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________________ है और यही व्यवस्था का स्थायित्व कहलाया ऋत जो गत-आगत का सत्यात्मक ____ इस प्रकार ऋत का शास्त्र सम्मत अर्थ हुआ सृष्टि का धारक तत्त्व, ईश्वरीय नियम ब्रह्म एवं प्रेरक-उत्तेजक तत्त्व । इसके इन अर्थों में भारत के सभी दर्शनों को अपना शास्त्र सम्मत अर्थ मिल जाता है। सांख्य और योग इसे सष्टि का धारक तत्व कहेंगे । न्याय इसे ईश्वरीय नियम कहेगा तो वेदान्त का यह ब्रह्म है जो सत्यम् है । जैन वैशेषिक एवं मीमांसा इसे प्रेरक या कर्म फलदाता कहेंगे। इस ऋत से बने शब्दों पर यदि हम विचार करें तो हमें इसका सत्यार्थ समझ में आ जायेगा। ऋ का अर्थ है देवताओं की माता अदिति एवं क्त (त) का अर्थ है यक्त। यास्क मषि ने अपने निरुक्त में देवता शब्द की अर्थ गरिमा इस प्रकार प्रकट की है :-"देवो दानाद दीपनाद् वा" जो दे एवं प्रकाशित करे वह देव । देवताओं की माता का अर्थ हुआ प्रकाशक तत्त्व का मूल आद्य स्वरूप । यही प्रकाशक तत्व चराचर सृष्टि के मूल में विद्यमान है जिसके कारण इस सृष्टि-प्रकृति का स्वरूप हर मौसम में नवनीत रूप में प्रकटित-प्रकाशित देखते हैं। इस ऋत के कारण संसार गत्यात्मक है एवं संसरणशील है। इस प्रकाशक तत्त्व से उन्मेषित होने वाला परमात्मा या परम तत्त्व ऋतम्भर है। 'ऋतम्भरा' यह चराचर सृष्टि है जो परम तत्त्व के प्रकाशक-गत्यात्मक-सत्यात्मक स्वरूप को धारण करती है । 'ऋतु' का अर्थ है निश्चित व्यवस्था और 'ऋत्व' का अर्थ है प्रकाशक, पुष्टवीर्य परमात्मा । 'ऋद्धि' शब्द परमात्मा की शक्ति की ओर संकेत करता है । 'ऋत धामा' शब्द का अर्थ है जगत की व्यवस्था करने वाले विष्णु जो विश्व में व्याप्त है। शिव 'ऋतध्वज' कहे जाते हैं एवं ब्रह्मा को 'ऋतवादी' या 'ऋतव्रत' कहा जाता है। वह 'ऋत्विक' भी है । इस प्रकार यह ऋत त्रिदेवात्मक त्रिगुणात्मक है। इस ऋ स्वर के उच्चारण भी हस्व, दीर्घ एवं प्लुत तीन प्रकार के हैं। स्वर रूप में यह स्वयं प्रकाशित है..."स्वयं राजन्ते इति स्वरा:"। हृस्व रूप संसार की सूक्ष्मावस्था दीर्घ स्थूलावस्था एवं प्लुत संसार की रूपातीतावस्था का संकेत करता है । अब सत्य की बात करें। सत् पद सत्य का आधार है। मूलत: सत् अस्तित्व का सूचक है । इससे 'सत्य' स्वरूप को सिद्ध करने के लिए इसमें 'यत' प्रत्यय जोड़ना पड़ता है । यह 'यत्' सत्य की भव्यता (अस्तित्व-व्यापकत्व) एवं कार्यता का द्योतक है। वैदिक दर्शन में प्रायः सत्य का प्रयोग कार्य सत्य के अर्थ में होता है और 'ऋत' के शाश्वत सत्य से उसको पृथक् बताया गया है । 'सत्' का प्रयोग श्रेय के अर्थ में भी होता है । इस प्रकार 'सत्' मंगलमय भावव्यवस्था है - "सद्भावे साधुभावे सदित्येतत्प्रभुः" अर्थात् सद्भाव (ध्रौव्यात्मक अस्तित्व एवं व्यापकत्व) एवं साधुभाव (मंगलायतन-कल्याण स्वरूप) के कारण यह 'सत्' प्रभु है । 'सत्' का अर्थ शुभ में भी माना जाता है जैसे सद्गति । अच्छे अर्थ में जैसे सज्जन, सदाचार । यत् के योग से सत्य भूत (युक्तता) एवं वर्तमान (अस्तित्व) का परम कार्य होने के कारण भावी भी है अर्थात् इस सत्य की त्रिकाल-व्यापकता है इसीलिए परमात्मा को 'परम सत्य' कहा जाता है। अणु में परमाणु की सत्ता से लेकर ईश्वरीय सत्ता तक में सत् की विद्यमानता है तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524583
Book TitleTulsi Prajna 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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