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________________ प्रमाण-विभाजन विशिष्ट प्रकार का है जिसमें प्रत्यक्ष, स्मृति, तर्क, प्रत्यभिज्ञा, अनुमान और शब्द ये छः प्रमाण स्वीकृत हैं । इसके विपरीत, सांख्य का प्रमाण-विभाजन सामान्य है जिसमें प्रत्यक्ष, अनुमान तथा शब्द ये तीन प्रमाणों की ही चर्चा होती है। (v) जैन मत में प्रामाण्य तथा अप्रामाण्य उत्पति में परत: और ज्ञप्ति में स्वतः और परतः ग्राह्य हैं । अभ्यासदशा में ज्ञान को प्रमाणित करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की अपेक्षा नहीं होती जबकि अनभ्यास दशा में ज्ञान की सत्यता प्रमाणित करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की अपेक्षा होती है । इसके विपरीत, सांख्य दर्शन संज्ञान के प्रामाण्य तथा अप्रामाण्य को स्वतः मानता है। इस प्रकार जैन तथा सांख्य दर्शनों में साम्य नहीं दीखता किन्त वास्तव में दोनों में बहुत अधिक साम्य हैं । दोनों ही दर्शन वास्तववादी है और उनमें वास्तविकता की दृष्टि से ही विषयों तथा वस्तुओं का सम्यज्ञान अर्थात् संज्ञान प्राप्त करने का आग्रह किया जाता है। अन्त में कहा जा सकता है कि जैन तथा सांख्य दर्शनों के संज्ञान-विषयक विचार का भारतीय दर्शन में महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि दोनों ही दर्शन सम्यक् ज्ञान को मानव के नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास का आधार मानते हैं। जैन दर्शन के अनुसार जो व्यक्ति विषय को सम्यक् प्रकार से जानता है, जो विवेकशील है, वह संज्ञी है और केवली संज्ञी व्यक्ति अर्थात् विवेकशील व्यक्ति ही मोक्ष का अधिकारी है। पंचसंग्रह संज्ञी के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा है कि किसी कार्य को करने के पूर्व कर्तव्यअकर्तव्य की मीमांसा करने वाले, तत्त्व-अतत्त्व का विचार करने वाले और संयत भाषा व्यवहार करने वाले व्यक्ति समनस्क (मानसिक शक्ति से युक्त अर्थात् संज्ञान से युक्त) है । अतः जैन दर्शन में संज्ञी" तथा संज्ञान से युक्त व्यक्ति को ऊंचा दर्जा प्राप्त सांख्य दर्शन में बुद्धि तत्व जड़ होते हुए भी चेतनवत् है और इसलिए उसमें ही संज्ञान उत्पन्न होता है । वस्तुत: सांख्य की ज्ञान मीमांसा में हमें संज्ञान को प्रकृति में नव्योक्रान्त गुण (emergent quality) के रूप में ही समझना चाहिए। नव्योत्क्रान्ति को मानने वाले दार्शनिकों का कहना है कि भौतिक विकास की एक विशेष अवस्था प्राणतत्व की अवस्था विशेष में चेतना का उद्गम होता है । -द्वारा श्री सत्यदेव तिवारी ग्राम--चावक (पक्कापर) पो० चावक जिला--भोजपुर-८०२३१२ (बिहार) लसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524583
Book TitleTulsi Prajna 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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