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२. संमयसार का स्वर किंचित् कठोर है। उसमें स्वपरभेद - विज्ञानी निश्चय की वास्तविक उपयोगिता बताते हुए व्यवहार जगत् की एक प्रकार से भर्त्सना - सी की है। इस रचना पर तत्कालीन ब्रह्मवाद या अद्वैतवाद एवं गीता के प्रभाव का स्पष्ट भान होता है । इसीलिए यह ग्रन्थ संभवत: तब तक अज्ञातसा बना रहा जब तक शंकर का अद्वैती नाद गुंजित नहीं हुआ ।
३. अष्टपाहुड़ व्यबहार जगत् को आदर्श अध्यात्ममुखी बनाने के लिए शासन ग्रंथ है ।
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इनमें उनके आगमिक, अध्यात्ममुखी एवं आचार्यत्व के रूप प्रकट होते हैं। उनके विचारों के विकासक्रम का अनुमान लगता है । आगमों के सकारात्मक सरल निर्देशों को आचार्य ने चेतावनी परक निर्देशों में परिणत किया फिर भी, यह आश्चर्य ही लगता है कि महावीर - निर्वाण से सात सौ वर्षों में ही ऐसे शासन ग्रन्थों की रचना करनी पड़ी। इससे तो महावीर के उपदेशों की स्थायी प्रभावशीलता की धारणा ही पुनर्विचार की सीमा में आ जाती है। [इसीलिए हमारा अनुरोध है कि कालगणना पर पुनर्विचार जरूरी है । सं०]
कुंदकुंद के ग्रन्थों की विविधरूपता एवं विविध विषयता के बाबजूद भी उन्होंने निश्चय और व्यवहार की चर्चा के समय आगमों के वास्तविक स्वरूप के विषय में महत्त्वपूर्ण बातें कहीं हैं । प्रवचनसार और समयसार में उन्होंने कहा है कि श्रुत से आत्म ज्ञान प्राप्त होता है । इसका तात्पर्य यह है कि श्रुत का परमार्थ विषय तो अध्यात्म है । इसी आधार पर आत्मज्ञ ही सर्वज्ञ होता है । इसका दूसरा अर्थ यह है कि आप्तोपदिष्ट आगम मात्र आत्मज्ञान के साधन हैं। उन्हें अन्य तत्वज्ञता के वास्तविक साधन नहीं मानना चाहिये । आत्मा के अतिरिक्त अन्य सभी चीजें "पर" हैं, अत: सर्वज्ञ का पर विषयक ज्ञान आगम का विषय नहीं है । यह आगमों में प्रासंगिक रूप में संभवत: सर्वज्ञता की प्रतिष्ठा के लिए आया है । इसकी प्रामाणिकता की परीक्षा हेतुवाद एवं प्रत्यक्षादि प्रमाणों से करनी चाहिये । कुंदकुंद को, आगम की यह वास्तविकता हमारे बड़े काम की है । यह परिभाषा वैज्ञानिक दृष्टि को निरूपित करती है | सन्मति तर्क में भी यही बताया गया है कि हेतुवाद से सिद्ध न हो सके, वह आगम विषय है । उपाध्याय अमर मुनि, स्वामी सत्यभक्त एवं जैन" ने इस दृष्टिकोण का ही समर्थन किया है और सुझाया है कि संगीति द्वारा वर्तमान आगम तुल्य ग्रन्थों की परमार्थता प्रतिष्ठित की जानी चाहिए ।
आगमों की प्रामाणिकता एवं मूल आचारता
यह सुज्ञात है कि "जिन" या आप्त की परिभाषा सम्प्रदायातीत होने पर भी रूढ़ तो है ही, फिर भी, उनके वचनों की प्रामाणिकता या स्वीकार्यता के लिये कुंदकुंद ने तीन आधार बताये हैं । इनका अनुसरण उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी किया है । प्रवचनसार" में "पुग्गलदव्वपागेहि वयणेहि जिणोवदिट्ठ सुत्तं" तो अवश्य कहा है पर आज हमारे समक्ष उपलब्ध आगम तुल्य ग्रन्थ उनके उपदेशों के गणधर - ग्रंथित या
तुलसी प्रज्ञा
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