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________________ अरातीय आचार्यप्रणीत सार-मात्र हैं । इस सार की प्रामाणिकता केवली, श्रुत केवली जिनवर कथित, निर्दिष्ट आदि पदों से सूचित की गई है। उनकी वाणी की प्रामाणिकता के तीन तर्कसंगत आधार निम्न है।५ । १. आप्त या जिन को क्षुधा तृषादि अठारह दोषों से रहित होना चाहिये। मालवणिया के अनुसार यह नामावली दिगम्बर-परम्परा के ही अनुकूल है। २. आप्त को निर्दोषता के साथ केवल ज्ञान के परम विभव से युक्त भी होना चाहिये। ३. आप्त के वचनों में पूर्वापर-दोष-विरहितता (युक्ति शास्त्राविरोधिता, संभवबाधक प्रमाणाभावता) या अविसंवादिता होना चाहिये । यद्यपि ये तीनों आधार आप्त-पक्ष के हैं पर इनमें तीसरा आधार श्रोतापक्ष पर भी लाग होता है । नियमसार में बताया गया है कि यदि वचनों में अविसंवादिता न पाई जावे, तो शास्त्रों की विसंवादिता दूर कर लेना चाहिए। इससे श्रोता का एक गुण तो पता चलता है कि उसे भी शास्त्र-ज्ञान होना चाहिए । नहीं तो वह मूल्यांकन कैसे करेगा ? इसीलिए कुंदकुंद ने श्रोता के लिए "सत्यम् समधिदव्वं" कहा है । उसे शास्त्र पढ़ना ही न चाहिए अपितु सम्यक् रूप से समीक्षापूर्वक पढ़ना चाहिए । यह उत्तराध्ययन के “पण्णा समिक्खए धम्म' का ही एक रूप है । यही नहीं, कुंदकुंद युग में "शास्त्राविरोधिता" ही अधिक मान्य थी पर न्याय युग में युक्ति-अविरोधिता भी इसमें समाहित हो गई । अतः श्रोता को युक्ति-प्रवीण भी होना चाहिए । न्याय युग में श्रद्धा के साथ बुद्धि का समन्वय कर आचार्यों ने आगम की प्रामाणिकता के मूल्यांकन का बहुतेरा भार श्रोता पर छोड़ दिया। फिर भी, समंतभद्र ने सावधान किया है कि यदि वक्ता अनाप्त या कषाय कलुषित हो, तो तत्वसिद्धि आगम से ही करनी चाहिए । अत: आगम को इन्द्रिय और मन का चक्षुओं की अधिक सूक्ष्मता, तीक्ष्णता एवं यथार्थता का प्रेरक तो माना ही जा सकता है। इसीलिए अकलंक ने श्रुतज्ञान को तीन प्रकार से संभव माना है : (१) प्रत्यक्ष निरीक्षण (२) अनुमान (३) आगम उत्तरकाल में जैनवातिककार ने प्रथम दो कोटियों को एकीकृत कर श्रुत के दो ही स्रोत कर दिए हैं—आगमिक एवं हेतुवादी। यह कुंदकुंद के प्रवचनसार की गाथा ८६ के अनुरूप है। ___ मुझे ऐसा लगता है कि प्रारम्भ मे कुंदकुंद ने आगमिक एवं हेतुवादी-दोनों पक्षों को स्वीकृत कर ही प्रवचनसार की रचना की होगी। उन्होंने पंच परमेष्ठियों को विभिन्न नामों से सम्बोधित कर वंदित किया है और शास्त्रीय मत की पुष्टि में लौकिक उपमानों एवं तर्कों के माध्यम से अपना विवरण दिया है। नियमसार गाथा ७१-७५ में दिए गए पंच परमेष्ठियों के प्रचलित नामों से ऐसा लगता है कि णमोकार मंत्र की वर्तमान पदरचना कुंदकुंद के समय में प्रवचन एवं नियमसार की रचना के मध्यवर्ती काल में हुई होगी। खंड २१, बंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524583
Book TitleTulsi Prajna 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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