ ५. ज्ञानयज्ञः परन्तपः। -~-गीता, ४१३३ ६. सर्वभूतेषु येनैक भावमव्ययमीक्षते । अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धिसात्विकम् । -गीता, १८:२० ७. पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान् पृथग्विधान् । वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ।। --गीता, १८।२१ ८. यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन् कार्येसक्तमहेतुकम् । अतत्त्वार्थवदल्पञ्च तत्तामसमुदाहृतम् ॥ -~-गीता, १८१२२ ९. वैराग्याज्जायते ज्ञानम् ॥ वि. पु. महा. भा., १३।१४९।६१ १०. वैराग्याज्जायते ज्ञानं ज्ञानाद् योगः प्रवर्ततेः। योगज्ञः पतितो वापि मुच्यते नात्र संशयः ॥ ---वि. पू. महाभा., १३।१४९।६१ ११. ज्ञानं प्रकृष्टमजन्यमनवच्छिन्नं सर्वस्य साधकमिति ज्ञानमुत्तमं सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म इति श्रुतेः। -वायुपुराण उत्तरार्ध, ११॥३६ (तद्भाष्यम्) तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524583
Book TitleTulsi Prajna 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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