SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सांख्यकारिका 'तस्मान्न बध्यते'-एक विवेचन श्रीमती विजयरानी भारतीय दर्शन परम्परा में सांख्य दर्शन सम्भवतः सबसे अधिक प्राचीन है। इसके उद्भावक महर्षि कपिल को भगवान् श्रीकृष्ण ने सिद्ध मुनि की संज्ञा से अभिहित किया है।' इस दर्शन में जीवन की प्रमुख समस्याओं पर गहराई से विचार किया गया है । बन्ध और मोक्ष (कैवल्य) एक ऐसी ही ज्वलन्त समस्या है जो प्राचीन समय से मानव मस्तिष्क को आंदोलित करती रही है। हमारे प्राचीन शास्त्रों में 'धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष' ये चतुर्विध पुरुषार्थ स्वीकार किए गए हैं, इनमें से प्रथम तीन का सम्बन्ध इहलोक या संसारी अवस्था से है और चतुर्थ पुरुषार्थ "मोक्ष' को नित्य, निरतिशय, एवं परम पुरुषार्थ कहा गया है जिसमें किसी प्रकार का दुःख अथवा आवागमन आदि का सांसारिक बन्धन नहीं रह जाता। 'मोक्ष' का शाब्दिक अर्थ है ---त्याग या छुटकारा तथा पारिभाषिक अर्थ है ------'जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होना' । लोक व्यवहार में भी हम ऐसा ही पाते हैं कि किसी प्राणी के बन्धन खोल दिए जाने पर कहा जाता है-"उसे छुटकारा मिल गया या वह मुक्त हुआ।" सभी कोशकारों ने भी 'मोक्ष' शब्द के अर्थ-छुटकारा, स्वतंत्रता, वचाव, मुक्ति, अपवर्ग, सांसारिक बन्धन से मुक्ति आदि ही माने हैं।' मुक्त या स्वतंत्र वस्तुतः वही होता है जो पूर्वतः किसी बन्धन में बंधा हो। मनुष्य का आत्मा भी सांसारिक दुःख और आवागमन रूपी रज्जु से बंधा होता है और वह उस बन्धन से मुक्ति चाहता है। सांख्य दर्शन के अनुसार बन्धन और मोक्ष (कैवल्य) से क्या तात्पर्य है ? और ये किसके होते हैं-प्रकृति के अथवा पुरुष के ? सांख्य दर्शन में पुरुष (आत्मा) को स्वभावतः असङ्ग, उदासीन, अविकारी अर्थात् अपरिणामी कहा गया है क्योंकि यदि वह स्वभावतः बद्ध होता तो उसकी मुक्ति की इच्छा ही न होती और न ही उसके लिए मोक्ष साधनों के उपदेश की आवश्यकता होती। ईश्वरगीता में भी कहा गया है कि यदि आत्मा स्वभावतः मलिन, अस्वच्छ और विकारी होता तो सैकड़ों जन्मों में भी उसकी मुक्ति नहीं हो सकती थी। निर्बन्ध और स्वभावतः निर्मुक्त पुरुष का दुःख से योग होना ही बन्ध कहा गया है । वस्तुतः त्रिविध दुःख, गुणत्रय (सत्व, रजस्, तमस्) खण्ड २१, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524583
Book TitleTulsi Prajna 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy