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शिलालेख में । अनुमान है कि यह लिपि ईसा पूर्व दूसरी शती की है। इस लिपि में पुण्ड्रवर्धन, पुण्डनगर के नाम से उल्लिखित हुआ है। भरहूत स्तूप के घेरे के ऊपर जिन भिक्षओं का उल्लेख है, उनमें पुनढनीय (पुण्ड्रवर्धनीय) भिक्षुका नाम भी मिलता है। कोटिवर्ष का उल्लेख अपेक्षाकृत परवर्ती काल की शिलालिपि तथा ताम्रपट्ट में है। वाणपुर नामक नगर कोटि वर्ष में अवस्थित था। प्रायः सभी के मतानुसार वाणपुर है दिनाजपुर जिले में अवस्थित वर्तमान वाणगढ़। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कोटिवर्ष, पुण्डवर्धन के अंतर्गत एक स्थान था। ताम्रलिप्त तो सुपरिचित है ही। अतः कल्पसूत्र की इस थेरावली से मालूम होता है कि भद्रबाहु के शिष्यों ने जिन चार धाराओं तथा सम्प्रदायों की प्रतिष्ठापना की थी, उनमें दो थे उत्तरवंग में और दूसरा था निम्नवंग में, ताम्रलिप्त के आसपास । भद्रबाहु ईसा पूर्व चौथी शती में विद्यमान थे। अतः ऐसा अनुमान करना असंगत नहीं है कि ईसा पूर्व तीसरी शती में ही वंगदेश में जैनधर्म सुप्रतिष्ठापित हो चुका था।
___ इस अनुमान के पक्ष में एक और प्रमाण का उल्लेख किया जा सकता है। वह प्रमाण मिलता है दिव्यावदान से । दिव्यावदान, बौद्ध विनय ग्रंथ का एक अंश है। इस बात का प्रमाण है कि यह ग्रन्थ ईसा की पहली तथा दूसरी शती में पूरा-पूरा लिखा मया था। इस ग्रन्थ के एक अवदान में मौर्यवंश के राजा अशोक के भाई बीतशोक की कहानी है । बौद्धधर्म की दीक्षा लेने के उपरांत बीतशोक किसी समय प्रत्यंतजनपद में रह रहे थे।
"तस्मिन च समये पुण्ड्रवर्धन नगरे निग्रन्थोपासकेन बुद्धप्रतिमा निर्ग्रन्थस्य पादयोनिपतिता चित्रापिता। उपासकेनाशेकस्य राज्ञो निवेदितम् । श्रुत्वा च राज्ञाभिहितम् शीघ्रमानीयताम् तस्योर्धम् योजनम् यक्षाः श्रृण्वन्ति अधो योजनम् नागा यावत् तम् तत्क्षणेन यक्षरुपनीयताम् । दृष्टवा च राज्ञा रुषितेनाभिहितम् । पुन्ड्रवर्धने सर्वे आजीविकाः (=निर्ग्रन्थाः) प्रधातयितव्याः यावदेकदिवसे अष्टादशसहस्राणि आजीविकानाम (=निर्ग्रन्थानाम्) प्रधातितानि ।" (इस कहानी के पौर्वापर्य से समझा जा सकता है कि अन्तिम दो वाक्यों में भूल से निर्ग्रन्थ के स्थान में आजीविक कहा गया है। इस कहानी के चीनी अनुवाद से भी यह भूल स्पष्ट रूप से पकड़ी जा सकती है।)
पुण्ड्रवर्धन नगर में निर्ग्रन्थ उपासक ने एक ऐसा चित्र खींचा था जिसमें यह दिखाया गया है कि बुद्ध निर्ग्रन्थ की पद-वन्दना कर रहे हैं। यह समाचार अशोक को बताया गया । बहुत ही कुपित होकर अशोक ने निर्ग्रन्थों की हत्या करने के लिये यक्ष को नियोजित किया। पुण्ड्रवर्धन नगर के सभी निर्ग्रन्थों की हत्या की गई (और इसके साथ ही भूल से बीतशोफ की भी हत्या की गई, क्योंकि उस समय बिना कुछ जाने आप निर्ग्रन्थों के घर अवस्थान कर रहे थे) यह है अशोक के प्रारंभिक जीवन की घटना । उस समय वे निष्ठुर प्रकृतिवाले थे; इसी कारण उस समय उनका नाम था चंडाशोक । जब उनके शिलालेखों का प्रचार हुआ, उस समय शायद वे धर्म के कारण किसी का भी पीड़न नहीं करते थे, और उसी समय लिखा था-निगंथेसु पि मे कटे......"।
खण्ड २१, अंक १
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