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________________ तामस के भेदों से ज्ञान को तीन भागों में विभक्त किया गया है। पृथक्-पृथक् सर्वभूतों में जिसके द्वारा अविभक्त एक एवं अव्यय सत्ता देखी जाती है, वह सात्विक ज्ञान है ।' जो ज्ञान सर्वभूतों में पृथग्भूत नाना भावों को पृथक रूप में जानता है, वह ज्ञान राजस कहलाता है । जो देह, प्रतिमा आदि एक कार्य में परिपूर्ण की तरह आसक्त होता है । यही आत्मा है, यही ईश्वर है। ऐसा अभिनिवेश युक्त ज्ञान अयथार्थ, तुच्छ है । उसी को तामस ज्ञान कहा जाता है। भारतीय दर्शन ने आत्मज्ञान को मुख्य माना है । आत्मज्ञान के अभाव में अन्य ज्ञान संसार-परिभ्रमण के ही हेतु बनते हैं। आत्मज्ञान कैसे उत्पन्न होता है, उसका वर्णन करते हुए विष्णु पुराण में कहा गया-वैराग्य से ज्ञान उत्पन्न होता है। ज्ञान के फल का वर्णन करते हुए कहा गया-वैराग्य से ज्ञान उत्पन्न होता है। ज्ञान से योग परिवर्तित होता है। योगज्ञ पतित हो जाने पर भी मुक्त हो जाता है इसमें कोई संशय नहीं है । वायुपुराण में ज्ञान की विवेचना में कहा गया--ज्ञान प्रकृष्ट, अजन्य, अनवछिन्न एवं सर्वसाधक है । ज्ञान उत्तम, सत्य, अनन्त एवं ब्रह्म है।" ज्ञान नेत्र को ग्रहण करके जीव निष्कल, निर्मल, शांत हो जाता है । तब उसे यह स्मृति हो जाती है कि मैं ही ब्रह्म हूं।१२ ब्रह्म स्वरूप में प्रतिष्ठा ज्ञान के द्वारा ही हो सकती है । मोक्ष का एकमात्र कारण ज्ञान ही है। ज्ञान का प्रामुख्य अध्यात्म मीमांसा, तत्त्व-मीमांसा आदि में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है । जैन-दर्शन में भी ज्ञान को मोक्ष मार्ग के रूप में स्वीकार किया गया ।3 आचार-मीमांसा में कहा है कि --प्रथम ज्ञान एवं उसके बाद अहिंसा आदि का आचरण होता है।" आत्मा और ज्ञान में अभिन्नता भी जैन दर्शन में स्वीकार की गई है । जो आत्मा है, वह विज्ञाता है । जो विज्ञाता है, वही आत्मा है।५ उपर्युक्त विवेचना प्रमुख रूप से आत्मदर्शन के संदर्भ में हुई है। ज्ञान की स्वरूप मीमांसा तत्त्व-दर्शन के संदर्भ में भी हुई है और दार्शनिक युग में तो ज्ञान के तत्त्वदर्शनीय स्वरूप का ही विस्तार हुआ है । वर्तमान में ज्ञान-मीमांसा के क्षेत्र में इसी ज्ञान पर विचार-विमर्श किया जाता है। ज्ञान संवेदन, अधिगम, चेतन भाव, विद्या-ये परस्पर एकार्थक शब्द हैं।" इन शब्दों के द्वारा ज्ञान के स्वरूप का निरूपण हुआ है। नंदी चणि में ज्ञान की व्युत्पत्तिपरक परिभाषा उपलब्ध होती है। जिसके द्वारा जाना जाता है, वह ज्ञान है। यह परिभाषा करण साधन के आधार पर है। अधिकरण साधन के द्वारा ज्ञान को पारिभाषित करते हुए कहा गया जिसमें जानता है वह ज्ञान है।" भाव साधन में जानने मात्र को ज्ञान कहा गया है ।" करण साधन की स्पष्टता करते हुए कहा गया है कि क्षायोपशमिक एवं क्षायिक भाव के द्वारा जीवादि पदार्थों को जानना ज्ञान है ।" ज्ञान की ये परिभाषाएं वस्तुजगत् के साथ सम्बन्ध की द्योतक हैं। पाश्चात्य परम्परा पाश्चात्य दर्शन में ज्ञान-मीमांसा दर्शन की मुख्य शाखा के रूप में विकसित हुई है। इसमें ज्ञान पर बहुविध विचार हुआ है । सुकरात पूर्व के ग्रीक दर्शन में हम ज्ञानमीमांसा के स्वरूप का अवलोकन करते हैं तो ज्ञात होता है कि उनकी ज्ञान सम्बन्धी अवधारणा आत्मकेन्द्रित थी। प्रोटागोरस प्रथम सोफिस्ट हुए। उनके दर्शन का सार है १२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524583
Book TitleTulsi Prajna 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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