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सेन ने भी धवला में तर्कातीत एवं इंद्रियातीत तत्त्वों के प्रवचनों को श्रुत कहा है। वादिदेवसूरि ने भी आप्तोपदेश या तन्मूलक तत्वज्ञान को श्रुत कहा है । निश्चयनय से सर्वज्ञ ही आत्मा को यथार्थ एवं पूर्ण रूप से जानता है। अतः श्रुत पूर्णतः आत्मा या अध्यात्म प्रधान है । इसके विपर्यास में, भगवती टीका, मलयगिरि टीका एवं पूर्ण ज्ञान रत्नाकरावतारिका में श्रुत का अर्थ परम्परागत उपदेश एवं तत्वार्थ विषयक यथार्थ एवं पूर्ण ज्ञान के साधन के रूप में माना है। इन परिभाषाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि श्रुत-परिभाषा में, आप्त-प्रणीतता मुख्यतः दिगम्बर ग्रन्थों में पाई जाती है। संभवतः इसका सूत्रपात कुंदकुंद ने ही किया हैं । हां, न्याय युग ने अवश्य आप्त की परिभाषा "अविसंवादी वक्ता के रूप में व्यक्त की। पर यहां भी आप्तज्ञान को सर्वज्ञता के रूप में वहिर्वेशित करने से न्याययग में इस धारणा को प्रतिष्ठापित करने हेतु जैन ताकिकों को विभिन्न दार्शनिकों के तर्कबाणों से विद्ध होना पड़ा। साथ ही, इस धारणा से श्रुत की प्रामाणिकता की मान्यता में संक्षारण भी हुआ जो अब तक जारी है । ऐसा प्रतीत होता है कि न्याय युग में श्रुत की परिभाषा अधिक तर्कसंगत
और व्यापक हुई । तत्व ज्ञान के लिए आगम के अतिरिक्त, लौकिक या अलौकिक प्रत्यक्ष निरीक्षण को भी प्रामाणिक माना जाने लगा। मेरा विश्वास है कि यदि अकलंक की श्रुत परिभाषा का अनुसरण किया जाता तो हम तर्क, श्रद्धा और वैज्ञानिक दृष्टिकोणों में समन्वय बनाकर तत्वज्ञान के क्षेत्र में अपनी श्रेष्ठता बनाये रखते और अन्धविश्वासी अनुसरण की हानियों से बच सकते थे।
शास्त्र और सूत्र शब्द भी आगम के लिये प्रयुक्त होते हैं। परम्परागत रूप से गणधरकथित या आरातीय रचित उपदेशों से इन्हें परिभाषित किया गया है पर व्युत्पत्तिपरक व्याख्या अधिक तर्कसंगत लगती है। शास्त्र आध्यात्मिक शासन और संरक्षण का प्रतीक है जबकि सूत्र संक्षिप्त या सूक्ष्म रूप कथनों के प्रतीक हैं जो व्यक्ति या समाज को एकसूत्रता में पिरोये। कुंदकुंद के ग्रन्थों के विषय एवं लेखन-रूप
आगम मुख्यतः जिनोपदेश है । कुन्दकुन्द ने इन उपदेशों को अपने ग्रन्थों में पंच अस्तिकाय, षद्रव्य, नव पदार्थ के रूप में निरूपित कर अन्तरंग और बहिरंग के वर्णन से आत्मनिष्ठता को प्रतिष्ठित किया है। अनार्य को तत्व समझाने के लिए अनार्य भाषा की उपयोगिता के उदाहरण से उन्होंने व्यवहार को निश्चय के समान मान्यता दी है । उन्होंने शुभ और शुद्ध शब्दों के उपयोग से जहां वैचारिक सूक्ष्मता का परिचय दिया, वहीं सामान्यजन को विशुद्ध आत्माभिमुखी बनाने के उद्देश्य से जगत् की निः सारता भी प्रकट की । विद्वानों का मत है कि षट्खंडागम और कषाय प्राभूत ग्रन्थ दिगम्बरों की दो धाराओं को निरूपित करते हैं। कुंदकुंद कषायप्राभत परम्परा के प्रकाशक हैं। उनके ग्रन्थों के सामान्य अध्ययन से उनके लेखन के तीन रूप प्रकट होते
१. प्रवचनसार और पंचास्तिकाय का स्तर मृदु है और आधुनिक परम्परा जैसा है। वह समन्वयवादी है ।
खण्ड २१, अंक १
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