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________________ जैन तथा सांख्य दर्शनों में संज्ञान D निर्मल कुमार तिवारी भारतीय दर्शन में ज्ञान, संज्ञान, बुद्धि, उपलब्धि, प्रत्यय आदि विविध ज्ञानवाची शब्दों को ज्ञान मीमांसा के क्षेत्र में उचित स्थान तो निस्संदेह प्राप्त है। किन्तु इन शब्दों को संभवतः एक रूप में प्रयुक्त नहीं किया गया है जिसके कारण कभी-कभी शब्दभ्रम उत्पन्न हो जाता है । न्यायसूत्र ने कहा है कि बुद्धि, उपलब्धि तथा ज्ञान इन शब्दों में कोई अन्तर नहीं है । ये एकार्थक हैं । इस प्रकार संज्ञान कोई अलग तथा बिल्कुल विशिष्ट अर्थ प्रदान करनेवाला नया ज्ञानवाची पद तो नहीं है, पर इसके मूलार्थ में “सम्यक् ज्ञान'' का भाव अवश्य निहित है। संज्ञान एक सरल प्रत्यय है। इसकी भी परिभाषा कर पाना कठिन है। प्रायः सभी मनुष्य यह दावा जरूर करेंगे कि उन्हें किसी-न-किसी प्रकार का संज्ञान है। फिर भी, हमें यह तो मानना ही पड़ेगा कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड संज्ञान का विषय है। सृष्टि-प्रक्रिया में संज्ञान की उपादेयता सर्वोपरि है क्योंकि स्थूल तथा सूक्ष्म विषयों में यह भिन्नता का बोध कराता है । प्रकारान्तर से इसी संज्ञान के उदय से विवेक उत्पन्न होता है और विवेक से नित्यानित्य वस्तु का अन्तर-ऐहिक तथा पारलौकिक विषयों का भेद समझ में आता है, उनके प्रति दृष्टि स्पष्ट होती है और अन्ततः निःश्रेयस की उपलब्धि का मार्ग सुगम बनता है। सामान्यत: किसी भी प्रकार की सूचना जो अध्ययन, श्रवण, दर्शन या भावों के द्वारा सम्यक् रूप में मिलती है, उसे बिना किसी भेद-भाव तथा पक्षपात के हम अपने संज्ञान का विषय बनाते है । जब हमारी चिन्तन-शक्ति को अपेक्षित पौढ़ता प्राप्त होती है तब हम अपने संज्ञान के विषय में सोचने लगते हैं क्योंकि संज्ञान के विचार-विमर्श हेतु विकसित मस्तिष्क, तर्कबुद्धि तथा ऊर्जा की जरूरत है। व्युत्पति के अनुसार सम्यक् ज्ञायते अनेन इति संज्ञानम् अर्थात जिसके द्वारा लौकिक तथा अलौकिक पदार्थों को सम्यक् रूप में जाना जाय, वह संज्ञान है । वाचस्पति मिश्र ने भामती में ज्ञान का लक्षण बतलाते हुए कहा है कि जिससे अर्थ या विषय प्रकाशित हो वह ज्ञान है। आधुनिक पाश्चात्य मनोविज्ञान भी संज्ञान अर्थात् स्वसंवेदन के पूर्व ज्ञान किंवा संवेदन का औचित्य स्वीकार करता है । उसकी मान्यता है कि सभी प्रकार का स्वसंवेदन अतीत अनुभव पर आधारित है, तथाकथित आदतजन्य कारकों पर निर्भर है।' मन्न के शब्दों में "जिसे हम किसी विषय का अर्थ कहते हैं, वह विषय, स्थिति या घटना अनेक उदाहरणों में अतीत में उत्तेजित करने वाली बातों पर निर्भर करती खण्ड २१, अक १ २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524583
Book TitleTulsi Prajna 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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