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प्रमाण आदि विषयों का स्पष्ट उल्लेख है। ___ सांख्य शब्द के दो अर्थ अधिक प्रसिद्ध हैं -- संख्या और ज्ञान । इसका दूसरा अर्थ ही अधिक संगत प्रतीत होता है- प्रकृति और पुरुष, जड़-चेतन, आनात्मा--आत्मा के पार्थक्य का सम्यक् ज्ञान । यही सांख्य-दर्शन का उद्देश्य है।' सांख्य दर्शन में सम्यक ज्ञान अर्थात् संज्ञान को पुरुष का गुण या कर्म नहीं माना गया है उसे चैतन्य अवश्य कहा जाता है और चैतन्य स्वयं में तत्व है, किसी का गुण कर्म नहीं। उसे किसी अधिष्ठान की आवश्यकता नहीं है । सांख्य दर्शन में संज्ञान का यह प्रथम अर्थ है।
इसके अतिरिक्त, सांख्य दर्शन में संज्ञान शब्द का प्रयोग व्यावहारिक संज्ञान के रूप में भी हुआ है । यहां ज्ञान को बुद्धि की वृत्ति की रूप में स्वीकार किया जाता है।" सांख्य दार्शनिकों का मत है कि पहले विषय का इन्द्रियों से संयोग होता है, इन्द्रिय मन को विषय समर्पित करती है, मन उस विषय को अहंकार तक पहुंचाता है और अहंकार उसे बुद्धि को समर्पित करता है । बुद्धि सत्व गुण के आधिक्य के कारण दर्पण की भांति है जो विषयाकार को ग्रहण कर लेती है । बुद्धि के विषयाकार को ही वृत्ति कहा जाता है । एक ओर बुद्धि, विषयाकार होती है तथा दूसरी ओर पुरुष द्वारा प्रकाशित होती है। अतः बुद्धि की वृत्ति के रूप में व्यावहारिक संज्ञान उत्पन्न हुआ माना जाता है।
पूनः सांख्य दर्शन संज्ञान के स्वप्रकाश सिद्धांत को स्वीकार करता है जिसका अर्थ होता है कि संज्ञान अपने आपको स्वयं ही सम्यक् रूप में प्रकाशित करता है।" इस सिद्धांत के अनुसार संज्ञान की उत्पति तथा उसका प्रकाश साथ-साथ होता है। सत्व गुण संज्ञान को उत्पन्न करता है तथा तमस् तथा रजस् गुण उसकी उत्पत्ति में बाधक होते हैं। साथ ही, सत्व गुण संज्ञान के प्रामाण्य को भी प्रकाशित करता हैं तथा तमस् एवं रजस् उसके प्रामाण्य को धूमिल करते हैं। इस बात को ध्यान में रखने से यह सरलता से स्पष्ट हो जाता है कि संज्ञान का प्रामाण्य उत्पति तथा ज्ञप्ति दोनों ही दृष्टि से स्वतः है तथा उसी प्रकार संज्ञान का अप्रामाण्य भी दोनों ही दृष्टियों से स्वतः है। सांख्य-दर्शन पर योग-दर्शन का काफी प्रभाव है । इससे प्रभावित होकर उसकी मान्यता है कि हमारा चित जितना ही अधिक निर्मल तथा शांत होता है, सत्व के प्रभाव से उसका संज्ञान उतना ही स्पष्ट तथा प्रामाणिक होता है। उसमें तमस् तथा रजस् की मात्रा जितनी अधिक होती जाती है संज्ञान में अस्पष्टता तथा धूमिलत होने के कारण वह उतना ही अप्रामाण्य हो जाता है। इस प्रकार, प्रत्येक ज्ञान में प्रामाण्य तथा अप्रामाण्य एक साथ स्वतः विद्यमान होते हैं तथा व्यावहारिक स्तर का वृति रूप कोई भी संज्ञान पूर्णरूपेण प्रामाण्य अथवा अप्रामाण्य की कोटि में नहीं आता।
इस प्रकार जैन और सांख्य दर्शनों में संज्ञान का स्वरूप निम्न प्रकार प्राप्त होता है-(i) जैन-दर्शन में संज्ञान जीव अर्थात् आत्मा में स्वीकार किया गया है जबकि सांख्य-दर्शन में संज्ञान प्रकृति के महत् अर्थात् बुद्धि तत्व में स्वीकार किया गया है। (ii) जैन-दर्शन संशान को ही प्रमाण तथा प्रमा दोनों मानते हैं जबकि सांख्य चितवृत्ति को प्रमाण और संज्ञान को प्रमा मानते हैं । (iii) जैन-दर्शन के अनुसार संज्ञान आत्मा का धर्म है जो इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना सीधे आत्मा से होनेवाला साक्षात् ज्ञान है । किन्तु सांख्य दर्शन में ऐसी कोई कल्पना नहीं है। (iv) जैन दर्शन का
खंड २१, अंक १
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