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________________ के परिणाम है, जो प्रकृति के स्वरूपाधायक धर्म है, अतः यह कहा जा सकता है कि जब प्रकृति अपने त्रिगुणों के माध्यम से पुरुष से सम्बन्ध जोड़ती है और स्वभावतः चेतन, स्वच्छ और अविकारी पुरुष अविवेक वश प्रकृति के उन सुख-सुखादि धर्मों को अपना समझ बैठता हैं तो यही उसका बन्ध कहलाता है। ईश्वरकृष्ण के अनुसार यद्यपि चेतन पुरुष अकर्ता होता है, तथापि की प्रकृति के साथ संयोग होने पर अर्थात् सामीप्य होने पर बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव के कारण अचेतन बुद्धि (प्रकृति) चेतनयुक्त तथा उदासीन (तटस्थ) पुरुष कर्ता प्रतीत होने लगता है। तात्पर्य यह है कि वास्तव में पुरुष चेतना युक्त और उदासीन भाव वाला होता है किन्तु अविवेक या अज्ञान के कारण प्रकृति के सामीप्य से बुद्धिगत धर्मों को (कर्तृत्व सुख-दुःख आदि को) अपने ही धर्म मान बैठता है। इसके विपरीत निरन्तर अभ्यास-वैराग्य और विशुद्ध ज्ञानादि के बल पर त्रिविध दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति ही उस पुरुष का कैवल्य या अत्यन्त पुरुषार्थ है। सांख्य दर्शन में मोक्ष को 'कैवल्य' नाम से अभिहित किया गया है। इसका कारण यह है कि पुरुष को 'प्रकृति पुरुषान्यताख्याति' के बाद कैवल्यभाव की अनुभूति होती है, त्रिविध दुःखों की ऐकांतिक और आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है और प्रकृति से उसका सम्बन्ध छुट जाता है तब वह केवलीभाव को प्राप्त हो जाता है । सांख्य दर्शन से यद्यपि यह स्पष्ट समझ में आता है कि बन्ध और कैवल्य वस्तुतः पुरुष तत्त्व का ही होता है, तथापि कुछ सांख्य ग्रन्थों में ऐसे विचार भी दृष्टिगत होते हैं जिनके कारण इस विषय में कुछ शङ्काएं उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है । बन्ध किसका होता है और फिर कैवल्य (मोक्ष) किसका होता है-इस विषय में प्राचीन और अर्वाचीन भाष्यकारों तथा आलोचकों में दो मत मिलते हैं। प्रथम मत के अनुसार बन्ध व कैवल्य पुरुष तत्त्व का ही होता है, द्वितीय मत के अनुसार प्रकृति का । इस प्रकार के द्विविध विचारों का कारण सांख्य ग्रन्थों के अपने ही मूल वचन हैं-(i) एक ओर तो पुरुष को असङ्ग और उदासीन, अकर्ता, अविषय और अपरिणामी माना गया है", दूसरी ओर कहा गया है कि उदासीन होने पर भी वह जगत् का कर्ता जैसा हो जाता है।" (ii) पुरुष द्वारा प्रकृति के भोग और प्रकृति द्वारा पुरुष के कैवल्य रूपी प्रयोजनों की सिद्धि के लिए प्रकृति और पुरुष पङ गु और अन्ध के समान परस्पर सहयोग करते हुए सृष्टि-क्रम को आगे बढ़ाते हैं।"२ (iii) कारिका ६४-६५ से भी ज्ञात होता है कि वह स्वच्छ विमल पुरुष अन्त में तत्त्वाभ्यास से कैवल्य ज्ञान भी प्राप्त करता है । " प्रश्न यह उठता है कि यदि पुरुष स्वच्छ, विमल, उदासीन और अकर्ता रूप है तो वह सष्टि का कर्ता, भोक्ता कैसे हो सकता है तथा साथ ही उसका कैवल्य भी कैसे संभव है ? (iv) इसके अतिरिक्त सांख्यकारिका में यह भी कहा गया है कि पुरुष न तो बद्ध होता है, न ही मुक्त और न ही संसरण करता है । नानाश्रयों से युक्त प्रकृति की वस्तुतः संसरण करती है, बंधन में बंधती है और मुक्त होती है। वही धर्मादि सात रूपों से अपने को बांधती हैं और एक रूप (विवेक ज्ञान) से अपने को विमुक्त करती है।१५ ४६ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524583
Book TitleTulsi Prajna 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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