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________________ आगमों की प्रामाणिकता के लिए कुंदकुंद के उपर्युक्त आधार (तथा युक्ति आधार) आधुनिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है । यदि इन आधारों के अनुसार, आज प्रवृत्ति की जाये, तो बीसवीं सदी में उठने वाले अनेक ऊहापोह एवं आस्था संक्षारण पर्याप्त मात्रा में शांत हो जावें । इसी दृष्टि से यह बात महत्वपूर्ण हो जाती है कि जब दिगम्बर-परम्परा में मूल आगम लुप्त मान लिए गए हैं, तब कुंदकुंद या अन्य आचार्यों के ग्रन्थों को “आगम" या "परमागम' कहना कितना तर्कसंगत है ? इसके लिए "आगम तुल्य' या "उप-आगम'' (प्रो-केनन, उपाध्ये) पदों का उपयोग अधिक सार्थक होगा। आगम शब्द "आप्तवचन" तथा "परमागम" शब्द सर्वज्ञ वचन के लिए ही प्रयोग किया जावे, तो अच्छा रहेगा। (नई पीढ़ी इस प्रकार की मनोवैज्ञानिक प्रवंचना समझने में सक्षम है । भूतकाल में नाम, ग्रंथ नाम, परम्परा व्याख्या आदि की समानता से अनेक भ्रम उत्पन्न हुए हैं जिनका समाधान हम अभी भी नहीं कर पा रहे हैं । कमसे-कम भ्रमों की संख्या तो न बढ़ावें । कुंदकुंद ने सांख्यों की मान्यताओं की विसंवादिता तर्कों से सिद्ध की है। फलत: तर्कवाद अविसंवादिता परखने की एक कसौटी है। प्राचीन युग में बौद्धिकता ही इसका प्रमुख आधार है, पर अब प्रत्यक्ष निरीक्षण, यांत्रिक निरीक्षण, गणितीय परिकलन आदि अनेक आधार इस युग में जुड़ गए हैं। इसलिए अब अविसंवादिता की परख और भी सूक्ष्मता एवं तीक्ष्णता से हो सकती है। यद्यपि अभी आत्मा नवयुगीन परीक्षण आधारों के क्षेत्र में पूर्णतः नहीं आ पाया है पर जीव, पुद्गल, आकाश, धर्म और अधर्म द्रव्य तो प्रायः पूर्ण परीक्ष्य कोटि में आ गये हैं । इनके शास्त्रीय गुणों की संगत परीक्षा के आधार पर आगमों की अविसंवादिता एवं प्रामाणिकता की परीक्षा की जा सकती है । ऐसी परीक्षा कुंदकुंद के मत के अनुरूप ही होगी। इस दृष्टि से कुंदकुंद साहित्य के कुछ प्रकरणों का परीक्षण करने पर निम्न सूचनाएं प्राप्त होती है : १. शब्दावली की विविधता :-कुंदकुंद के ग्रन्थों में द्रव्य और पदार्थ सम्बन्धी पारिभाषिक शब्दावली में विविधता पाई जाती है जैसे भूतार्थ, तत्वार्थ, पदार्थ, अर्थ, द्रव्य । एक ही आचार्य की कृति में एक ही वर्णन के लिए शब्दावली की विविधता अच्छा गुण नहीं माना चाहिए । इसे "विनेयाशयवशात्" कहकर भी उत्तरित नहीं किया जा सकता । यह विविधता विसंवादी होती है। २. द्रव्य की परिभाषा-कुंदकुंद के ग्रन्थों में द्रव्य की परिभाषा "गुणात्मकं द्रव्यं" से लेकर "स्वभाव-विभाव-पर्याय-प्रापकं द्रव्यं" तक पाई जाती है। इसे विचार विकास माना जावे या परिभाषा-संग्रह-क्षमता ? ३. स्कंध भेदों का क्रम : ---पंचास्तिकाय और नियमसार में स्कंध के भेदों के उत्तरोत्तर सूक्ष्मता पर आधारित विवरण में "स्थूल-सूक्ष्म" (प्रकाश, छायादि) एवं "सूक्ष्मस्थूल" (वायु, गंध आदि अचक्षु विषय) कोटियों के क्रम के विषय में “स्थौल्ये सति तदुपलब्धेः'' की धारणा को जैन और जैन ने प्रत्यक्षबाधित बताया है । वस्तु की अप्राप्यकारिता का प्रकरण भी इसी कोटि में है। ४. जलादि चार की सजीवता-इस विषय में उपाध्ये" ने समीक्षा की है कि इस तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524583
Book TitleTulsi Prajna 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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